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तीर्थंकर महावीर [प्रकाश-पर्व महावीर]
गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि
यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन
नई दिल्ली-110 (313
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तीर्थकर
महावीर
श्री सुभद्रमुनि
[प्रकाश-पर्व : महावीर
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तीर्थंकर महावीर
[प्रकाश-पर्व : महावीर ] (जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर के महनीय दिव्य व्यक्तित्व का गद्य काव्य-रेखांकन)
- लेखक : श्री सुभद्र मुनि
प्रकाशक :
यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन
नई दिल्ली-110 015
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प्रकाशन वर्ष : 1998
प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन बी-137, कर्मपुरा, नई दिल्ली-110 015
मूल्य : 500.00 रुपये
मुद्रक : विकास कम्प्यूटर एण्ड प्रिंटर्स
नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
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समर्पण
जिन से जीवन पथ पर चलने के लिये नेत्र मिले !
परम श्रद्धेय प्रातः स्मरणीय गुरुमह
__ श्रमण धर्म के मुकुट योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज
अनन्त आस्था के साथ
-सुभद्र मुनि
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काव्य और मैं
भाषा का जब से विकास हुआ, तभी से उसने अपनी रसात्मकता, सम्वेदनशीलता, करुणा और ललित-कोमल शब्दावली के कारण मनुष्य को आकर्षित किया। मनुष्य के लिये यह कौतूहल और आनन्द का विषय था-काव्य की सरिता कैसे मस्तिष्क के कूलों को स्पर्श करती हुई हृदय-प्रदेश पर बहती है? कैसे उस में हृदय के समस्त रस स्वतः प्रकट हो जाते हैं? यही कारण था कि समय-समय पर अनेक शब्द-साधक अनुभूति व अभिव्यक्ति के अनेक मार्गों से होते हुए आनन्द के इस स्रोत तक पहुँचते-पहुँचाते रहे।
___ मुझे भी काव्य प्रिय रहा। मैं एकांत-विश्रांत पलों में, काव्य पढ़ता, गुनगुनाता। काव्य-रचना का कोई विशेष प्रसंग मेरे जीवन में नहीं बना। अतः इस दिशा में मेरा कार्य रचना के स्तर पर स्वल्प रहा और प्रकाशन की दृष्टि से अत्यल्प। रचना के स्तर पर काव्य के इस रूप में मेरी रुचि कब और कैसे बनी, इसका उल्लेख यहाँ अपेक्षित प्रतीत हो रहा है।
सन् 1977 की बात । परम पूज्य गुरुदेव संघशास्ता श्री रामकृष्ण जी म० का चातुर्मास रोहतक मण्डी में था। गुरुदेव की सेवा में यह सेवक (लेखक) भी था। उस चातुर्मास में मुझे लगभग 10-15 दिन बुखार आया। बुखार ने मुझसे मेरे सभी काम छीन लिये। सारे दिन लेटे रहो, मेरा बस यही एक काम रह गया। विश्राम करते हुए एक दिन सहसा मेरे मानस में एक विचार जागा। मैं उसे गद्य-कविता के रूप में बोलने लगा। उसके स्वर उसी के रूप में मैंने कागज पर उतार लिये। बाद में विचार करने पर अनुभव हुआ कि सम्भवतः यही मेरी प्रथम कविता है, जिसका शीर्षक था- 'नजर'। उन्हीं दिनों लगभग तीस-चालीस गद्य-कवितायें अंकित हुई। उन में से कुछ अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं व 'पंजाब केसरी', 'नवभारत टाइम्स' आदि राष्ट्रीय दैनिकों में प्रकाशित हुई। तब मैं 'पारिजात' और 'शुभ', इन दो उपनामों से कवितायें भेजा करता था। प्रकाशित होने पर लगा कि औरों की दृष्टि में ये 'कवितायें हैं। यही था—काव्य-रचना व प्रकाशन से मेरे परिचय का आरम्भ। ___ आरम्भ तो हो गया परंतु काव्य और मेरे बीच जो प्रगाढ़ सम्बन्ध-सेतु सम्भावित था, वह बन नहीं सका। परिस्थितियों के दबाव और गुरुदेव श्री के श्रद्धालुओं के आग्रह से मेरा अधिकांश लेखन-कार्य गद्य के रूप में ही हुआ। यूं मेरा गद्य से कोई विरोध तो था नहीं, जो मैं उसे रोकता। परिणामतः एक के बाद एक, गद्य-कृतियाँ प्रकाशित होती रहीं। काव्य छूट गया...यह तो मैं तब सोचूं जब वह मुझ में ठीक से उदित हुआ हो। एक प्रसंग फिर घटा।
मेरी गुजराती पढ़ने की रुचि जागी। तब मेरा सम्पर्क प्रोफेसर महेन्द्र भाई दवे से हुआ। गुजराती भाषा के प्रतिष्ठित विद्वान तो वे थे ही परन्तु विशेष यह कि काव्य में भी विशेष रुचि रखते थे। उन्होंने मुझे अपनी छन्द-मुक्त कवितायें दिखाई। मरे मन में प्रसुप्त काव्याकर्षण पुनः जागृत हो उठा। मैंने भगवान् महावीर के महान् जीवन को काव्य-रूप में आकार देने की पोची। कुछ कवितायें रची गई। आत्म-विश्वास तो था नहीं। अतः मैंने वे कवितायें प्रोफेसर साहब को दिखायीं। उन्होंने उन्हें पसंद किया। कुछ सुझाव भी दिये। काव्य से मेरे पुराने परिचय का नवीनीकरण हुआ। काव्य से सम्बन्धों का सेतु फिर निर्मित होने लगा।
सन 1995 में मैंने ‘पच्चीस बोल' (जैन तत्त्व ग्रंथ) पर प्रवचन दिये। तब काव्य की लहर पुनः आयी और कुण्डलिया छन्द में पच्चीस बोल के मोती दे गई। उन्हें अंकित किया। सुनाया। प्रतिक्रियायें उत्साहवर्द्धक थीं। कुछ बच्चों ने उन्हें मुखाग्र भी किया।
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काव्य-रचना व प्रकाशन के अवसर मेरे जीवन में भले ही कम आये हों, पर कवियों व कविताओं से आत्मीय सम्बन्ध के संयोग प्रभूत मात्रा में उपलब्ध होते रहे। श्रद्धाशील महावीर प्रसाद जी 'मधुप', डॉ० मोहन मनीषी, डॉ० रघुवीर प्रसाद जी सरल (भिवानी), श्री ओमप्रकाश ‘हरियाणवी', विनय देवबन्दी, डॉ० विनय विश्वास, अशेष जी आदि कविजन समय-समय पर गुरु-चरणों में आते रहते हैं और उनकी रचनायें सुनने के साथ-साथ काव्य-चर्चा के क्षण भी मुझे सहज ही मिलते रहते हैं।
इसके अतिरिक्त परम पूज्य गुरुदेव श्री की काव्य-कृतियों, 'ऋतम्भरा', 'मंदाकिनी', 'कादम्बिनी' एवम् अन्य स्फुट रचनाओं, के प्रकाशन-क्रम में उन्हें पढ़ने तथा व्यवस्था की दृष्टि से देखने का सौभाग्य भी मुझे मिलता रहा। आज भी गुरुदेव को जब कभी कुछ लिखना होता है तो वे मुझे कागज-कलम लाने का आदेश देते हैं। मैं समझ जाता हूँ कि गुरुदेव कोई मूल्यवान धरोहर प्रदान करने जा रहे हैं। काव्य से मेरे सम्बन्ध का एक रूप यह भी है।
अब...इस सम्बन्ध का नवीनतम रूप-प्रस्तुत पुस्तक। महावीर जयंती के पुनीत अवसर पर इस वर्ष 'श्री सम्बोधि' पत्रिका का काव्य-विशेषांक प्रकाशित करने की योजना बनी। पूर्व-रचित कविताओं का, विशेष रूप से, भगवान् महावीर के जीवनाधार पर रचित काव्य का, स्मरण आया। उस काव्य के कुछ अंश पत्रिका में प्रकाशित भी हुए। उसी क्रम में प्रस्तुत काव्य पूर्ण हुआ। नाम ऊँचा- 'प्रकाश-पर्वः महावीर'। सम्बोधि (मासिक) के यशस्वी सम्पादक तथा सुप्रसिद्ध कवि श्रद्धाशील डॉ० विनय विश्वास ने इस पुस्तक का सम्पादन किया। मुनिरत्न श्री अमित मुनि जी ने अपनी कलात्मकता से इसे व्यवस्था दी और यह सचित्र कृति रूपायित हुई। प्रिय शिष्य अनुज के० भटनागर ने इसका चित्रांकन किया।
मेरे परम पूज्य गुरुदेव श्री रामकृष्ण जी महाराज का अविरल स्नेह ‘प्रकाश-पर्वः महावीर' के शब्द-शब्द में समाया है। अस्वस्थ स्थिति में भी उन्होंने इसे पूर्णतः सुना। इसमें शेष त्रुटियाँ दूर की। अपने अमूल्य शब्द-माणिक्य इसे प्रदान किये। गुरुदेव के मंगलमय पथ-प्रदर्शन के अभाव में यह कृति कदापि पूर्ण न हो पाती। मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है—परम पूज्य गुरुदेव के प्रति।
भगवान महावीर प्रकाश के ऐसे पर्व थे, जिसमें सभी भेदभाव भूलकर अनन्त जीव जीवन्त उल्लास के साथ सम्मिलित हुए। इस प्रकाश-पर्व से अन्य तिमिराच्छन्न जीवों का भी उत्थान हो, इसी मंगल-भावना के साथ ।
-सुभद्र मुनि
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भूमिका
प्रकाश-पर्व : महावीर
'प्रकाश-पर्वः महावीर' मुक्त छंद के रूप में रची गई काव्य-कृति है। भगवान् महावीर अथवा पूर्ण मनुष्यत्व के अक्षय जीवन को आधार बनाकर हिन्दी के इतिहास में सम्भवतः प्रथम बार उस दिव्य जीवन की अर्थछायाएँ मुक्त-छन्द का रूप धरकर प्रकाशित हो रही हैं। भगवान् महावीर का जीवन मुक्ति का जीवन्त छन्द था। इसीलिये समय-समय पर अनेक कवियों ने अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुरूप उसे तरह-तरह से गाया। अनेक लेखकों ने अपने-अपने ढंग से उसे व्याख्यायित-विश्लेषित किया। मुक्ति के उस जीवन्त छन्द के सर्वव्यापी प्रभाव से शुष्कता ने कवित्व बनकर धन्यता अनुभव की। व्यक्तित्व ही ऐसा था वह।। __वही व्यक्तित्व 'प्रकाश-पर्वः महावीर' में पुनः भास्वर हुआ। विशेषता यह कि शब्द-शब्द में जीया गया उसे। अर्थ-अर्थ में अनुभव किया गया। भाव-भाव में गाया गया। यही कारण है कि रचने की कोशिश इस पूरी काव्य-कृति में कहीं दिखलाई नहीं देती। कृत्रिम सौंदर्य ढूंढ़े नहीं मिलता। जहां देखो अनुभूति के सांचे में सहजता से ढल कर उभरती काव्य पंक्तियां। मुक्त छंद की आवश्यकता ही कवियों ने सहजता के कारण अनुभव की थी। चाहा था कि अर्थ के अतिरिक्त, मात्र छन्द निर्वाह हेतु लाये जाने वाले शब्दों के बोझ से मुक्त हो कविता। शब्द की लय अर्थ की लय के लिये हो। ऐसा न हो कि अर्थ की लय शब्द की लय के लिये उपकरण-मात्र बनकर रह जाये। अर्थ का सम्पूर्ण गौरव कहीं साध्य से साधन न बन जाए, इसी चिन्ता से हिन्दी कविता के इतिहास में मुक्त छन्द जन्मा था।
भारत के स्वाधीनता संघर्ष के दौर में जन्म लेकर मुक्त छन्द स्वातंत्र्योत्तर युग में हिन्दी कविता की मुख्य धारा बन गया। छन्द की रूढ़ियों से मुक्त होकर उसने लय से अपना सम्बन्ध बनाये रखा। जहाँ-जहाँ लय उससे छूटी वहां-वहां न तो वह छन्द रहा, और न ही कविता। भले ही कविता की शक्ल में उसे छापा और सम्मानित किया जाता रहा हो। महत्वपूर्ण यह है कि छन्द ने जब अर्थ समृद्धि और उसकी लय के लिए अपने सभी नियम दाँव पर लगा दिये, तब वह 'मुक्त छन्द' कहलाया। उसमें न तुकें मिलाने का अपरिहार्य आग्रह शेष रहा और न ही निश्चित वर्ण-क्रम एवम् वर्ण गणना का पांडित्यपूर्ण अभ्यास । यदि सुन्दर या सार्थक शब्द में से किसी एक को चुनने का प्रश्न उसके सम्मुख आया तो उसने सार्थक शब्द को ही चुना। इसीलिये उसकी अर्थवत्ता अर्थ की सहजता और सहजता के अर्थ को काव्य-रूप देने में रही। यह अर्थवत्ता प्रस्तुत कृति में घटित हुई है। छन्द-शास्त्र में उल्लिखित रूढ़िगत नियमों का निर्वाह यहाँ नहीं है। यहाँ है—अर्थ की और उससे भी आगे बढ़कर भाव की एक विराट् लय, जो सम्पूर्ण कृति में आद्योपान्त गूंजती है। यह बात और है कि भाव की इस लय ने शब्दों की लय से कोई वैर नहीं रखा है। अतः शब्द लय की सृष्टि भी स्वयमेव हो गई है परन्तु केन्द्र में रही है भाव की लय। इस मुक्त छन्द में मुक्ति के जीवन्त छन्द ‘भगवान् महावीर' प्रभावोत्पादक ढंग से उभर आये हैं।
जैन धर्म प्रभावक गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज द्वारा सृजित विविधानेक गद्य रचनाओं से जो पाठक/श्रोता परिचित हैं, वे इस तथ्य को भी भली-भाँति जानते हैं कि गद्य रचनाओं के बीच-बीच में स्थान-स्थान पर गुरुदेव का कवित्व प्रकट होता रहा है। मुक्त छन्द में इससे पूर्व भी गुरुदेव की सृजन क्षमता रूप ग्रहण करती रही है। पत्र-पत्रिकाओं में आपश्री की कुछ कवितायें प्रकाशित भी हुई हैं परन्तु पुस्तक रूप में एक सुदीर्घ काव्य-कृति का प्रकाशन पहली बार हुआ है। निश्चित ही पाठकों के लिए गुरुदेव के काव्य सृजन का यह रूप दर्शनीय होगा।
'प्रकाश-पर्वः महावीर' की उत्कृष्टता काव्य-रचना के विभिन्न पक्षों में चरितार्थ हुई है। यथार्थ के मार्मिक अंकन की दृष्टि
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से, भगवान् महावीर के समय का समाज स्त्रियों के प्रति कितना क्रूर था, इसका चित्रण प्रस्तुत पंक्तियों में द्रष्टव्य है—स्त्रियों को भी बनाया जाता है दासियाँ/अपनी इच्छा से वे न हँस सकती हैं—न ले सकती हैं उबासियाँ /उन्हें समझा जाता है/मनोरंजन का सामान/फिर वे/कुओं में कूद कर क्यों न दें अपनी जान उनके लिये/दिवास्वप्न है सम्मान की जगह /कैसा समाज है यह।" इस कृति की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि उपमायें यहाँ अलंकार मात्र के रूप में प्रयुक्त नहीं हुई। अभिव्यक्ति के अलंकरण का ही कार्य वे नहीं करतीं। कविता की अनिवार्यता बन गई हैं वे। प्रभु के जन्म का सृष्टि पर प्रभाव अंकित करते हुए गुरुदेव ने कहा-"जैसे मूर्छित में/चेतना आती है जैसे गंगेपन की जबान गीत गाती है जैसे नेत्रहीन को नेत्र मिलते हैं/जैसे क्रूरता के भीतर आंसू खिलते हैं जैसे अहंकार में आने लगे सरलता/जैसे पत्थर दिल लोभ/उगाने लगे/त्याग की तरलता/जैसे क्रोध की दुनिया में क्षमा मुस्कराये /प्रभु आये।" इन पंक्तियों से यदि उपमायें निकाल दी जायें तो काव्य-सौंदर्य ही नहीं, काव्य अर्थ भी समाप्त हो जायेगा। इस से ज्ञात होता है कि अंतर्वस्तु की अनिवार्य मांग पर ही यहां उपमायें आई हैं, कवि के अलंकार मोह या प्रतिमा प्रदर्शन मोह के कारण नहीं।
