Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 15
________________ है। भगवान् महावीर का सम्पूर्ण जीवन अहिंसा और संयम से आलोकित रहा। स्वयं कष्ट सहकर भी उन्होंने कभी किसी का अहित नहीं चाहा। स्वामी से छिपाकर उस की वस्तु लेना या उसके मना करने पर भी उसकी वस्तु का उपयोग करना प्रभु ने वर्जित ठहराया। यह उनके द्वारा जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया को भी धर्म-सम्मत रूप देने वाले गहन - गम्भीर पर्यवेक्षण का सूचक भी है और मनुष्य के सद्गुणों की अविराम रक्षा का आग्रह भी उन्होंने मनुष्य को सचेत करते हुए बताया “कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणय- नासणी । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व-विणासणो ।” क्रोध प्रीति का नाश करता है, अहंकार नम्रता का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। क्रोध, अहंकार, माया और लोभ से वही बच सकता है, जिसे संयम से जीवन-यापन करने की कला आती हो। दूसरे शब्दों में संयम सद्गुणों का स्रोत है 1 भगवान् महावीर ने इस संयम के साथ ब्रह्मचर्य को और भी आवश्यक बताया है। जैन तथा मानव संस्कृति को उनका यह बहुमूल्य योगदान है। उन्होंने कहा “ तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं ।” अर्थात् ब्रह्मचर्य तपों में उत्तम तप है। इसकी साधना करने वाले साधकों में अनासक्ति भाव की संभावना और भी अधिक बढ़ जाती है तथा अधिकाधिक अनासक्ति संयम की ओर अधिकाधिक अग्रसर करती है। काम-भोग मनुष्य को जितने अधिक मिलते जाते हैं उतना ही अधिक वह उनके लिए लालायित होता जाता है। इसीलिए सर्वज्ञ महावीर ने फरमाया “सल्लंकामा विसंकामा कामाआसी विसोवमा । कामा य पत्थेमाणा, अकामा जंति दोग्गइं ॥”, काम भोग शल्य रूप हैं, विषरूप हैं और विषधर के समान हैं। काम भोगों की लालसा रखने वाले प्राणी उन्हें प्राप्त किए बिना ही अतृप्त दशा में एक दिन दुर्गति को प्राप्त हो जाते है । दूसरी ओर संयम का आचरण जीव को तेज से देदीप्यमान् व्यक्तित्व तो प्रदान करता ही है, उसे तीव्र गति से मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर भी करता है । काम-भोग तो कर्मों की उस दलदल के समान हैं जिनमें एक बार जीवात्मा धंस जाये तो वह धंसती ही चली जाती है। पहले जीवन काम भोगों का प्रयोग करता है और फिर काम-भोग उसका प्रयोग करते हैं। विषय वासनाओं से यदि जीवन संचालित होना आरम्भ हो जाये तो जीव उनका गुलाम बनता जाता है। प्रभु द्वारा दिया जाने वाला काम भोगों से बचने का उपदेश वस्तुतः गुलामी के बंधन तोड़ कर स्वतंत्रतापूर्वक जीने का आह्वान है। Jain Education International जीव को परिग्रह भी स्वतंत्र नहीं रहने देता। परिग्रह का अर्थ भगवान् महावीर ने बताया- आवश्यकता से अधिक संचय करना। संचय समानता की शत्रु प्रवृत्ति होने के कारण सामाजिक अपराध है यह अपराध मनुष्य के पदार्थों में आसक्ति भाव से उगता है। भगवान् महावीर ने देशना दी - “न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो बुत्तो, इइवुत्तं महेसिणा ॥" For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक 6/21 www.jainelibrary.org

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