Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 139
________________ धर्म की अगामी सुव्यवस्था के प्रभु ने चार बनाये ॐा भ्रमण, श्रमणी, श्रवक श्रविका संघ उनके धर्म-संध में जाति, वर्ग, अयु और सम्बन्ध जैसे विभाजन निस्सार थे साधना की अवधि और तप-त्याग ही न्यूनाधिक सम्मान के अधार थे प्रभु ने वेदनाओं को हर्ष और पतन को उत्कर्ष बनाया धर्म-दृष्टि के पैमाने से सिनवाया पाप-पुण्य को मापना तीर्थकर महावीर ने की धर्म-संघ-तीर्थ की स्थापना जिसके अलोक से धन्य है अज सम्पूर्ण समाज समी समवशरण में प्रभु-वाणी सुनने लगे अनुभव-सिद्ध-ज्ञान प्रभु-कथन को गुनने लगे प्रभु मार्थकता के मोती बिनवना रहे थे अपने मुमवारविक से परमा रहे थे"भव्य जीवो ! अपनी उम्र मत बिताओ अज्ञान की कगाह में तुम्हारे लिये धर्म ही एकमात्र शरण है जन्म-जना और मरण के केगवान् प्रवाह में तुम्हें सुनव-दुःनव का मूल नवोना है समझ लो ! ज्ञानी होने का अर्थ अहिंसक होना है। प्रकाश-पर्व : महावीर /118 For Personal & Private use only Jain Education International www.jainelibrary.org

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