बालक वर्द्धमान की परीक्षा लेने आया देव जब दैत्य का रूप धरता है तो काव्य चित्रात्मक हो उठता है—"लम्बे नुकीले तीखे/दांत और नाखून दीखे/झाड़ झंखाड़ से बाल/आँखें अंगारों सी लाल।" पेड़ तले खड़े वर्धमान के सामने जब एक पंछी घायल होकर गिर पड़ता है "तो वर्द्धमान का/रोम-रोम कराह उठा/पोर-पोर हो गया/अपने रक्त से रंजित/आंखों में उमड़ आई अहिंसा की नदी।" वर्धमान के भीतर होने वाला भावान्दोलन इन पंक्तियों में देखा जा सकता है। संवादों का भी कुशल उपयोग प्रस्तुत काव्य कृति में किया गया है। शूलपाणि यक्ष अपने पूर्व भव की कथा सुनाता है। बताता है कि वह अपने स्वामी का चहेता बैल था। इतना चहेता कि उसने उसे कभी जोता नहीं था। एक बार स्वामी पाँच सौ गाड़ियां लेकर व्यापार हेतु चला तो वर्धमान ग्राम के निकट नदी के कीचड़ में गाड़ियाँ फँस गई। किसी तरह न निकलीं। तब उसी ने उन्हें निकाला। अत्यंत श्रम से उसके कंधे टूट गये। वह जमीन पर गिर पड़ा। स्वामी ने ग्रामवासियों को धन देकर कहा--"यह जो धरती पर लेटा है/बैल नहीं है यह/मेरा बेटा है इसकी करते रहना सार-संभाल/हर तरह से/रखते रहना ख़याल/ये धन इतना है कि इसका महीनों तक नहीं होगा क्षय/मैं अपने वत्स को साथ ले जाऊंगा लौटते समय/इसके बिना मेरा जीवन/बना रहेगा संत्रास/लो ! मेरा बेटा/मेरी अमानत है तुम्हारे पास।" संवाद मार्मिक हैं। कुशल भाषा प्रयोग का एक और प्रमाण। भगवान महावीर की परीक्षा लेने जब संगम देव चला तो उसे "सुविधा-पोषित अहंकार" कहा गया। सजग शब्द प्रयोग का यह जीवन्त उदाहरण है। कथा प्रवाह को अग्रसर करते बिम्ब इन पंक्तियों में हैं-महावीर एक बार फिर चन्दना की ओर मुड़े/चन्दना के धधकते नेत्र/पुनः शीतलता से जा जुड़े/जो असम्भव लगता था/वही घट गया/अभिग्रह पूर्ण हुआ कुहासा छंट गया/महावीर ने अरसे बाद/करपात्र बढ़ाया/मनुष्य तो मनुष्य/पशु-पक्षियों और देवी-देवताओं के नयनों में भी/हर्ष भर आया।" कथा-प्रवाह के बीच-बीच में सूक्ति बन जाने वाली पंक्तियों का प्रयोग भी हुआ है। जैसे—“सचमुच !/ज्ञान के क्षेत्र में/कभी कोई कुछ नहीं खोता है| यही एक ऐसा मैदान है जिसमें/हारने का भी गर्व होता है।" बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात समेटने की शक्ति यहाँ देखिये—“प्रभु ने/वेदनाओं को हर्ष और पतन को उत्कर्ष बनाया/धर्म-सृष्टि के पैमाने से सिखाया/पाप-पुण्य को मापना/तीर्थंकर महावीर ने की/धर्म संघ तीर्थ की स्थापना जिसके आलोक से धन्य है आज/सम्पूर्ण समाज।"
काव्य-शक्ति के और भी अनेक उदाहरण प्रस्तुत कृति में भरपूर हैं। सभी को उद्धृत कर विवेचना की जाये तो एक पूरी पुस्तक तैयार हो जाये। वास्तविकता यह है कि 'प्रकाश-पर्वः महावीर' एक सशक्त काव्यकृति है। भगवान महावीर के सुप्रसिद्ध जीवन-प्रसंगों की पुनर्रचना इस ढंग से करना कि वे प्रसंग नये भी हो जायें तथा अपेक्षाकृत अधिक मार्मिक भी, एक बड़ी चुनौती है। प्रस्तुत काव्य-कृति इस चुनौती का समुचित एवम् सर्जनात्मक प्रत्युत्तर है। जन सामान्य से लेकर साहित्यिक पाठक वर्ग तक, सभी को प्रभावित करने की क्षमता से सम्पन्न है-'प्रकाश-पर्वः महावीर' । आशा है इसका स्वागत भी उतना ही सक्षम होगा, जितनी सक्षम यह स्वयं है। .
-डा० विनय विश्वास
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| अनन्त प्रकाश के स्रोत : भगवान महावीर |
-सुभद्र मुनि
भगवान् महावीर मनुष्यता की सुबह थे। अमानवीयता का अंधकार उनके स्पर्श-मात्र से सिहर उठा। जैसे-जैसे प्रभ की जीवन-यात्रा का सूर्य आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे यह अन्धकार नष्ट होता गया। मानवता के पुष्प खिलते गए। प्राणियों में चेतना संचरित होती गई। अहिंसा के स्रोत, सत्य के प्रकाश, अस्तेय की आत्मा, अपरिग्रह के प्रमाण और ब्रह्मचर्य के तेज-पुंज भगवान् महावीर। अपने-आप में वे उत्तरोत्तर उन्नत होती मनुष्यता का संपूर्ण इतिहास थे और इसी कारण से अपने युग के इतिहास निर्माता भी थे।
संस्कृति के इस दिनकर ने ईसा से 599 वर्ष पूर्व बिहार प्रदेश में वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुण्डग्राम में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के पवित्र दिन जन्म ग्रहण किया। ज्ञातृवंश व कश्यप गोत्र के राजा सिद्धार्थ पिता बनकर धन्य हुए और वशिष्ठ गोत्र से सम्बद्ध त्रिशला माता बनकर गौरवान्वित हुई। प्रभु के गर्भवास-काल में जो चौदह दिव्य स्वप्न उन्होंने देखे थे, वे सबके सब एक साथ फलित हुए। उनका मातृत्व सब कुछ पा गया। प्रभु के गर्भवास काल से ही राज्य में वैभव और ऐश्वर्य की अपार वृद्धि हुई। अतएव जन्म ग्रहण करने के ग्यारहवें दिन समारोहपूर्वक उनका नामकरण हुआ-वर्द्धमान। माता-पिता, चाचा सुपार्श्व कुमार, बड़े भाई नंदीवर्धन तथा बड़ी बहन सुदर्शना के वात्सल्य-केन्द्र बने। जब वर्द्धमान आठ वर्ष के हुए तो शिक्षा-प्राप्ति हेतु उन्हें कलाचार्य के पास गुरुकुल में भेजा गया। कलाचार्य बोले-इसमें तो मुझे भी पढ़ाने की सामर्थ्य है।" वर्धमान वस्तुतः स्वयंबुद्ध थे। गर्भ-काल से ही उन्हें मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान प्राप्त थे। ज्ञान के कारण उन्हें 'सन्मति, साहस के कारण 'वीर', पराक्रम के कारण 'महावीर, अत्यधिक धैर्य व शौर्य के कारण अतिवीर' एवम् सभी जीवों की पीड़ा को अपनी पीड़ा के रूप में अनुभव करने के कारण 'करुणावतार' कहा गया। उनका बचपन व कैशोर्य इन सभी नामों को जन्म देने वाली विलक्षण घटनाओं से सम्पन्न रहा।
युवा होने पर परिवारजनों ने वर्धमान के न चाहते हुए भी अपनी खुशी के उद्देश्य से वर्धमान का विवाह यशोदा नाम की राजकमारी से कर दिया। दूसरों की भावनाओं के प्रति सम्मान-भाव उनमें कितना अधिक था, यह बताने के लिए उनके जीवन का एक यही सत्य पर्याप्त है कि गर्भ में रहते हुए ही माता-पिता का संतान-मोह जानकर उन्होंने निर्णय कर लिया था--"इनके रहते में दीक्षा-ग्रहण नहीं करूंगा।" माता-पिता अतीत हुए तो बड़े भाई के वात्सल्य का आदर करते हुए दीक्षा को दो वर्ष तक और स्थगित कर दिया परन्तु भाई से यह वचन भी ले लिया कि दो वर्ष बाद वे नहीं रोकेंगे। दीक्षा लेने से पूर्व प्रभु दरिया महादुःख दूर करने के लिए जनसाधारण को एक वर्ष तक प्रति दिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राएं बांटते रहे।
___ मार्गशा दशमी (29 दिसम्बर, ईसा पूर्व 569) के दिन भगवान् ने समस्त भौतिक उपादानों का त्याग करते हुए केशलुंचन मण-दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्यय ज्ञान (दूसरे के मन के सूक्ष्म विचारों का ज्ञान) हो गया। वे मनुन धारक बन गए। संयम के कंटकाकीर्ण पथ पर नंगे पांव उनकी महायात्रा आरम्भ हुई। इस यात्रा में विविध अनेक रोमांचित कर देने वाले भयानक उपसर्ग तथा परीषह उन्होंने समभावपूर्वक सहे। क्षमा का महान धर्म उनके
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जीवन का सहज अंग सदैव बना रहा। भूख प्यास, सर्दी, आंधी, बारिश आदि प्राकृतिक परीषह उनकी अविचल साधना के सम्मुख निस्तेज हो गए।
साधनारत महावीर को कोड़े से पीटने वाले ग्वाले ने क्षमा और अभय का दान पाया। हाथी, शेर, सांप और बिच्छू आदि का रूप धर कर उन्हें सताने वाले यक्ष ने मैत्री, प्रेम व करुणा का अमृत - मंत्र पाया। चंडकौशिक जैसे क्रोधी सर्प ने उनके पांव में विषैले दांत गड़ाकर रक्त के स्थान पर दूध निकलता देखा और आत्म-कल्याण का अचूक बोध पाया। संगम देव ने उन्हें दबा देने वाली धूल की बारिश दी। विषैली चींटियों का आक्रमण उन पर करवाया । भयानक मच्छरों से उनकी देह को पाट दिया। दीमकों की बांबी बना दिया उनका पूरा शरीर सर्पदन्त और उसके बाद विकराल गज-दंत का प्रहार किया उन पर उन्हें जंगली हाथी के पांवों तले रौंदवा डाला पर, महावीर सच में महावीर थे। पर्वत हिले तो वे हिलें। स्वयं को उनका शिष्य घोषित कर अपराध किए और नाटक रचकर उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया । ध्यानस्थ महावीर के पांवों पर लकड़ियां जलाई और उस आग में खीर पकाई भांति-भांति की प्रचंड यातनाओं का अटूट क्रम संगम देव ने उन्हें दिया किन्तु बदले में पाया प्रभु की आंखों में झिलमिलाता महाकरुणा का वह सागर, जो संगम के आगामी दुःखों को देखकर उमड़ आया था। एक ग्वाले ने उनके कानों में लकड़ी की कीलें ठोंक दीं और पायी सुमेरु- सी विराट् तथा मौन क्षमा ।
बारह वर्ष से भी अधिक समय तक भव-बंधन में जकड़ने वाले कर्मों को वे शून्य करते रहे। अंततः जृंभक ग्राम के सीमान्त प्रदेश में ऋजुबालुका नदी के तट पर श्यामक किसान के खेत में शाल वृक्ष के नीचे महावीर गोदोहन आसन लगाकर ध्यानलीन हो गए। पांचों ज्ञानेन्द्रियों और पांचों कर्मेन्द्रियों को अपने तपःपूत हाथों में ऐसे आबद्ध कर लिया जैसे गाय दोहते समय ग्वाले के हाथों में धन आबद्ध होते हैं। उनकी अंतरात्मा विशुद्ध होने लगी। जन्म-जन्मांतर के पाप कर्म नष्ट होने लगे। ज्ञान का अविरल अमृत बरसने लगा । वैशाख शुक्ल दशमी के दिन श्रमण महावीर भगवान् महावीर बन गए। वे सर्वज्ञ हो गए। केवल ज्ञान पा गए असंख्य सूर्यो का प्रकाश जैसे उनमें समा गया हो।
अब जानने के लिए कुछ भी शेष न रहा । बताने के लिए असीम ज्ञान था । दीक्षा ग्रहण करते समय उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि "जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं पाऊंगा तब तक उपदेश नहीं दूंगा।" अब प्राप्त हो चुके अनन्त ज्ञान को अन्य जीवों के कल्याण हेतु बांटने का समय आ चुका था। भगवान् महावीर ने देशना दी उस अर्धमागधी भाषा में, जो उस समय की जन भाषा थी। जीव-जीव ने जाना कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से युक्त जीवन आत्म-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है।
भगवान् महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा किया। अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए बताया कि अर्थ क्या है? भगवान्
महावीर ने फरमाया
'जीओ और जीने दो' का जीवनदायी मंत्र उन्होंने सृष्टि को प्रदान "प्राणी मात्र के प्रति संयम रखना ही अहिंसा है।" संयम रखने का
“तेसिं अच्छण जोएण निच्चं होयव्चयं सिद्ध मणसा काय वक्केण एवं हवई संजए ॥ "
- दशवैकालिक
अर्थात् मन-वचन-काया से किसी भी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो तो जीव संयमी होता है। इस प्रकार का जीवन जीते रहना ही अहिंसा है। वास्तव में स्वभाव ही प्राकृतिक स्वभाव है। यही कारण है कि अहिंसा जीवन में बिना
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कुछ किये स्वयमेव ही उपस्थित रहती है जबकि हिंसा बिना किये हो ही नहीं सकती। हिंसा का अभाव ही अहिंसा है और यदि कोई भी जीव हिंसा न करे तो मूलतः सृष्टि अहिंसक है। हिंसा से अशान्ति और शत्रुता का जन्म होता है जबकि अहिंसा, शान्ति और सद्भाव की जननी है। हिंसा शारीरिक व आत्मिक बल क्षीण करती है। दूसरी ओर, अहिंसा हर तरह का बल प्रदान करती है। हिंसा विध्वंस को निमंत्रण देती है और अहिंसा सृजन को। हिंसा भयभीत करती है तो अहिंसा अभय-दायिनी है। भगवान महावीर ने कहा कि जीना सब चाहते हैं और अहिंसा सब जीवों द्वारा एक-दूसरे के जीने के प्राकृतिक अधिकार की रक्षा करने वाला मूल्य है। अपने समान सभी को जानो। दूसरों से वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम दूसरों से अपने प्रति चाहते हो। जो किसी को जीवन दे नहीं सकता, उसे किसी का जीवन लेने का भी हक नहीं है। खून से सना वस्त्र खून से कभी साफ नहीं होता। इसी प्रकार शत्रुता भी शत्रुता से अथवा हिंसा भी हिंसा से समाप्त नहीं हो सकती। उल्लेखनीय है कि अहिंसा भगवान महावीर का जीवन-अनुभव था। दूसरों को अहिंसा का ज्ञान देने से पूर्व अपने तीव्रतम विरोधी के प्रति भी क्षमा जैसा सदभाव बनाये रखने का जीवट स्वयं प्रभु के अपने जीवन का सहज अंग बन चुका था।
