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वह रत्नमाशि तो सृष्टि का सबसे चमकदार भाग थी, धुर का लेश-मान नहीं था पर अग थी
अपने-अप से भी ज्यादा अपने
ऐसे थे
वे चौक सपने
वे जिसे स्वप्न नहीं थे महाराज ! शीघ्रातिशीध शान्त कीजिये मेसी ज्ञन पिपासा अब मैं त्रिशला नहीं मैं तो हूँकेवल जिज्ञासा
केवल जिज्ञासा ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /17
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