Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 138
________________ पुनः परमाया प्रभु ने"अच्छा हुआ तुम शीघ्र आ गये यहीं तुम्हारे मन में बरसों से एक प्रश्न हैआत्मा का अस्तित्व सचमुच होता मी है या नहीं ?" सुनकर गौतम स्तब्ध कमी किसी से न कहा गया अतरतम का प्रश्न महावीर को सहजता से उपलब्ध ! यह मनुष्य नीं यह तो है साक्षात् ज्ञन प्रभु ने चुटकियों में कर दिया उस प्रश्न का समाधान गौतम चकित मोम-मोम पुलकित कर लिया निश्चय अब तो महावीर में ही कर देना है स्वयं को विलय यही हुआ अन्य सभी विद्वानों के साथ सरलता से ईंट गई अकान की बात अब कोई नहीं था शब्द-जाल से गर्वित व्यानठों विद्वान् चार हजार चार सो शिष्यों सहित प्रभु चरणों में समर्पित मन में साधना का प्रण धन इस तरह पहुंचे प्रभु के पास उनके ग्यारह गणधर चन्दनबाला अक्षय-अनन्त सुनव हुई उनके साध्वी-संघ की प्रमुभव हुई प्रकाश-पर्व : महावीर /117 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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