भगवान् महावीर ने सिद्धान्तों का प्रतिपादन पहले अपने जीवन-आचरण के माध्यम से किया था और बाद में अपनी देशना के माध्यम से। केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन्होंने बतलाया-ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। जो अहिंसक है, वही ज्ञानी है। अहिंसा ज्ञान का ही व्यावहारिक रूप है। इसीलिए सर्वज्ञ प्रभु ने वही सत्य बोलने का निर्देश दिया, जो कल्याणकारी और किसी को दुःख पहुंचाने वाला न हो। उनकी देशना है
"तहेव फरुसा भासा गुरुभूओवघाइणी।
सच्चा वि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो।" अर्थात् जो भाषा कठोर हो, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाली हो, वह चाहे सत्य ही क्यों न हो, नहीं बोलनी चाहिए। उस से पाप आगमन होता है। निरपेक्ष सत्य भगवान् महावीर की दृष्टि में मूल्यवान् नहीं। मूल्य यदि है तो अहिंसक सत्य का। दूसरे शब्दों में कल्याण-सापेक्ष सत्य ही वस्तुतः सत्य है। गोशालक ने जब स्वयं को महावीर का शिष्य बताकर अपराध किये और अपने छल से साधनारत प्रभु को फांसी तक पहुंचा दिया तब भी उन्होंने गोशालक का छद्म उद्घाटित करने वाला सत्य नहीं बोला। इसका कारण यही था कि उस सत्य से गोशालक का अहित होता। उनकी अहिंसा-विषयक दृष्टि के लिए मित्र और शत्रु का भेद किंचित् भी महत्त्व नहीं रखता। जो सत्य किसी के लिए भी अहितकारी हो, वह उन्होंने मन-वचन-कर्म से न स्वयं कभी बोला, न किसी से बुलवाया और न ही कभी बोलने वाले का अनुमोदन किया। किसी भी स्थिति में किसी का अहित न हो, यह भगवान् महवीर के चिंतन तथा उनकी देशना की केन्द्रीय विशेषता रही। सभी का हित दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने फरमाया
"दंतसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं। अणवज्जेसणिज्जस्स गिण्हणा अवि दुक्कारं।"
-उत्तराध्ययन 19/28 अर्थात् मालिक न दे तो दांत कुरेदने को तृण-तिनका नहीं लेना चाहिए। संयमी को केवल उतनी ही चीजें लेनी चाहिएं, जो जरूरी हों और जिनमें किसी तरह का दोष न हो। ये दोनों बातें कठिन हैं। स्वामी की अनुमति के लिए बिना उस की किसी भी वस्तु का उपयोग चोरी है। इस से स्वामी क्षुब्ध होता है और अनधिकार चेष्टा करने वाला आकर्षक वस्तुओं में अपनी निरंतर बढ़ती आसक्ति के कारण और अधिक अतृप्त हो जाता है। ऐसे में लोभवश चोरी कर बैठना उसकी आदत बनती जाती है। उसकी सारी सोच केवल अपनी इच्छाएं ही गलत-सही तरीकों से पूरी करने तक सीमित हो जाती
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है। भगवान् महावीर का सम्पूर्ण जीवन अहिंसा और संयम से आलोकित रहा। स्वयं कष्ट सहकर भी उन्होंने कभी किसी का अहित नहीं चाहा। स्वामी से छिपाकर उस की वस्तु लेना या उसके मना करने पर भी उसकी वस्तु का उपयोग करना प्रभु ने वर्जित ठहराया। यह उनके द्वारा जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया को भी धर्म-सम्मत रूप देने वाले गहन - गम्भीर पर्यवेक्षण का सूचक भी है और मनुष्य के सद्गुणों की अविराम रक्षा का आग्रह भी उन्होंने मनुष्य को सचेत करते हुए
बताया
“कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणय- नासणी । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व-विणासणो ।”
क्रोध प्रीति का नाश करता है, अहंकार नम्रता का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। क्रोध, अहंकार, माया और लोभ से वही बच सकता है, जिसे संयम से जीवन-यापन करने की कला आती हो। दूसरे शब्दों में संयम सद्गुणों का स्रोत है
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भगवान् महावीर ने इस संयम के साथ ब्रह्मचर्य को और भी आवश्यक बताया है। जैन तथा मानव संस्कृति को उनका यह बहुमूल्य योगदान है। उन्होंने कहा
“ तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं ।”
अर्थात् ब्रह्मचर्य तपों में उत्तम तप है। इसकी साधना करने वाले साधकों में अनासक्ति भाव की संभावना और भी अधिक बढ़ जाती है तथा अधिकाधिक अनासक्ति संयम की ओर अधिकाधिक अग्रसर करती है। काम-भोग मनुष्य को जितने अधिक मिलते जाते हैं उतना ही अधिक वह उनके लिए लालायित होता जाता है। इसीलिए सर्वज्ञ महावीर ने
फरमाया
“सल्लंकामा विसंकामा कामाआसी विसोवमा । कामा य पत्थेमाणा, अकामा जंति दोग्गइं ॥”,
काम भोग शल्य रूप हैं, विषरूप हैं और विषधर के समान हैं। काम भोगों की लालसा रखने वाले प्राणी उन्हें प्राप्त किए बिना ही अतृप्त दशा में एक दिन दुर्गति को प्राप्त हो जाते है । दूसरी ओर संयम का आचरण जीव को तेज से देदीप्यमान् व्यक्तित्व तो प्रदान करता ही है, उसे तीव्र गति से मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर भी करता है । काम-भोग तो कर्मों की उस दलदल के समान हैं जिनमें एक बार जीवात्मा धंस जाये तो वह धंसती ही चली जाती है। पहले जीवन काम भोगों का प्रयोग करता है और फिर काम-भोग उसका प्रयोग करते हैं। विषय वासनाओं से यदि जीवन संचालित होना आरम्भ हो जाये तो जीव उनका गुलाम बनता जाता है। प्रभु द्वारा दिया जाने वाला काम भोगों से बचने का उपदेश वस्तुतः गुलामी के बंधन तोड़ कर स्वतंत्रतापूर्वक जीने का आह्वान है।
जीव को परिग्रह भी स्वतंत्र नहीं रहने देता। परिग्रह का अर्थ भगवान् महावीर ने बताया- आवश्यकता से अधिक संचय करना। संचय समानता की शत्रु प्रवृत्ति होने के कारण सामाजिक अपराध है यह अपराध मनुष्य के पदार्थों में आसक्ति भाव से उगता है। भगवान् महावीर ने देशना दी -
“न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो बुत्तो, इइवुत्तं महेसिणा ॥"
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- दशवैकालिक 6/21
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अर्थात कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थ परिग्रह नहीं हैं। वास्तविक परिग्रह तो किसी भी पदार्थ पर आसक्ति का होना है। आसक्ति के रहने पर त्याग का होना संभव नहीं। आसक्ति तो लोभ को ही जन्म दे सकती है। उसी लोभ को जो सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। परिग्रह का स्वभाव है कि संचय जितना अधिक होता जाता है, उसकी भूख उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। संचय से तृप्ति कभी नहीं होती। गुरुदेव योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज इसीलिए कहा करते थे कि खोना हो तो संचय करो। आशय यह कि धन संपदा की आसक्ति से धन-संपदा की भूख और भड़केगीः वह धनवान् बना-बना कर इतना दरिद्र कर देगी कि और अधिक धन-संपदा के लिए जीव मारा-मारा भटकता रहेगा। वह धन के लिए धन उत्पन्न करना शुरू कर देगा। धन को अपने हिसाब से वह खर्च करता रहेगा। जीव को धनवशता की असहायता से बचाने के लिए भगवान महावीर ने कहा
“पुढवी साली जवाचेव, हिरण्णं पसुभिस्सह।
पडिपुण्णं नालमेगस्स, हइ विज्जा तवं चरे॥" चावल और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त करने में असमर्थ है-यह जान कर संयम का ही आचरण करना चाहिए। संयम का आचरण वही कर सकता है जो ज्ञानी हो
और "ज्ञानी संयम-पुरुष, उपकरणों के लेने और रखने में कहीं भी/ किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं करते। और तो क्या अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते।" वे जानते हैं कि यदि थोड़ा भी ममत्व शेष रहा तो सुविधाओं का गुलाम बनने में देर नहीं लगेगी। जगत व समाज में भयानक विषमता देखते देखते फैल जायेगी। बढ़ते हुए राग-द्वेष असंख्य कर्मों को पलक झपकते ही आत्मा पर लाद देंगे। कर्म-फल भोगने के लिए जन्म-मृत्यु का दुष्चक्र कभी समाप्त न होगा। इसीलिए अपरिग्रह का आचरण अनिवार्य है।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भगवान महावीर के मतानुसार संयमाचार के अनिवार्य अंग हैं। धर्म विचार की अनिवार्यता है-अनेकान्त युक्त चिंतन पद्धति। इस पद्धति की विशेषता है-सत्य को उसके सभी संभव पक्षों सहित या सम्पूर्णता में देखना। भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखने पर एक ही वस्तु अनेक धर्मात्मक दिखलायी देती है। किसी लोभी व्यक्ति की दृष्टि से जो हीरे जीवन का सार हैं, किसी संत की दृष्टि से बोझिल पत्थर मात्र हैं। व्यक्ति न केवल पिता है, न केवल पुत्र। वह पिता भी है, भाई भी है। उसके विषय में कही गई किसी भी एक बात को पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता। पूर्ण सत्य सभी पक्षों से मिलकर बनता है। मूलतः भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त-दर्शन यही है। अनेकांत की चिन्तन पद्धति सत्य को अनेक दृष्टियों से देखने-समझने के कारण व्यक्ति को न तो ज्ञान के केवल एक आयाम तक सीमित करती है और न ही उसे संकीर्ण या हठी बनने देती है। समभावपूर्वक सत्य को देखने-समझने की शक्ति प्रदान करता है-अनेकांत-दर्शन।
विचार और आचार, दोनों ही धरातलों पर नैतिक मूल्यों की वांछनीयता भगवान् महावीर ने रेखांकित की। वर्षों की अटूट साधना से ज्ञान का जो फल उन्होंने पाया था, उसका अलौकिक आस्वाद या आनंद वे तीस वर्ष तक घूम-घूमकर बांटते रहे। लोक-कल्याण के लिए प्रभु ने चार तीर्थों की स्थापना की (1) श्रमण संघ (2) श्रमणी संघ (3) श्रावक संघ (4) श्राविका संघ। तीर्थ के संस्थापक होने के कारण वे तीर्थंकर कहलाये। उन्होंने संसार में लुप्त तथा विकृत हो रही धर्म-मर्यादा की स्थापना की। भव सागर से वे स्वयं भी पार हुए और दूसरों को भी पार कराया। सृष्टि के समस्त प्राणियों के लिए जाति-वर्ग के भेदों को अमान्य ठहराते हुए धर्म की स्थापना की। सभी को मुक्ति-मार्ग पर अग्रसर होने के लिए आमन्त्रित किया।
शासनपति श्रमण भगवान महावीर का 42वां तथा अंतिम वर्षावास पावापुरी में था। अपना अंतिम समय निकट जान
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कर उन्होंने दो दिन तक निरंतर धर्म देशना दी। आगामी समय में साधकों को संबल देने वाला शिक्षा-संग्रह-सूत्र प्ररूपित किया, जिसे 'उत्तराध्ययन सूत्र' के नाम से जाना जाता है। यह उनकी अन्तिम देशना थी। अपने निर्वाण से पूर्व उन्होंने अपने प्रति राग में डूबे शिष्य व गणधर इन्द्रभूति गौतम को पावापुरी से दूर धर्म-बोध देने के लिए भेज कर उनके केवल-ज्ञान धारक बनने का मार्ग प्रशस्त किया। कार्तिक कृष्णा अमावस्या (नवम्बर, ईसा पूर्व 528) को रात्रि के अन्तिम प्रहर व स्वाति नक्षत्र के शुभ योग में उत्तराध्ययन सूत्र का छत्तीसवां अध्ययन अपनी विरासत के रूप में भव्य आत्माओं के लिए कहते-कहते प्रभु एकदम मौन हो गए। अपने शेष चार कर्मों को भी नष्ट करते हुए विश्व-वंद्य महावीर ज्ञात लोक से अज्ञात लोक में स्थित हो गए। अजर अमर बन प्रभु निर्वाण को प्राप्त हुए। गणधर गौतम लौटे तो उनका अन्तिम राग-बिन्दु भी नष्ट हो गया। वे केवल ज्ञान से संपन्न हुए। भगवान् महावीर के गर्भ-वास, जन्म, दीक्षा और केवल ज्ञान के समय उत्सव मनाने वाले देवताओं ने उनका निर्वाण होने पर भी महोत्सव मनाया। मिथ्याचार का अंधेरा धर्म के दीप प्रकाशित कर प्रभु ने मिटाया था। अतएव देवों तथा मनुष्यों ने महाप्रभु की महिमा में प्रकाशमान रत्न रखकर बताया कि तीर्थंकर भगवान् महावीर ने जो धर्मदीप जलाया था, वह सदा-सर्वदा जगत् का अंधकार दूर करता रहेगा। लोक-भाषा में जिसे 'दीपावली' कहा जाता है, उसका यह प्रारम्भ था। अनंत प्रकाश दीपों के पावन-उत्सव-दीपावली को तभी से प्रति वर्ष मनाया जाने लगा।
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भगवान् महावीर : संक्षिप्त जीवन-रेखायें
- सुभद्र मुनि
शासनपति श्रमण भगवान् महावीर अहिंसा, क्षमा, करुणा, धैर्य, सत्य, तप, त्याग, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य व संयम का पर्याय थे। लोकमंगल के वे प्रतीक थे । तपो, त्याग की प्रतिमा थे। उनका जीवन श्रेष्ठतम मनुष्यत्व का महाकाव्य है। उनके जीवन की संक्षिप्त झांकी हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं ।
भगवान् महावीर विश्व के सर्वप्रथम गणतंत्र वैशाली के 'क्षत्रिय कुण्डपुर' नामक उपनगर में 30 मार्च, ईसा पूर्व 599 अर्थात् चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को अंधकाराच्छादित गगन में अनेक सूर्यों की तेजस्विता लेकर जन्मे थे। माता त्रिशला का मातृत्व एवम् पिता सिद्धार्थ का पितृत्व सार्थक होकर अजर-अमर हो गया। मां त्रिशला के चौदह दिव्य स्वप्न जो गर्भ-काल में देखे गए थे और अनुभव किए गए थे, स्वप्न-दर्शन के वे विलक्षण क्षण फलीभूत हुए। मति, श्रुत और अवधि ज्ञान भगवान् को गर्भ से ही थे। वे समझ सकते थे कि उनकी कौन-सी गतिविधि माता के लिए सुखद है और कौन-सी दुःखद । यह समझते हुए भगवान् ने गर्भकाल में अपनी गतिविधियां नियंत्रित कर लीं। गर्भस्थ शिशु को स्पन्दन रहित जान कर माता आंखों से आंसू गिराने लगीं। मेरे द्वारा कभी किसी को कष्ट न हो, ऐसा सोचकर प्रभु ने गर्भ में ही प्रतिज्ञा की कि माता-पिता के रहते संयम पथ पर अपनी यात्रा विधिवत् आरम्भ करके इन्हें दुःखानुभूति का अवसर न दूंगा। इस सीमा तक ज्ञानात्मक-संवेदनासम्पन्न मनीषा का जन्मोत्सव देवताओं द्वारा सम्पादित होना स्वाभाविक ही था ।
एक मनीषा का आलोक जब अनेक दिशाओं में प्रसारित होता है तो लोक-जगत् उसे एकाधिक नामों से पहचानता है। गर्भकाल से ही राज्य के वैभव और ऐश्वर्य की अपार वृद्धि होने के कारण भगवान् को 'वर्धमान' के नाम से पुकारा गया। आकाश गमन की शक्ति से सम्पन्न दो मुनियों द्वारा प्रस्तुत शास्त्रों के गूढ़ प्रश्नों व उनके मन की शंकाओं का सहज समाधान बचपन में ही कर देने के कारण उन्हें 'सन्मति' कहा गया। आठ वर्ष के वर्धमान की परीक्षा लेने आया देव क्रीड़ारत बाल समूह के निकट वृक्ष पर भयानक सर्प बन कर लिपट गया तो उसे निर्द्वद्व भाव से पकड़ने व दूर छोड़ देने के माध्यम से बाल-समूह को भयमुक्त करने के कारण उनका नाम 'वीर' पड़ा। तिन्दूषक खेलते हुए अपरिचित बालक-रूपी दैत्य के कन्धों पर चढ़कर एक ही मुष्टि-प्रहार से उसे आहत कर देने के कारण उन्हें 'महावीर' कहा गया । मदमस्त और विनाशक हो चुके हाथी का मद गजमर्दन विद्या के उपयोग से उतार देने के कारण उनका नाम 'अतिवीर' रखा गया ।
भाई नन्दीवर्धन, बहन सुदर्शना, चाचा सुपार्श्व व माता-पिता की स्नेह छाया में व्यतीत होने वाला वर्धमान का बचपन ज्ञान, ध्यान, योग व करुणा की व्यंजक अनेक असाधारण घटनाओं से परिपूर्ण रहा। गुरुकुल के आचार्य उनका ज्ञान देखकर यह कहने को बाध्य हुए कि "यह तो गुरु का मान देने के लिए मेरे पास आया है। साक्षात् ज्ञान को मैं भला क्या सिखा सकता हूं।” वस्त्रहीनों को वस्त्र, निर्धनों को धन, भूखों को अन्न तथा वृद्धों / रोगियों को यथोचित परिचर्या प्रदान करना भगवान् का स्वभाव था । अनेक बार वे दीनों की समृद्धि बने ।
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एक बार पेड़ से पक्षी को फड़फड़ाते हुए नीचे गिरते व दम तोड़ते देखकर चण्ड नाम के भील शिकारी बालक से उन्होंने कहा, “जीने का अधिकार सब को है।" तत्काल बालक ने अपनी गुलेल तोड़कर फेंक दी। वह टूटी गुलेल भगवान् की करुणा का प्रतीक थी।
वसन्तपुर के राजा समरवीर व रानी पद्मावती की पुत्री यशोदा से विवाह भगवान् द्वारा परिवार की इच्छा-पूर्ति-मात्र था। पुत्री प्रियदर्शना के पिता बनकर भी वे गृहस्थ-जीवन में योगी के समान कमलवत् निर्लिप्त रहे। अट्ठाईस वर्ष की उम्र में माता पिता अतीत हुए। वैराग्य-जनित सत्य की पुष्टि हुई। गृह-त्याग का संकल्प स्थगित किया तो भ्राता के अश्रुओं के कारण। वचन लिया कि दो वर्ष के बाद वे रोकेंगे नहीं। दो वर्ष की अवधि में पत्नी यशोदा भी संसार से नाता तोड़ गई। दीक्षा से पूर्व भगवान् एक वर्ष तक विशेष रूप से दान करते और निर्धनों के धन बनते रहे। प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान करते रहे।
मार्गशीष कृष्ण दशमी (29 दिसम्बर, ईसा पूर्व 569), रविवार के तीसरे प्रहर महावीर जैसे भीतर से थे वैसे ही बाहर से हुए। देवताओं और परिवार-जनों ने उनका दीक्षाभिषेक किया। पंचमुष्टि लुंचन व वस्त्र-आभूषणों का त्याग, करते हुए भगवान् ने तीन करण (करना, करवाना, अनुमोदन करना) तीन योग (मन-वचन-काय) से पाप कर्म त्यागने का सर्वहितकारी संकल्प लिया। उसी समय मनःपर्यय ज्ञान (दूसरे के सूक्ष्म विचार जानने की क्षमता) प्राप्त कर चतुर्ज्ञान धारक हुए। यह प्रतिज्ञा कर वैशाली से चल दिये कि “मैं जब तक पूर्णत्व प्राप्त नहीं कर लूंगा तब तक किसी को उपदेश नहीं दूंगा” देवताओं ने देवदृष्य (बहुमूल्य वस्त्र) अर्पित कर अपनी श्रद्धा निवेदित की। असार संसार की भांति देवदूष्य कब चला गया, महावीर ने नहीं जाना।
तप व उपसर्गों की अग्नि से भगवान के कुंदन बनने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। एक ग्वाला उन से अपने बैलों का ध्यान रखने के लिए कहकर चला गया। लौटा तो बैल न थे। पूछा तो मौन मिला। क्रुद्ध होकर रस्से से कोड़ा बनाया और निर्ममतापूर्वक पीटता गया उन्हें। इन्द्र ने उसे वास्तविकता बताई और ग्वाला भगवान् के चरणों में सिर रखकर रोने लगा। ध्यानोपरान्त महावीर ने उसे अभय किया और अपने साथ रहने का इन्द्रकृत अनुरोध अस्वीकार कर दिया।
कार ग्राम के सीमान्त प्रदेश की यह घटना उपसर्गों और भगवान् की दृढ़ता के बीच वर्षों जारी रहने वाले संवाद का आरम्भ थी। भगवान् देह-बोध तज चुके थे। उनके विमल भावों की सुगन्ध देह के सहस्र-सहस्र रोम-कूपों से प्रवाहित होकर भंवरों को आमंत्रित करती। वे उन्हें स्थान-स्थान पर काटते किन्तु विदेह हो चुके थे-महावीर।
मोराकसन्निवेश ग्राम के निकट बने आश्रम के कुलपति दुइज्जंत का वर्षावास निमन्त्रण स्वीकार कर वे आश्रम की एक कुटी में ध्यानावस्थित हो गए। सूखे के कारण गायें कुटियों का घास-फूस खाने लगीं। अन्य तपस्वियों के समान महावीर ने अपने सिर की छत बचाने के लिए भूखी गायों को मार कर नहीं भगाया तो दुइज्जंत ने उपालम्भ दिया। साधना से अधिक साधनों को महत्व देने वाला यह स्थान उन्होंने तत्काल छोड़ दिया और पांच प्रतिज्ञाएं की : 1 निन्दा-स्तुति वालों के संग-साथ से सदा दूर रहना। 2. साधना हेतु सुविधाजनक सुरक्षित स्थान का चुनाव न करना और अपने को पूर्णतः प्रकृति को सौंप कर कायोत्सर्ग की साधना करना। 3. भिक्षा मांगने व मार्ग पूछने के अतिरिक्त सर्वथा मौन रहना। 4. करपात्र में ही भोजन करना। 5. गृहस्थ के आदर-सत्कार से निष्पक्ष रहना।
साधना में लीन महावीर अस्थिग्राम पहुंचे। गांव को अपनी प्रतिशोधाग्नि से लगभग भस्म कर के शूलपाणि यक्ष के शून्य यक्ष-मन्दिर में ध्यान लगाया। यक्ष ने उनका यह साहस देख कर हाथ, सर्प, दैत्य आदि रूपों में उन्हें सताया किन्न वे अभय एवम् अडिग रहे । यक्ष को सम्बोधि प्रदान की, आग नहीं बुझती। क्षमा के नीर से ही बैर की
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अग्नि शांत होगी। अमृत बांटो, अमृत पाओ।" यक्ष ने इसे अपने जीवन का मंत्र बना लिया और वह करुणामूर्ति बन गया।
महावीर आगे बढ़े। कनखल से श्वेताम्बी जाने वाले छोटे मार्ग पर उत्तर वाचाला वन में रहने वाले दुर्दात सर्प चण्डकौशिक के विषय में सावधान किए जाने पर उनके मन में सर्प के प्रति वात्सल्य उमड़ आया। वे सर्प की बांबी पर पहुंच कर ध्यानस्थ हो गए। सर्प ने उनके पांवों में डंक मारा तो रक्त के स्थान पर दुग्ध-धारा बह निकली। उन्होंने सर्प को आत्म-ज्ञान दिया तो सर्प अहिंसा का उपासक बन गया । विषधर को ज्ञानामृत बना कर महावीर और आगे बढ़ चले ।
महावीर के चरण चिन्ह देखकर एक सामुद्रिक ने अपने ज्ञान से समझा कि ये किसी चक्रवर्ती के चरण हैं। वह उनका अनुकरण करते हुए आगे बढ़ा तो अपने सामने एक भिक्षु को पाया। मन में ज्योतिष शास्त्र पर सन्देह उगने लगा तो एक दिव्य वाणी ने उसे बताया कि ये चक्रवर्तियों के चक्रवर्ती के चिन्ह हैं। वह महावीर की चरण वंदना कर लौटने ही वाला था कि दृष्टि एक चरण चिन्ह पर पड़ी, जिसमें कुछ चमक रहा था। वह एक रत्न के रूप में अक्षय निधि थी । उसका दारिद्रय धुल गया ।
राजगृह के उपनगर नालंदा की एक तन्तुवायशाला ( कपड़ा बुनने का स्थान) में महावीर ठहरे। गोशालक नामक एक उद्दण्ड युवक भिक्षु भी आ ठहरा, जिसने स्वयं को उनका शिष्य प्रचारित कर दिया। महावीर कर्मग्राम पहुंचे। वहां एक जटाधारी तापस तप कर रहा था, जिसकी जटाओं से जूएं निकल कर पृथ्वी पर गिर रही थीं और उनके प्राण बचाने के लिए वह उन्हें पुनः अपने सिर में रख रहा था । गोशालक ने बारम्बार तापस का उपहास किया तो तापस ने उस पर तेजोलेश्या का प्रयोग कर दिया, जिसकी दाहक पीड़ा से वह चीत्कार कर उठा । करुणार्द्र महावीर ने उसे शीतल लेश्या के प्रयोग से बचाकर अपनी करुणा को साक्षात् किया।
की निरन्तर साधना ने दस वर्ष की अवधि स्पर्श की । इन्द्र को कहना पड़ा, “आज देव-शक्ति भगवान् की मनुष्य तप शक्ति के आगे नतमाथ है।" संगम नामक देव इसे देव शक्ति का अपमान समझ 'तप शक्ति' की परीक्षा लेने पहुंचा। तेज हवा, आंधी, धूल-वृष्टि, तूफान का उपयोग किया। महावीर की ध्यानलीन निर्निमेष दृष्टि की पलकें तक नहीं झपकीं। विषैली चींटियां उनकी देह के रोम-रोम पर आक्रमण करने लगीं । महावीर अकम्पित रहे। मच्छरों के दंश प्रयुक्त हुए। महावीर अडिग रहे। उनकी समूची देह को दीमकों की बांबी बना दिया गया। महावीर ध्यानस्थ रहे। बिच्छू-दंश, सर्प दंश और गज-दंत के प्रहार हुए। महावीर अडोल रहे। जंगली हाथी ने उन्हें पांवों तले रौंदा। महावीर अविचलित रहे । भयभैरव ने उन्हें डराने के प्रयास किए। महावीर दृढ़ रहे । अप्सराओं ने काम जगाने की चेष्टा की। महावीर प्रतिमावत् रहे। उनके परिवारजनों के करुण क्रन्दन उन्हें सुनाए गए। महावीर अनासक्त रहे । तोसली में संगम ने राजप्रासाद में चोरी कर उन पर आरोप सिद्ध करा कर उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया। महावीर मौन तप- लोक में रमे रहे । सात बार उन्हें फांसी दी गई और सातों बार तख्ता हटते ही रस्सी टूटी । रस्सी अलग- तख्ता अलग। महावीर अखण्ड ध्यान बने रहे। उनके पांवों पर बरतन रख उसके नीचे आग जलाई और खीर पकाई गई महावीर देहातीत रहे प्रभावहीन उपसर्ग देते-देते संगम हार गया और क्षमा मांगकर जाने लगा। महावीर के नेत्र सजल हुए। कारण पूछने पर उन्होंने बताया, "जो कर्म-बन्ध तुमने मुझे उपसर्ग देते हुए किया है, उसका परिणाम तुम कैसे सहोगे? तुम्हारे दुःख की कल्पना कितनी हृदयद्रावक है!" संगम ने और सुना वह पश्चाताप में डूब गया।
छम्माणि ग्राम के निकट साधना काल के छोर पर पहुंचे महावीर के कानों में लकड़ी की कीलें ठोंक दीं एक गोपालक ने । मध्यमा नगरी में सिद्धार्थ नामक वणिक के घर जब महावीर भिक्षार्थ गए तो वहां उपस्थित खरक नामक वैद्य ने उनके कानों से कीलें बाहर निकालीं गोपालक के अनुसार उनका अपराध था उसके बैलों की रक्षा न कर पाना और सतत
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मौन रहना। रक्तरंजित महावीर की मुक्ति-साधना का यह अंतिम उपसर्ग था। तप-यात्रा का प्रथम उपसर्ग जिस कारण से महावीर ने सहा, उसी कारण से अन्तिम उपसर्ग भी सहा। काल-चक्र के साथ-साथ कर्म-चक्र भी पूर्ण हुआ। ।
मातृ-जाति-उद्धारक महावीर ने संकल्प किया-वे संसार की सबसे दुःखी और पीड़ित स्त्री के हाथों अपना व्रत खोलेंगे। छह मास बीत गए। वे कौशाम्बी पहुंचे। इतिहास का अभूतपूर्व अभिग्रह धारण किए। उन्होंने एक नारी (चंदनबाला) को देखा। उसके साथ तेरह दुःखद स्थितियां बनी थीं : 1. अविवाहित कन्या 2. राजकुमारी 3. निरपराध 4. सदाचारिणी होकर कलंकिता 5. बन्दिनी 6. हाथों में हथकड़ियां व पैरों में बेड़ियां 7. मुण्डित सिर 8. तीन दिन से निराहार 9. खाने के लिए उड़द के उबले बाकुले सूप में लिए थी। 10. किसी अतिथि की प्रतीक्षा-रत 11. एक पांव देहली के बाहर और दूसरा अन्दर 12. मुख पर प्रसन्नता तथा 13. आंखों में आंसू। महावीर ने करुणा विगलित मन से उस नारी के हाथों आहार ग्रहण कर अपना व्रत खोला। घटना यूं थी-कौशाम्बी के राजा शतानीक के हाथों चम्पा के राजा दधिवाहन युद्ध में परास्त हुए और शतानीक के रथाध्यक्ष ने चम्पा की महारानी धारिणी व राजकुमारी वसुमति का धोखे से अपहरण किया। मार्ग में अपनी सतीत्व-रक्षा हेतु महारानी ने आत्महत्या कर ली और राजकुमारी को वाक्-जाल में फंसा रथाध्यक्ष अपने साथ ले आया। कौशाम्बी की एक वेश्या को उसे बेच दिया। वसुमति वेश्या के साथ न जाकर प्रतिवाद करने लगी तो कौशाम्बी के सेठ धनावह ने उसे खरीदा और पुत्री बना चन्दना नाम रखकर अपने घर ले आया। सेठानी मूला को एक बार अपने पति व वसुमति पर संदेह हुआ। पति की अनुपस्थिति में उसने चंदना का सिर मुंडवाया। हाथों में हथकड़ियां व पांवों में बेड़ियां पहनाईं और तलघर में डाल दिया तथा स्वयं पीहर चली गई। तीन दिन बाद लौट कर सेठ ने चंदना को बाहर निकाला। देहली पर बैठाया। उस समय उपलब्ध सूप में रखे उड़द के बाकुले उसे दिए और हथकड़ी बेड़ियां काटने वाले लुहार को बुलाने चला गया। इसी समय महावीर वहां पहुंचे। महावीर ने देखा-संसार में इससे अधिक पीड़ित और कोई नहीं हो सकता। उस बाला (चंदनबाला) का उद्धार करने के लिए उन्होंने आहार ग्रहण किया। देवों ने 'अहो दानं-अहो दानं' का घोष करते हुए वहां रत्नों की वर्षा की। संयम -पथ पर कदम बढ़ाने को संकल्पित चंदना ने नया जीवन पाया।
जुंभक ग्राम के सीमान्त प्रदेश में ऋजुबालुका नदी के तट पर श्यामक कृषक के खेत में शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन गोदोहन आसन में (पांचों ज्ञानेन्द्रियों व पांचों कर्मेन्द्रियों को दो स्तनों के समान अपने सबल हाथों में आबद्ध किए) ध्यानलीन महावीर ने सभी पाप कर्मों का क्षय किया। कैवल्य पद पाया। सर्वज्ञ हुए। भिक्षु से वे भगवान् बन गए। देवों ने कैवल्य महोत्सव मनाया। सैकड़ों सूर्यों का प्रकाश बन कर महावीर मध्य पावा पहुंचे। वहां सोमिल ब्राह्मण द्वारा आयोजित अभूतपूर्व यज्ञ के प्रयोजन से भारत के ग्यारह उद्भट विद्धान् अपने 4400 शिष्यों सहित इन्द्रभूति गौतम के नेतृत्व में आए हुए थे। महासेन उद्यान में भगवान् के समवसरण का प्रभाव देवलोक के समान पावा नगरी में भी प्रसारित हो गया। यज्ञ प्रभावहीन होने लगा तो इन्द्रभूति गौतम भगवान् को शास्त्रार्थ में पराजित करने के उद्देश्य से उद्यान में आए
और भगवान् को देख-सुन कर वहीं रह गए। भगवान् के प्रथम शिष्यत्व का गौरव पाया। सोमिल का विशाल यज्ञ महावीर भगवान् के समवसरण में समाहित हो गया। यज्ञ में पधारे ग्यारहों उद्भट विद्वान् अपने चार हजार चार सौ शिष्यों सहित श्रमण संघ में दीक्षित हुए। भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए भगवान् ने साधना-श्रेणियों के अनुसार-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका के रूप में चतुर्विध संघ की स्थापना की। उनके धर्म-संघ में चौदह हजार साधु, छत्तीस हजार साध्वियां, एक लाख उन्सठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएं थीं।
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भगवान् महावीर : धर्म-चक्र प्रवर्तन
-सुभद्र मुनि
भगवान महावीर अपने युग में उसी तरह आये जैसे भ्रम में ज्ञान, हिंसा में अहिंसा, कर्मकाण्डवाद में वास्तविक मनुष्यत्व, कट्टरता में अनेकान्ती उदारता, वैषम्य में समता, दुराचार में सदाचार, लालच में अपरिग्रह, स्वार्थ में अचौर्य और तानाशाही में गणतंत्र आता है। अपने देश और काल में सार्थक मानवीय हस्तक्षेप का पर्याय थे महावीर, जिनका स्पर्श पा लेने के बाद विश्व-दृष्टि में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन आया और विश्व-जीवन में भी। परिवर्तन के इस स्वरूप को पहचानना ही वस्तुतः भगवान महावीर के योगदान को पहचानना है। जीवन का शायद ही कोई पक्ष ऐसा हो, जो उक्त परिवर्तन से अछूता रहा हो। इसका कारण यह है कि जीवन की नियामक शक्तियों (जीवन-दृष्टि और जीवन-पद्धति) में परिवर्तन घटित हुआ था। दृष्टि बदल जाने पर संसार का बदल जाना उसी तरह स्वाभाविक था, जैसे बारिश के बाद पेड़-पौधों में नवरूप का आना स्वाभाविक होता है।
महावीरकालीन धार्मिक परिवेश का सिंहावलोकन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि वह समय प्रमुख रूप से या तो अज्ञान द्वारा संचालित था और या फिर स्वार्थों द्वारा। एक ओर अंधविश्वास का अजगर लगभग समूचे धर्मक्षेत्र पर पसरा था तो दूसरी ओर साम्प्रदायिक संकीर्णताएं उस समय के रास्तों पर कदम-कदम पर बिछी हुई थीं। यज्ञ प्रधान कर्म-काण्ड एवं पाखण्ड तयुगीन उपासना के रूप थे। धर्म समाज के सम्पन्न व शक्तिशाली वर्ग का विशेषाधिकार बनकर वंचितों पर कोड़ों की तरह बरसता था। ऐसे में महावीर उपासना के सर्वसुलभ रूप लेकर प्रकट हुए। जन-जन को उद्बोधन देते हुए उन्होंने कहा, “अहिंसक यज्ञ के लिए आत्मा का अग्नि-कुण्ड बनाओ। उसमें मन, वचन और कर्म की शुभ प्रवृत्ति रूप घृत उड़ेलो। अनन्तर तप रूपी अग्नि के द्वारा दुष्कर्मों को ईंधन के रूप में जलाकर शांति रूप प्रशस्त होम करो।" आत्मा सबके पास थी। मन-वचन-कर्म की शुभ प्रवृत्तियां सबके पास थीं। वे घी आदि की तरह निर्धनों को दुर्लभ नहीं थीं। तप करने के लिए किसी प्रदर्शन प्रिय कर्म-काण्ड की आवश्यकता नहीं थी। अपने आपको जानने तथा पाने का यह यज्ञ संकल्प-मात्र से संभव था और वह भी प्रत्येक के लिए। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय के रूप में उपासना के जिन मार्गों की ओर महावीर ने संकेत किया, वे राजपथ नहीं जन पथ थे। आमंत्रित करते थे उन शूद्रों को, जिनके कान ज्ञान सुनने के अपराध में पिघले सीसे से भर दिये जाते थे; बुलाते थे उन स्त्रियों को, जिन्हें वस्तुओं की तरह इस्तेमाल किया जाता था। भगवान् महावीर की पहली क्रान्तिकारी देन थी-उपासना को सबका सहज अधिकार बना देना। उनकी दूसरी देन थी-नरबलि व पशु-बलि को अन्याय व अधर्म घोषित करते हुए प्राणिमात्र को अभय प्रदान करने की दिशा में यात्रा करना। इस यात्रा के दौरान प्राप्त ज्ञानात्मक अनुभव सभी को बांटते हुए भगवान् का कहना था कि जीवों के प्रति हिंसा अपने ही प्रति हिंसा है और जीवों के प्रति करुणा भी अपने ही पति करुणा है। ज्ञानी असल में वह है, जिसने हिंसा छोड़ दी। जीना सब चाहते हैं। भगवान् बोले, “जब तुम किसी मृत व्यक्ति को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मारने का तुम्हें क्या अधिकार है?" हिंसा की विभीषिका से ग्रस्त समय में उन्होंने अहिंसा को परमधर्म बतलाया और जीव-मात्र के जीवन पर अधिकार की वकालत की। संवेदनशीलता में अपने आचरण से अर्थ भरते हुए पेड़-पौधों तक में जीवन बताया। उनके
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संरक्षण पर बल देते हुए प्रकृति सन्तुलन को बिगड़ने से रोका। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि बहुत बाद में जगदीश चन्द्र बसु के कहने पर विज्ञान को यह सत्य समझ में आया । प्रमाणित भी हो गई भगवान् की बात ।
कट्टर अज्ञान द्वारा पोषित साम्प्रदायिक संकीर्णतायें अनेकान्तवाद ने तोड़ीं। किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, स्थिति या विचार को सभी संभव दृष्टियों से देखना ही वास्तव में पूर्णत्व को देखना है और यही है अनेकांतवाद । पूर्ण सत्य जानने का एकमात्र उपाय । भगवान् ने अपने युग में प्रचलित किसी भी विचारधारा को अमान्य नहीं किया। कहा कि समस्त विचारधारायें आंशिक सत्य लिए बहती हैं। आवश्यकता अंतर्नेत्रों द्वारा सभी का सत्य देखने और अपना सत्य पाने की है । अंधानुकरण परम्परा का भी व्यर्थ है और नवीन का भी । जिसे हम सत्य व उचित मानें, केवल उसी का व्यवहार करें। भगवान् द्वारा प्रतिपादित संकीर्णता और अतिवाद के विरोधी इस सिद्धान्त ने जन-जन में एकता व बन्धुत्व की स्थापना तो की ही, विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सद्भाव व जनतांत्रिक व्यवहार पर भी बल दिया। स्पष्ट है कि आचरण में उतरने के लिए अहिंसा जो धैर्य मांगती हैं, अनेकांतवाद भी वही धैर्य मांगता है। दोनों ही आत्मिक शक्ति के स्रोत सिद्धान्त हैं। उल्लेखनीय तथ्य है कि संस्कृत को रौब जमाने की युक्ति के रूप में महावीर ने कभी नहीं अपनाया और जिस ज्ञान पर जीव-जीव का नैसर्गिक अधिकार था, उसे जन-भाषा में ही जन-जन तक पहुंचाया । विषमता भगवान् के समय में समाज का एक पुराना रोग बन चुकी थी। बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को निगल जाना ही उस समय का सामाजिक न्याय था । वर्णाश्रम व्यवस्था उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग के बहुमुखी शोषण का मुख्य उपादान थी। ऐसे में वास्तविक लोक नायक की भूमिका निभाते हुए महावीर ने दृढ़तापूर्वक स्थापित किया कि श्रेष्ठता का मापदण्ड वंश नहीं, कर्म है । अमानवीय कार्यों में रत ब्राह्मण भी शूद्र है और मानवीय श्रम का गौरव शूद्र भी ब्राह्मण है। ध्यान देने योग्य बात है कि यह खोखला सिद्धान्त मात्र नहीं था, एक यथार्थ सत्य था। आर्द्रकुमार जैसे आर्येतर जाति के युवकों को उन्होंने अपने मुनि संघ में दीक्षा दी थी । हरिकेश जैसे चाण्डाल कुलोत्पन्न मुमुक्षुओं को अपने भिक्षु संघ में वही स्थान दिया था, जो ब्राह्मण श्रेष्ठ इन्द्रभूति गौतम को मिला था । भगवान् महावीर की यह अखण्ड मान्यता थी कि कोई भी व्यक्ति समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है । मनुष्य अपना भाग्य स्वयं बना सकता यह कहकर महावीर ने उस भाग्यवाद को भी आईना दिखाया जो वंचितों को निष्क्रिय बनाकर वंचकों का काम आसान करता था । वंचितों को दास-दासियों की तरह खरीदने और बेचने वाले समाज में भगवान् महावीर ने अपने साध्वी संघ की प्रमुख चन्दनबाला को बनाया, जिसे निष्प्राण वस्तु की तरह खरीदा - बेचा जा चुका था। नारी स्वतंत्रता व क्षमता के पक्ष में भगवान् के आचरण का यह सशक्त तर्क व न्याय है । साध्वी संघ में छत्तीस हजार साध्वियों का और श्राविका संघ में तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं का होना वस्तुतः भगवान् की ओर से इस भ्रम का दो टूक खण्डन है कि स्त्री मात्र भोग्या या दासी ही हो सकती है। यह भगवान् महावीर की अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामाजिक देन है । अहंकार, क्रोध, प्रमाद (विषयासक्ति), रोग और आलस्य को अशिक्षा के कारण बताते हुए उन्होंने ज्ञान को श्रद्धा और आचरण से जोड़ा। जीवन के शैक्षिक पक्ष को यह उनका महत्त्वपूर्ण योगदान
है ।
अपने समाज के वर्ग-वैषम्य का आधार महावीर ने परिग्रह को माना । आवश्यकता से अधिक संग्रह को उन्होंने सामाजिक अपराध बताया। इस अपराध के कारण ही स्थिति यह थी कि बच्चों को दूध चाहे मिले न मिले, यज्ञ को घी अवश्य मिल जाता था। इसी ऐतिहासिक परिस्थिति की पीड़ा भगवान् - प्रदत्त अपरिग्रह जैसे मूल्य की जननी बनी। कामनाओं को मृत्यु घोषित करते हुए वे बोले - कल की वह सोचे जिसे कभी न मरना हो । मरना सबको है इसलिए संचय कैसा? कर्म-फल प्रत्येक को भोगने हैं इसलिए संचय क्यों ? स्पष्ट है कि इन बातों ने उस समय के व्यक्ति चरित्रों से दुर्गुणों का कूड़ा-करकट साफ करने में उल्लेखनीय भूमिका अभिनीत की। घृणा, क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, लोभ, व्यभिचार आदि की जड़ों को उखाड़ा। प्रेम, करुणा, अहिंसा, साम्य, क्षमा, अस्तेय, अपरिग्रह, आदि को असंख्य व्यक्तियों की भाव-भूमि पर रोपा
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और सींचा। व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की राह पर अथक यात्रा की। इहलौकिक जीवन से पारलौकिक जीवन कैसे बनता और बिगड़ता है, यह समझाया। अपने समय की राजनीति में जमीन, स्त्री या वीरगति के लिए होने वाले युद्धों की प्रमुख भूमिका को पहचान कर कहा-दूसरों को नहीं, अपने को जीतो। जो संघर्षों को जन्म देता हो, वह अधर्म है। शक्ति व सामर्थ्य के गुण हैं-शान्ति और क्षमाशीलता। इन मूल्यों से उस समय के अनेक राजाओं की सोच भी बदली और कार्यनीति भी। अनेक जनपदों में गणराज्य की नींव पड़ी। राजनीति में सह-अस्तित्व और आपसी सहयोग महत्त्वपूर्ण हुए।
इच्छाओं की तानाशाही के स्थान पर ज्ञान का गणराज्य भगवान् महावीर ने अपने मन-वचन-कर्म से लेकर अपने युग तक प्रसारित किया। श्रेष्ठ जीवन-आदर्शों को धर्म बताया और ऐसा चतुर्विध-संघ बनाया, जो धर्म पर आधारित उत्कृष्ट समाज-व्यवस्था हो। ऐसे भगवान् महावीर को कोटि-कोटि वन्दन!
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भगवान् महावीर : एक विचार
“ अप्पणो णामं एगे पत्तियं करेइ, णो परस्स । परस्स णामं एगे पत्तियं करेइ, णो अप्पणो । एगे अप्पणो पत्तियं करेइ, परस्स वि । एगे णो अप्पणो पत्तियं करेइ, णो परस्स ।”
अर्थात् इस संसार में कुछ मुनष्य केवल अपना भला करते हैं, दूसरों का नहीं। कुछ अपना भला न करते हुए भी दूसरों का भला करते हैं। कुछ, अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी । कुछ ऐसे होते हैं जो न अपना भला करते हैं और न ही दूसरों का । चारों ओर देखें तो चारों ही प्रकार के मनुष्य न्यूनाधिक संख्या में दृष्टिगत होते हैं । दृष्टिगत यह भी होता है कि ऐसे लोग अपेक्षाकृत अधिक होते जा रहे हैं जो या तो केवल अपना भला चाहते हैं और या फिर किसी का भी नहीं। आत्मकेन्द्रित स्वार्थ एक विराट् दैत्य के समान नैतिक मूल्यों को निगलता जा रहा है। विचारणीय तथ्य यह है कि नैतिकता की बड़े पैमाने पर हो रही इस हिंसा से बहुत कम मनुष्य विचलित होते हैं। अधिकतर लोग ज्ञात-अज्ञात रूप से इस हिंसा को उचित मानने लगे हैं। नैतिकता की याद उन्हें प्रायः उसी समय आती है जिस समय उनके आत्मकेन्द्रित स्वार्थ खतरे में पड़ते हैं । कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो आत्मकेन्द्रित स्वार्थ के दैत्य को उचित ठहराते हैं । उसके पक्ष में तर्क-वितर्क करते हैं । उसका सम्मान करते हैं । उसकी पूजा करते हैं ।
- सुभद्र मुनि
अकारण नहीं है कि देश के आकाश पर छोटे-बड़े अग्नि- वर्षी बादलों की तरह इतने पाप छा गये हैं कि उनकी सही-सही संख्या भी अधिकांश लोग भूल चुके हैं। ऐसे में याद आती है प्रभु की यह देशना, "सद्गृहस्थ सदा धर्मानुकूल ही अपनी आजीविका करते हैं,” ऐसे में याद आता है कि प्रभूत सम्पत्ति के स्वामी होते हुए भी प्रभु ने उसका अंतिम रूप से त्याग करने से पूर्व ‘वर्षीदान' के रूप में उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया था। दूसरों की दरिद्रता से उपजती पीड़ा अपने रोम-रोम
में
अनुभव करते हुए वे दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक निरन्तर प्रतिदिन एक करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्रायें बांटते रहे । एक वर्ष की कालावधि में उन्होंने तीन अरब अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान किया। क्यों किया? जिन स्वर्ण मुद्राओं के लिये युद्ध होते रहे, रक्तपात होता रहा, अपराध होते रहे, असंख्य मनुष्यों के जीवन समाप्त होते रहे, नैतिकता नीलाम होती रही, उन्हीं को प्रभु ने सूखी घास की तरह बांट दिया। उनका तिनके की तरह त्याग कर दिया। क्या कारण था इसका ? कारण यह था कि उन्होंने सम्पत्ति का चरित्र पूरी तरह जान लिया था । वे समझ गये थे कि “धान्यों, सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त करने में असमर्थ है।" वर्तमान युग का अधिकांश भाग इस सत्य को समझते हुए भी नहीं समझता, यह इसका दुर्भाग्य है। इसी का परिणाम है कि मनुष्य समाप्त हो जाता है परन्तु धन सम्पत्ति के लिये निरन्तर बढ़ती उसकी लालसा समाप्त नहीं होती । इस लालसा की दासता स्वीकार कर वह
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इसके लिये जी सकता है। इसके लिये मर सकता है। काश कि वह इस दासता से स्वतन्त्र हो सकता। काश कि वह समझ पाता प्रभु-वाणी का यह त्रिकाल-व्यापी सत्य-“यदि यह सारा जगत् और सारे जगत् का धन भी किसी को दे दिया जाय तो वह उसकी रक्षा करने में असमर्थ है।" मृत्यु आयेगी तो जाना ही होगा। मृत्यु के सामने चक्रवर्ती सम्राट भी असहाय हो गये। अपार धन-सम्पदा के स्वामी...और इतने बेबस...!
अपनी बेबसी का जन्मदाता मनुष्य स्वयं है। मनुष्य वास्तव में कितना स्वाधीन है, यह उन बंधनों से ज्ञात होता है, जिन्हें वह मन-वचन कर्म से मुक्ति मानता है। वह शान्त जीवन में अनन्त धन-सम्पदा संचित करने को मुक्ति का अथवा अक्षय आनन्द का स्रोत मानता है। भूल जाता है कि इस प्रक्रिया में वह धन सम्पदा का स्वामी नहीं रहता अपितु धन उसका स्वामी हो जाता है, वह धन को खर्च नहीं करता अपितु धन उसे खर्च करता रहता है। एक दिन पूरी तरह खर्च कर देता है। धन का पूर्ण तृप्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। धन का सम्बन्ध है-तृष्णा से। धन का तो स्वभाव ही है कि वह जितना बढ़ता है, उतनी ही अपने लिये प्यास भड़काता है। धन अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। मनुष्य अपना स्वभाव छोड़ देता है और एक बार उसने अपना स्वभाव (अर्थात् मनुष्यता) छोड़कर धन को जीवन में प्रवेश की अनुमति दी नहीं कि धन ने तृष्णा के रेशमी धागों से बुने जाल में उसे दबोचा। दबोचने में वह जरा भी देर नहीं करता। एक बार जाल में फंस जाने के बाद मनुष्य उसके रेशमी स्पर्श में मुग्ध रहने लगता है। रेशमीपन से हट कर उसका ध्यान जाल के बन्धन पर प्रायः नहीं जाता। फिर उसे रेशमी स्पर्श तो अनुभव होता है परन्तु बंधन अनुभव नहीं होता। यहां तक कि उसे वह बंधन ही मुक्ति प्रतीत होने लगता है। वह जाल के इस छोर से लेकर उस छोर तक दौड़ लगाता है और समझता है कि दुनिया इतनी ही है। मुक्ति का अर्थ है-जाल के अधिक से अधिक रेशमीपन पर आधिपत्य स्थापित करना। इसके लिये जाल में फंसे अन्य व्यक्तियों से निरन्तर संघर्ष करना और येन-केन-प्रकारेण विजय पाना। विजय के उत्सव मनाना। स्वाधीनता के समारोह आयोजित करना। यदि आधुनिक राष्ट्र के प्रतिनिधि नागरिक की स्थिति ऐसी ही है तो स्पष्ट है कि वास्तविक स्वाधीनता से वह जन्मों दूर है।
स्वाधीन वह होता है जो आत्मनिर्भर हो। आत्मनिर्भर वह होता है, जिसके आनन्द का स्रोत बाहर की दुनिया में कहीं न हो। वह इतना समर्थ हो कि स्वयं ही अपने आनन्द का स्रोत हो सके। तभी उसका आनन्द अबाध होगा। अखण्ड होगा। अक्षय होगा। अबाध, अखण्ड और अक्षय आनन्द होने का उपाय एक ही है-सांसारिकता का त्याग। तृष्णाओं का त्याग। शारीरिकता का त्याग। भोग का रास्ता अक्षय आनन्द तक नहीं जाता। केवल त्याग का ही रास्ता है, जो वहां तक जाता है। जीवन में जितना त्याग होगा, उतनी ही स्वाधीनता होगी, और उतना ही अभय होगा। वर्तमान मनुष्य को भांति-भांति के भय दबोचे हुए हैं। उसे भय है कि कोई उसकी धन-सम्पदा लूट न ले। भय है कि उसके सुख के लिये काम करने वाले कहीं बदल न जायें...कहीं मृत्यु उन्हें उससे छीन न ले। कहीं कोई उसे मूर्ख न बना दे। कहीं कोई उसके माध्यम से अपना उल्लू सीधा न कर ले। कहीं वह आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक मोर्चों पर पराजित न हो जाये। कहते हैं कि आदमी चाहे सारी दुनिया घूम ले परन्तु चैन उसे अपने घर आकर ही मिलता है। आज के मनुष्य को तो घर में भी चैन नहीं है। उसे भय है कि कहीं उसका भाई ही उसकी पीठ में छुरा न भोंक दे। कहीं उसकी पत्नी उसे दगा न दे जाये! अविश्वास और भय में निरन्तर जीते हुए वह भूल जाता है कि इस तनाव का मूल कारण है-केवल अपने सुखों से लगाव। उसे अपने शरीर के सुखों से लगाव है। वह स्वयं को देह मात्र समझता है। शरीर के सम्बन्धों को ही वह अपने सम्बन्ध मानता है। उन्हीं के लिये जीता-मरता है। परिग्रह, भोग, हिंसा और लूट-खसोट का असत्य ही उसके जीवन का सत्य बनता जा रहा है। वह दूसरों को डराकर स्वयं भयमुक्त होना चाहता है। दूसरों को परिद्र कर स्वयं वैभवशाली होना चाहता है। दूसरों से बेईमानी कर अपेक्षा करता है कि दुसरे उसके साथ ईमानदारी ही बरतें। प्रभु की यह बात उसके ध्यान में नहीं आती कि “जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। अर्थात उसकी और तेरी आत्मा एक समान है।" यदि
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यह बोध जाग जाये तो सभी असुरक्षाओं से वह स्वाधीन हो जाये। सभी संशयों से उसे मुक्ति मिल जाये। सभी दुःखों से उसकी चेतना और उसका जीवन स्वतन्त्र हो जाये। धन्य हो जाये।
खेद का विषय यह है कि यह बात एक मंगल-कामना तो हो सकती है, परन्तु वास्तविकता नहीं बन पा रही। वास्तविकता यह है कि 'जैसे को तैसा' या 'खून का बदला खून' जैसे अमानुषिक सिद्धान्त जीवन के नियामक विचार बनते जा रहे हैं। यही विचार समाचार-पत्रों की रक्तरंजित सुर्खियां बन कर आये दिन हमारी संवेदनाओं को झकझोरते रहते हैं। भगवान् महावीर इन विचारों को त्याज्य मानते थे। केवल मानते ही नहीं थे, इस त्याग को जीते भी थे। उनकी साधना की एक-एक सांस ने 'खून का बदला खून' जैसे सिद्धान्त का अहिंसक प्रतिरोध किया। यक्षायतन में साधनालीन महावीर को शूलपाणि यक्ष ने दिशाओं को कंपाने वाली हुंकार से आतंकित करने की चेष्टा की, तरह-तरह से उन्हें नोंचा, हाथी बनकर उन्हें पांवों तले रौंदा, सिंह बनकर उनकी देह में नाखून और दांत गड़ाये, सर्प-बिच्छू बनकर विषैले डंक मारे तो बदले में क्रोध नहीं पाया। प्रतिशोध नहीं पाया। धमकियां नहीं पाईं। पाया तो क्षमा...केवल क्षमा का ऐसा अमृत, जिसे उसने पहली बार चखा था। पाया तो यह ज्ञान कि “अग्नि से कभी अग्नि शान्त नहीं होती। वैर से कभी वैर नहीं मिटा करते। पानी से ही अग्नि शान्त होती है। मैत्री से ही वैर बुझ सकता है।" इस ज्ञान से शूलपाणि यक्ष के जन्म-जन्म का क्रोध शान्त हो गया। वह सभी को क्षमा और अभय का अमृत बांटने लगा। स्वाधीनता की राह पर वह चल पड़ा। महावीर देहासक्त होते तो यह संभव नहीं हो सकता था। वे देह मात्र नहीं थे। वे सहनशीलता थे। समता थे। क्षमा थे। मनुष्यता का सार तत्व थे। केवल 'स्व' के अधीन होने के कारण स्वाधीन थे। इसीलिये आतताइयों को भी क्षमा की प्रतिमूर्ति बना सके। स्पष्ट है कि 'खून का बदला खून' के स्थान पर उनका जीवन-मूल्य था-'यातना का बदला करुणा'।
आज के युग में, जब बहुत-से तथाकथित मनुष्य 'ईंट का जवाब पत्थर' मानते हैं, तब भगवान महावीर के 'विष का जवाब दूध' को याद करना अपरिहार्य हो जाता है। चण्डकौशिक नामक दुर्दान्त सर्प के कारण जिस राह से लोगों ने गजरना छोड दिया था, महावीर लोगों द्वारा सचेत किये जाने पर भी उसी राह पर आगे बढ़े थे। सर्प की बांबी के पास जाकर ध्यानस्थ हो गये थे। मानो कह रहे हों, “लो! मैं प्रस्तुत हूं। अपने जन्म जन्मातर का क्रोध मुझ पर उतार दो। पर तुम क्रोध से मुक्त हो जाओ। सभी को अभय दो।” सर्प ने महावीर को चुनौती समझ कर उन पर अपनी विषैली फूंकार छोड़ी, दृष्टि विष से उन्हें दग्ध करने का प्रयास किया, उनके पांव में सर्वघाती डंक मारा परन्तु पांव से खून के स्थान पर दुग्ध निकल आया। इस प्रकार महावीर के जीवन में चरितार्थ हुआ-'विष का जवाब दूध।' विष, दूध को विषैला नहीं बना सका। दूध ने विष को अहिंसक व सदाचारी बना दिया। सिद्ध हुआ कि दूध में विष से कहीं ज्यादा शक्ति होती है। यह शक्ति क्षमा और अभय का अनश्वर जीवन प्रदान करती है। बस! इस शक्ति को आजमाने का संकल्प चाहिये। हौंसला चाहिये। तभी मनुष्य स्वाधीन भाव से 'ईंट का जवाब पत्थर' जैसे सिद्धान्त का अहिंसक व सार्थक प्रतिरोध कर सकता है। प्रभु ने ऐसा किया और पापी के मन में पाप से विरक्ति जगा दी। मनुष्यों की तो बात ही क्या...उनसे सम्बोधि पाकर चण्डकौशिक जैसे तिर्यंच भी जागे। ऐसे जागे कि फिर कभी नहीं सोये। पाप से मुंह मोड़ा तो ऐसा मोड़ा कि मुड़कर भी उसकी ओर नहीं देखा। पाप की हिम्मत नहीं हुई कि वह महावीर के जगाये जीवों के जीवन में पल-भर को झांक भी पाये। महावीर आये तो कषायों की गुलामी चली गई। पाप चला गया। असंख्य मनुष्यों ने भयमुक्त होकर खुली हवा में सांस ली। स्वाधीनता को अपनी सांसों में अनुभव किया।
जो स्वयं स्वाधीन न हो वह किसी को स्वाधीन बना भी नहीं सकता। महावीर की स्वाधीनता को मन-वचन काया से अपनाने वाले मनुष्य अपेक्षाकृत कम हैं। यही कारण है कि वे स्वाधीनता का वितरण व प्रसार भी नहीं कर पाते। लोभ ने उन्हें पराधीन बना दिया है तो वे लोभ का प्रसार करते हैं। उस लोभ का जो मनुष्य के "सभी सद्गुणों का विनाश
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कर देता है।" लोभ के ही वशीभूत मनुष्य धन संपदा के लिये चालाकियां करते हैं। प्लॉटों, मकानों, कोठियों व बंगलों पर अनधिकार कब्जा करते हैं। जायदाद के कागजों की जालसाजी करते हैं। इसके विपरीत महावीर का जीवन देखिये। राजा सिद्धार्थ के मित्र ऋषि दुइज्जंत ने मोराक सन्निवेश स्थित अपने आश्रम में भिक्षुक महावीर से अपना प्रथम वर्षावास व्यतीत करने की प्रार्थना की। महावीर उसे स्वीकार कर चातुर्मासारम्भ में वहां आये। एक कुटी में उन्हें ठहराया गया। उस वर्ष भयानक सूखे के कारण पशुओं को चारा दुर्लभ हो गया। गायें आश्रम की कुटियों की सूखी घास-पुराल आदि खाने लगीं। सभी ऋषि लाठियां लेकर अपनी-अपनी कुटियों की रक्षा करने लगे परन्तु महावीर ने ऐसा नहीं किया। अन्य ऋषियों से शिकायतें पाकर दुइज्जंत ने महावीर को उपालम्भ दिया। कहा, “तुम कैसे क्षत्रिय-पुत्र हो? अपनी कुटी की रक्षा तक नहीं कर सकते?" यह सुनते ही महावीर ने पांच प्रतिज्ञायें की और चल पड़े। वे प्रतिज्ञायें थीं-अप्रीतिकर स्थान पर न ठहरना, सतत ध्यानलीन रहना, मौन रहना, केवल कर पात्र में भिक्षा लेना और गृहस्थ के आदर सत्कार से निरपेक्ष रहना। उस समय चातुर्मास के केवल पन्द्रह दिन बीते थे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि शेष चातुर्मास कहां व्यतीत होगा? यह नहीं सोचा कि सिर पर छत भी नसीब होगी कि नहीं। यही चिन्ता होती तो वे अपने महल ही क्यों छोड़ते? जिसने महल छोड़ दिये, उसके लिये एक कुटिया को छोड़ना क्या कठिन था! वे समझ चुके थे कि कोई भी छत उनके सिर पर सदैव छांव करने में समर्थ नहीं है। इसीलिये सुरक्षा से उन्होंने अपना सम्बन्ध तोड़ लिया। सुरक्षा से सम्बन्ध टूटा तो असुरक्षा से अपने-आप टूट गया। जिसका कुछ नहीं होता, वास्तव में उसी का सब कुछ होता है। जो किसी का नहीं होता, जो अपना भी नहीं होता, वही सबका हो सकता है। सांसारिक छतें महावीर के सिर पर नहीं रही तो पूरा आकाश उनके लिये छत बन गया। एक घर छूटा तो सम्पूर्ण प्रकृति उनका घर बन गई। वे घरों और छतों से स्वाधीन हो गये। लोभ-मोह से स्वाधीन हो गये। सांसारिकता से स्वाधीन हो गये।
अहंकार से भी स्वाधीन थे वे। एक-दूसरे की टांग खींचने और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के अवसर ढूंढ़ने वाले सम्बन्धों के वर्तमान युग में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि महावीर की दृष्टि केवल अपना कल्याण करने तक सीमित कभी नहीं रही। जिन्होंने उन पर घोर अत्याचार किये, उनका भी उन्होंने उद्धार ही चाहा। संगम देव ने जब साधनालीन
वीर की दृढ़ता परखी तो तेज हवा चलाई, काली धूल से भरी आंधी चलाकर उन्हें धूल के ढेर में दबा दिया, विषैली चींटियों और मच्छरों के आक्रमण उनकी देह पर कराये, दीमकें चिपटाईं, बिच्छू-सर्प-हाथी के प्रहार कराये, भयभैरव बनकर उन्हें डराया, देवांगनाओं के प्रयोग से उन्हें विचलित करना चाहा, उनके विषय में मिथ्या आरोप प्रचारित कर उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाया, उनके पांवों से सटाकर लकड़ियां सुलगाई और उस पर खीर बनाई परन्तु महावीर अडोल रहे। पराजित होकर जब संगम जाने लगा तो क्षमा के सुमेरु महावीर की आंखें यह सोचकर डबडबा आईं कि जो कर्म संगम ने बांधे हैं, जब इनका उदय होगा तो इस पर क्या गुजरेगी! ध्यातव्य है कि भयंकरतम यातनायें सहते हुए महावीर की दृष्टि अपनी पीड़ा पर नहीं, संगम के बंधते हुए कर्मों पर थी। अपनी देह का दुःख तो उनके लिये दुःख ही नहीं था। दुःख था तो केवल यह कि अत्याचारी का उद्धार कैसे होगा! परम मनुष्यता के इस उदाहरण से सृष्टि में ऐसा कौन है, जो कुछ सीख नहीं सकता? कौन है जो सीख कर मानवीय स्वाधीनता का चरम शिखर छू नहीं सकता? कौन है जो मिट्टी से पैदा होकर भी आसमान नहीं हो सकता? कोई भी हो सकता है परन्तु इसके लिये अपने व्यक्तित्व को ऐसे स्थान में रूपान्तरित करने वाला सम्यक ज्ञान दर्शन-चरित्र चाहिये, जिसके भीतर अप्रिय पक्षी भी उड़ान भर सकें।
आज सम्यक् ज्ञान दर्शन चरित्र का आलम यह है कि रातों-रात दल बदल जाते हैं। आस्थायें बदल जाती हैं। सत्य बदल जाता है। चारित्र बदल जाता है और इस बदलाव को ज्ञान संचालित नहीं करता। इसे संचालित करती है सत्ता लिप्सा। चुनावों के दौरान वोट के लालच में राजनेता क्या-क्या नहीं कर गुजरते! शायद ही कोई ऐसा चुनाव हो, जिसमें असत्य का प्रयोग न हुआ हो, आस्थाओं का व्यापार न हुआ हो, छल-प्रपंच न हुआ हो और तरह-तरह की हिंसा का सहारा न
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लिया गया हो! यह सब किसलिये? सत्ता और अधिकार-लिप्सा की पूर्ति के लिये। भिक्षु जीवन अंगीकार करने के बाद महावीर पर सबसे पहला संकट तब आया था जब कार ग्राम की सीमा पर वे ध्यानलीन हुए। एक किसान अपने बैलों को उनके पास यह कहकर छोड़ गया कि उन्हें देखते रहना। मैं अभी आया।' मुहूर्त भर बीतते ही वह लौटा तो देखा कि बैल वहां नहीं हैं। रात-भर बैलों को खोजा। सुबह देखा तो बैल महावीर के पास ही चर रहे हैं। सोचा कि इसी ने बैलों को छिपा दिया होगा। उसका क्रोध भड़क उठा। उसने रस्सियों से तत्काल एक कोड़ा बनाया और लगा महावीर को तड़ातड़ पीटने। महावीर अडोल रहे। इन्द्र डोल गया। वह आया और किसान का हाथ पकड़ लिया। साधक महावीर पर आया प्रथम उपसर्ग टल गया। इन्द्र ने साधना-काल में सदैव उनके साथ रहने की प्रार्थना की परन्तु स्वावलम्बी महावीर ने साफ-साफ मना कर दिया। वे चाहते तो स्वर्ग के राजा को अनुचर बना सकते थे। उसके माध्यम से सत्ता-सुख व अधिकार लिप्सा को सन्तुष्ट कर सकते थे परन्तु लिप्सा तो दूर, वे अपनी छोटी-बड़ी इच्छाओं तक को जीत चुके थे। जब इच्छा ही न हो तो कैसी पूर्ति! कैसा भटकाव! कैसा समझौता! कैसी चिन्ता! कैसी दासता!
भगवान् महावीर का जीवन इच्छाओं की दासता से मुक्त था। कभी उनकी इच्छा नहीं हुई कि लोग उनके ज्ञान, उनके त्याग और उनकी साधना से प्रभावित हों। उनके गुण गायें। बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी यशोलिप्सा से हार गये पर महावीर से यश की इच्छा हार गई। गोशालक उनका स्वयंभू शिष्य बना। उनसे तेजोलेश्या की शक्ति प्राप्त की और इधर-उधर उस शक्ति का प्रदर्शन कर उसने खूब वाह-वाही लूटी। यश पाया। शिष्य बनाये। सेवा करवाई। इसके विपरीत महावीर ने जब दीक्षा ली तो यह संकल्प भी लिया कि “मैं जब तक पूर्णत्व को प्राप्त नहीं कर लूंगा, तक तक किसी को उपदेश नहीं दूंगा।" बारह वर्ष से भी अधिक साधना-अवधि में वे मौन रहे। थोड़े से ज्ञान से छलकते रहने वाले घड़े जैसे स्वभाव वाले गोशालक तो आज भी बहत मिल जायेंगे परन्तु महावीर एक भी मिलेगा। महावीर नहीं तो महावीर-पथ का सच्चा पथिक तो हुआ ही जा सकता है। सच्चे पथिक भी कम हैं, जो बड़बोलेपन पर नहीं, मौन एवम् निष्काम साधना पर भरोसा करें। जिन्हें बलात्कार के घृणित समाचार पढ़कर महावीर का ब्रह्मचर्य याद आये। जो अपने जीवन को स्वाधीनता के उच्चतम मानवीय मूल्यों की व्याख्या बना सकें। जो व्यक्ति की सच्ची स्वाधीनता के आधार स्रोत हो सकें।
व्यक्ति की स्वाधीनता के सुमन विषमता की बंजर जमीन पर नहीं खिला करते। समता की उर्वर भूमि में ही इतनी सामर्थ्य होती है कि वह उन्हें खिला सके। संविधान में उल्लिखित होने भर से राष्ट्र में समता नहीं आती। राष्ट्र में समता तब आती है जब वास्तव में सभी को समान अधिकार हों। सभी के पास आगे बढ़ने के समान अवसर हों। किसी आधार पर कोई भेद-भाव न हो। भगवान् महावीर का धर्म-संघ आदर्श समाज का समर्थ प्रतीक है। हरिकेश मुनि उस समय के समाज में शूद्र कहलाते थे, जिनका प्रभु के धर्म-संघ में सम्मानजनक स्थान था। इन्द्रभूति गौतम और हरिकेश मुनि प्रभु के संघ में आकर ब्राह्मण और शूद्र नहीं रह गये थे। दोनों ही उनके अनुयायी बन गये थे। उनका अनुसरण कर मुक्ति को प्राप्त हुए थे। जिस स्त्री को उनके समय के समाज में खरीदा और बेचा जा चुका था, वह चंदन बाला उनके साध्वी संघ की प्रमुख थी। प्रभु के संघ में साध्वियों व श्राविकाओं की संख्या साधुओं व श्रावकों से कहीं अधिक थी। यह तथ्य इस सत्य का भी सूचक है कि समाज ने जो उपेक्षा और प्रताड़ना स्त्रियों को दी थी, उसका प्रभु के संघ में सर्वथा अभाव था। स्त्रियों ने पुरुषों के ही समान, और अनेक अवसरों पर तो पुरुषों से भी आगे बढ़कर, आत्म कल्याणार्थ कठोर साधनायें कीं। प्रभु का धर्म संघ वास्तव में रत्नाकर था, जिसमें अनेक रंगों की नदियां आकर तो मिलीं परन्तु मिलने के बाद सभी का एक ही रंग हो गया। संयम का रंग। समता का रंग। स्वाधीनता का रंग।
वाद-विवाद और कलह इस रंग में शामिल नहीं थे। इस रंग का आलोक था-संवाद। विजय अथवा पराजय उस संवाद के न उद्देश्य थे, न परिणाम । ज्ञान ही उसका उद्देश्य था। ज्ञान ही उसका परिणाम था। जैन धर्म का सम्यक ज्ञान उन संवादों के कारण ही सृष्टि को उपलब्ध हुआ, जो भगवान् महावीर के युग में संभव हुए। कभी यह संवाद सर्वज्ञ प्रभु
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और महामनीषी गौतम के मध्य गतिशील रहा तो कभी सुधर्मा स्वामी व जम्बू स्वामी के मध्य । भगवान् महावीर की परम्परा के गौतम तथा भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के केशी श्रमण के बीच होने वाला संवाद स्वस्थ वार्ता का विशिष्ट उदाहरण है। स्वस्थ वार्ता की इस श्रृंखला में और भी अनेक कड़ियां आकर जुड़ीं। स्कंधक परिव्राजक व गौतम, भगवान् महावीर व असुरराज चमरेन्द्र, भगवान् व शिवराजर्षि तथा भगवान् व परिव्राजक कालोदायी के बीच जैसे सम्बन्ध थे, वे सर्वोत्कृष्ट मानवीय सम्बन्धों के जगमगाते उदाहरण हैं। अपने से भिन्न मान्यता रखने वालों के प्रति कही कोई पूर्वाग्रह दिखाई नहीं देता। दिखाई देता है तो अज्ञान के अंधकार से बाहर आने का ईमानदार प्रयास और ज्ञान को सम्यक् रूप देने की साम्प्रदायिकता रहित कोशिश। राग-द्वेष के अज्ञान व मल से ये सभी सम्बन्ध मुक्त हैं। सत्य का निःसंकोच स्वीकार व कथन इनकी विशेषता है। यह विशेषता बताती है कि प्रभु के धर्म-संघ का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं था। विषमता ग्रस्त नहीं था। सम्यक्त्व से आलोकित एवम् समता पर आधारित स्वरूप था वह।
समता चाहे व्यक्ति में हो या राष्ट्र में, वह मनुष्यता का गौरव ही होती है। अपने-पराये का भेद वह समाप्त कर देती है। विषमता को निर्मूल कर देती है। राग-द्वेष के बंधनों का अन्त कर देती है। शारीरिकता की संकीर्णता से जीव को बाहर निकालती है। उसे ऐसी स्वाधीनता की ओर उन्मुख कर देती है, जिसे प्राप्त कर वह मृत्यु से भयभीत होना छोड़कर मृत्यु का स्वागत करने के योग्य बन जाता है। फिर उसकी मृत्यु एक महान् और नये जीवन में प्रवेश बन जाती है। फिर उसका जीवन अपनी तथा दूसरों की स्वाधीनता का महाकाव्य बन जाता है। मित्रता-शत्रुता की विभेदक रेखायें जहां समाप्त हो जायें, वहीं अहिंसा का सूर्य उगता है। जहां अहिंसा का सूर्य उगे, वहां अस्त्र-शस्त्रों का अंधकार तिरोहित हो जाता है।
भगवान् महावीर अहिंसा का सूर्य थे। वे न तो कभी अस्त हुए, न होंगे। इसलिये कि उनका प्रकाश असंख्य आत्माओं में व्याप्त रहा है, और रहेगा। सूर्य कभी अस्त नहीं होता। वह तो पृथ्वी के एक अंश से दूसरे अंश की ओर अपनी यात्रा निरन्तर जारी रखता है। भगवान महावीर की आलोक यात्रा जारी है। जारी रहेगी। फिर उनके निर्वाण को महाजीवन का आरम्भ क्यों न माना जाय!
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जन्म : एक युग का
प्रकाश-पर्व : महावीर /11
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आर्थकता का गाँव
नाजा सिद्धार्थ का पितृत्व नानी त्रिशला की ममता पिन कुण्डलपुर दासियों ( के सौभाग्य की क्यों समता कण-कण में धर्म पल-पल में सुनव 'लोग हमें क्यों नहीं लगाते तालों को दु-नव कुण्डलपुर की सुबह-दोपहन-शाम हर्ष या उल्लास के नाम
वृक्ष ने पल को जन्म दिया पुष्प ने सुगध को दूध ने मवनवन को बादल ने नीर को सागर ने रत्ननाशि को भाषा ने कविता को मात ने सुबह को और कुण्डलपुर ने महावीर को
तीर्थक्न महावीर अर्थात् ऐसा सूर्य जो कभी नहीं ढला कुण्डलपुर बोला"मैं एक छोटा-सा गाँव सही पर धरती का ऐसा कौन सा स्थान है जो मेसी सार्थकता से नहीं जला !"
प्रकाश-पर्व : महावीर /13
ACHARYA SRI KAILASSAGARSURI GYANMANDIR
SRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA Koba, Gandhinagar-382009..
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मां त्रिशला की जिज्ञासा
मुझे सब कुछ मिला सम्रटअसीम स्नेह अनन्त नवुशियाँ वेभव विसाट
मैंने सब कुछ देनवा महाराजसागर
पर्वत
नदियाँ
समाज
सचमुच एक से एक किमय विमुग्धकानी दृश्य भने हैं इस सम्मान में पर बन्छ अनवों से जो कुछ अज रात मैंने देउवा उसे देलव कर पाया देवने का सच्चा अर्थ, उसके बिना साना का साना देसवना व्यर्थ
पहले ऐसा कमी नही हुआ था ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि सोते सोते मेला अस् जगे, मुझे सचमुच की दुनिया मिथ्या और सपनों की दुनिया सच्ची लगे
वे निरे स्वप्न नहीं थे मष्ठानाज ! तभी तो
प्रकाश-पर्व : महावीर /14
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रोम-रोम के आँख बन जाने पर उन्हें देखने से जी नहीं भरा, नीचे उतर आया आनन्द का आकाश ऊपर उठ गई
संवेदनाओं की लहलहाती वसुंधरा,
अपने मुझ में
और मैं सपनों में खो गई
क्या बताऊँ महाराज !
जागी तो लगा
वही सपने देखने को एक बार फिर क्यों नहीं सो गई
पूछते हैं
उन में क्या था ऐसा ? कैसे कहूँ
किस से तुलना करूँ
इस दुनिया में
कुछ भी तो नहीं है वैसा
प्रकाश-पर्व: महावीर / 15
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उतने श्वेत... उतने उजले
कहाँ हैं हाथी और वृषभ
उस केसरी सिंह जैसा
रूप किसी भी शेर को नहीं सुलभ कहाँ है वह लक्ष्मी
जो मंगल गान गाते नहीं थकती
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सम्पूर्ण सृष्टि के पुष्यों की मुदलता मिल जाये तो भी केसी हो मालायें नहीं बना सकती वैसा चन्द्रमा इस गगन में नहीं जाता इसका सूरज भी उतना तेजस्वी नहीं लगता मैंने देलवा जो ध्वज
कोई भी पताका नहीं लगती उसकी चरण-मज उस तरह का कलश भी कहीं नहीं पाया जाता वैसा पठ्म सनोवर इस धरा पर जगह नहीं बनाता उस समुद्र जैसी नहीं है किसी भी महासागर की पहचान मेरे अलावा और किसने देशवा होगा वेसा विमान
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प्रकाश-पर्व : महावीर /16
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वह रत्नमाशि तो सृष्टि का सबसे चमकदार भाग थी, धुर का लेश-मान नहीं था पर अग थी
अपने-अप से भी ज्यादा अपने
ऐसे थे
वे चौक सपने
वे जिसे स्वप्न नहीं थे महाराज ! शीघ्रातिशीध शान्त कीजिये मेसी ज्ञन पिपासा अब मैं त्रिशला नहीं मैं तो हूँकेवल जिज्ञासा
केवल जिज्ञासा ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /17
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पिता सिद्धार्थ की सम्वेदना
सुनो मठानानी ! अज दरबार में विठ्ठान नैमित्तिकों ने जो-जो बताया उस पर सहजता से नहीं होता विश्वास ट्रेलवो ! मेले एक-एक मोम से छलकता उल्लास
हमारे भाग्य में सम्पूर्ण सृष्टि को दुर्लभ सेवा है तुमने सपने नहीं मातृत्व का परम सौभाग्य देलवा है तुम जितनी अनन्य हो उस से भी अधिक धव्य हो त्रिशला मैंने सुना तो झूम उठे धरती-असम लगा कि मैं राजा क्यों बना क्यों नहीं बना तुम जैसी माँ !
प्रकाश-पर्व : महावीर /18
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Mem
तुम आजव्द के अथाह क्षीरसागर में खोने वाली हो
एक महानतम
की माँ होने वाली हो
पुत्र
मैं उसका पिता कहलाऊंगा
और उसी के कारण युगे-युगे तक अमर हो जाऊंगा
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ऐरावत हाथी जैसा
होगा वह उजाला और सशक्त सभी जीव होंगे उसके भक्त, मोती उगेंगे
जगह-जगह सूनवी गेल मे
जब वह कृपक्ष के समान
धर्म के बीज बोयेगा खेत-खेत में
केसरी सिंह जंगल पर राज करता है।
वह
अपनी इच्छाओं पर राज करेगा
काम
उसके पास पटकने से डरेगा,
प्रकाश पर्व : महावीर / 19
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लक्ष्मी मिटाती है संत्रास परम ऐश्वर्य होगा अका दास, वह दुनिया भर का स्नेह और सम्मान पायेगा
मालाओं का एक-एक पुष्प उसके प्रति अगाध श्रद्धा से भर जायेगा,
प्रकाश-पर्व : महावीर /20
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चळमा की तरह वह सुनव-शान्ति की शीतलता बरसायेगा, सूर्य बन कर अज्ञान और दुम्लवों का अंधकार मिटायेगा, समय लोक में अकी
यश: पताका पहलायेगी, धर्म के महल में कलश की तरह शीर्ष-स्थान पायेगी, बहुत से कायों के बीच वह शूर होगा
प्रकाश-पर्व : महावीर /21
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संसार सनोवर में पैदा होकर भी नाग-द्वेष के जल से दूर होगा, गुणों का रत्नाकर ठोकर भी समु सा गम्भीर
विमान के देवों से अर्चित निर्मलता की तसवीर, सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चालिन जैसे रत्नों का धारक, ज्ञान की अग्नि से कर्मों के धुर का निवारक
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प्रकाश-पर्व : महावीर /22
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अब तो इसी पर
केन्द्रित रहेंगे हमारे मन वचन काय, तुम पुत्र को जन्म नहीं दोगी
रचोगी
मनुष्यता का एक नया अध्याय ।
सचमुच !
ये जिने स्वप्न नहीं हैं महानानी ।
ये तो हैं
सबके लिये अभयंवन
तुम्हानी कोनव मे
आया है कोई चक्रवर्ती सम्राट् या तरविन
प्रकाश-पर्व : महावीर / 23
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गर्भस्थ प्रभु का संकल्प
बहुत माँओं को
सुख-दुःख दिये हैं मैंने
बस !
अब और नहीं
राग-द्वेष के चक्कर में
अब और नहीं ही होना है भ्रष्ट
पर यह में क्या देख रहा हूँ
मेरे हिलने-डुलने से मेरी आखिरी माँ को भी कष्ट !
नहीं-नहीं
अब में नहीं हिलूंगा
माँ के गर्भ में
चुपचाप निवलूंगा
लो
मैंने बन्द कर दी हलचल
पर यह क्या
माँ अब भी विकल !
ठीक है माँ
विकलता अब तुझे कुछ नहीं कहेगी
मेरी हलचल जानी रहेगी.
प्रकाश पर्व : महावीर / 24
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सोचता हूँ कोमलता की पराकाष्ठा होता है माता-पिता का हृदय उनका व्यक्तित्व सन्तान की लय में ही हो जाता है विलय सन्तान में ही बसते-हँसते हैं उनके प्राण सन्तान से ही जुड़े रहते हैं उनके साहस उनके भय
ओ मेसी अन्तिम म ...ओ मेरे अन्तिम पिता इस भव इस देश में कमी तुम्हें दुःनव नहीं लूगा जन्म लेने से पहले सकल्प लेता हूँ तुम दोनो को कभी दु-नव नहीं दूगा तुम्हारे नहते दीक्षा भी नहीं लूगा ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /25
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जन्म : एक युग का
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इतिहास ने इतिहास रचाय प्रभु अये
निवल उठा माटी का एक-एक कण हना हो गया सूनवेपन का तृण-तृण
अधेमा भेंट रहा था वैमनस्य हट रहा था हिंसा, जहाँ भी थी, सहम गई नामकियों तक की वेदना थम गई, निर्धनों के हाथों में छा अई सौभाग्य-रेनवा, बंदियों ने मुक्ताकाश देलवा, देवी-देवताओं ने महोत्सव मनाये प्रभु अये
प्रकाश-पर्व : महावीर /26
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जैसे मूर्च्छित में चेतना अती है जैसे गूगेपन की जुबान गीत गाती है जैसे नेत्रहीन को नेत्र मिलते हैं जैसे क्रूरता के भीतर असू निवलते हैं
जैसे इंकार में अने लगे सरलता जैसे पत्थर दिल लोभ ऊगाने लगे त्याग की तरलता जैसे क्रोध की दुनिया में क्षमा मुस्कनाये
प्रभु अये
प्रकाश-पर्व : महावीर /27
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रक्तपात मिटाने वाले का जन्म भी रक्त रहित था अज्ञान के अंधकार में मति श्रुत अवधि ज्ञान के प्रकाश सहित था
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सितानों को अदभुत अणिमा देलवने का लोभ था वे गगन से जाना नहीं चाहते थे देवता भी भोगों का लाभ उठाना नहीं चाहते थे पशु-पक्षी तक जाग उठे थे उल्लास से तीनों लोक भर गये थे अहिंसा के प्रकाश से
प्रकाश-पर्व : महावीर /28
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दबे-कुचले जीवों ने भी पल भर को
सर उठाये
राग द्वेष अपने होने पर पछताये
प्रभु आये
प्रकाश पर्व : महावीर / 29
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जिसके आ जाने से वर्धमान हुआ धन-धान्य
वर्धमान हुआ धर्म वर्धमान हुआ ज्ञान
वर्धमान हुई हिंसा
वर्धमान हुआ सत्य
वर्धमान हुआ त्याग
वर्धमान हुए गुण
वर्धमान हुआ आनन्द
वर्धमान हुई सार्थकता
ऐसे शिशु को
भला कौन
किसी और नाम से बुलाये
वर्धमान आये
प्रभु आये ।
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बड़ों-बड़ों से बड़ा बचपन
प्रकाश पर्व : महावीर / 31
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शंकालू देव का आत्मकथन
इछ ने तो का था
में ही
ईर्ष्या और शंका के काँटो में उलझा था मैंने उसे आठ वर्ष का एक साधारण बालक मात्र समझा था
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सोचा थावैभव में पले-बढ़े माजकुमार तो यूँ भी अगों से कोमल ही होते हैं. मानव का छोटा-सा बच्चा होता क्या है देव-शक्ति के अगे. उसको भी क्या परनवे
परन्तु कहा था इळ ने ही थी चुनौती देव-शक्ति को चुप उठे अन्य देव नपुसकों की तरह, मैंने स्वीकार की चुनौती
प्रकाश-पर्व : महावीर /33
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देलवाकुंडलपुर में नवेल रहे थे बालक राजकुमार वर्धमान के साथ, मैंने अॅनवे बळ, की
और बन गया विकनाल सर्प पेड़ से जा लिपटा पन पेलाया आग उगलती नज़रों से देलवा पेड़ तले नवेलते बच्चे जान हथेली पर लेकर भागे
प्रकाश-पर्व : महावीर /34
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देवा पेड़ के ऊपर
बैठे बच्चों की धिग्धी बंध गई.
पके आमो की तरह टपक पड़े एक के बाद एक
मेरे अहंकार ने अट्टहास किया देवा वर्धमान को
वह मुझे लग रहा था
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मुझे
प्रकाश पर्व: महावीर / 35
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मुझे उसने पकड़ा पेड़ से बल छुड़ाये
एक हाथ से मुँह जकड़
दूसरे से पूछ
मेरा वजन अपने मानीन पर ओटा
मेरा
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और मुझे दून छोड़ आया
मुझे लगा कि वर्षमान नहीं है यह यह तो वीर है
पन मन था कि मानता ही नहीं था
वीर से अभय पाये बालक पुनः नवेलने लगे तिळूषक मैं भी बालक बन जा मिला उन में साने भागे पर वीर सब से अगे वह पेड़ को सबसे पहले छू अया वह जीत गया तो मैंने उसे कंधे पर बैठाया और दौड़ पड़
प्रकाश-पर्व : महावीर /36
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दौड़ते-दौड़ते अपने अकार को करता गया बड़ भीमकाय दैत्य हो गया अंतत: पर पिन भी नहीं डमा वह
लम्बे नुकीले तीनवे ठाँत और नानवून दीनवे झाड़-इसवाड़ से बाल अनवे गारों-सी लाल
बालक भाग मवड़े हर पर कमाल वीर ने किया मेरे कंधे पर मुष्टि-प्रहार मेसे गोम-रोम में दर्द की लहर वातावरण में मेला चीत्कार
हड्डियाँ हो रही थीं विकल मैंने जानावीन का अतुलित बल
प्रकाश-पर्व : महावीर /37
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अकार पोर-पोर टूटा समा मंग कर किसी तरह छूटा
सचमुच ! मेसी ईर्ष्या और मेसी शंका बेकार थे वर्धमान की प्रशंसा सुनकर जो देव चुप नछे वे नफुसक नहीं, समझदार थे
मेरे मन में अब भी उसके पौरूष की तसवीर है.
तुमने
प्रशंसा कम की थी इछ
वह
वर्धमान या वीर नहीं
वह तो महावीर है महा-वीर।
प्रकाश-पर्व : महावीर /38
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ज्ञान को ज्ञान कौन दे
शाला के कुलपति ने स्वागत किया बाजा सिद्धार्थ और राजकुमार वर्धमान का वर्धमान का बौद्धिक स्तर जानने के लिये प्रश्न किये वर्धमान ने अॅग्वे खोल देने वाले उत्तर दिये
और पूछा और बताया
और पूछा और बताया
कुलपति छैनान कुछ समझ न पाया जैसे-तैसे संभला
प्रकाश-पर्व : महावीर /39
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मुभव से सच निकला“यह तो साक्षात् ज्ञान है कुछ भी बता सकता है मैं इसे पढ़ाऊँ क्या यह तो मुझे भी पढ़ा सकता हैं"
90000
भगवान कोयह युगों-युगों तक जिये यह मेरे पास अया है तो शायद मुझे गुरु का मान देने के लिये"
सचमुच ! ज्ञान के क्षेत्र में कभी कोई कुछ नहीं बोता है यही एक ऐसा मैदान है जिसमें हारने का भी गर्व होता है।
प्रकाश-पर्व : महावीर /40
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सन्मति
गर्व हुआ था उन जधाचरण-लब्धि-सम्पन्न मुनियों को जो महल की छत पर वर्धमान को ध्यान करते देलव उतर अये थे
अगमें के गूढ प्रश्नों और मन की जटिल शंकाओं का समाधान पा कर हर्षाये थे
पूछने के लिये जब उनके पास कुछ नहीं रहा था तब उछोंने ही पहली बार वर्धमान को 'सम्मति' कहा था।
प्रकाश पर्व : महावीर 41
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नन्दीवर्धन और सुदर्शना की अनुभूति
हमारा दिन वर्धमान के साथ बीते तो दिन है अन्यथा नहीं
हमानी मात वर्धमान को सुलाये तो बात है अन्यथा नहीं
पहले भी था हमारे पास खिलौनों का भण्डार पर माँ ने पहले कभी नहीं दिया ऐसे विलौने का उपहार
प्रकाश-पर्व : महावीर /42
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वर्धमान अगर हमारे पास नठे तो हम किसी से कुछ नहीं लगे अपने इस निवलौने को सारे के सारे निवलौने दे देंगे साने के सारे पकवान दे दो भाने का साना कुल्लू
साने का साना जहान
हम कमी जिद नहीं की माँ ! बस ! एक बात मान जाओ वर्धमान को हमारे पास से मत हटाओ मत हटाओ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /43
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सुपार्श्व का अनुभव
'चाचा'
शब्द तो पहले भी सुनता आया पर पहले क्यों नहीं थी इसमें इतनी मिठास
प्रकाश पर्व : महावीर / 44
1111111
आज क्यों इसी एक शब्द में समा गया है
मेरा भविष्य
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मेरा वर्तमान
मेना इतिहास ?
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मदमस्त हाथी के भाव
और किस में है मेरे जितना बल पिन भी में परतत्र रहता हूँ महावत के अकुश सहता हूँ नहीं सगा अब अन परतत्र नहीं नींगा
मुझे क्या बस में करेंगे ये तिनकों जैसे लोग सब को है कायरता का रोग
इनके लिये तो मूड की एक पुकार ही कापी है
प्रकाश-पर्व : महावीर /45
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मैंने फेंक दिये लोग फेंक दिये तिनके चोट डाले बच्चे मिटटी के लौटे. कच्चे ढहा दी दीवारें धराशायी कर दी मीनारें तोड़ डाले भागी भरकम दमनन्त लोग जानें कि मुझमें कितनी ताकत
कितना सख्त
पर कौन है ये बालक जिसने मुझे टाका आगे बढ़ने से रोका
अभी इसे मज़ा चलवाता हूँ पाँवों तले हमेशा के लिये सुलाता हूँ पर यह क्या यह तो उछल कर मेरे ऊपर चढ़ गया देनवो । देलवो-टेलवो !! इसका ठोसला कितना बढ़ गया !!!
500
प्रकाश-पर्व : महावीर /46
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हाय ...! यह मुष्ट-प्रहार मेसा ॐा अा चीत्कार अगर हो गया ऐसा एक प्रहार और तो इस धरती पर कहाँ पाऊगा ठौर ?
मान गयामुझमें सम्पूर्ण सृष्टि का बल नहीं है
अधिक बलशाली तो यहीं है मैं क्या जानू बल का अर-छोन लो! मैं चला चुपचाप गजशाला की ओर
देलवो ! मेसी अनवों में शान्ति का नीर है। यह बालक वर्धमान नहीं यह तो अतिवीर है अति-वीर !
प्रकाश-पर्व : महावीर /47
ACHARYA SRI KAILASSAGARSURI GYANMANDIR
SA BAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA
Koba, Gandhinagar-382 009 -Phone: (079) 23276252,29276204-059
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କୁମ୍
सार कुछ ऐसे रहा संसार में
प्रकाश पर्व : महावीर / 49
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सभी को जीने का अधिकार
वर्धमान ने एक कदम बढ़ाया एक निर्धन को समृद्धि मिली दूसना कदम बढ़ाया एक वस्त्रहीन को वस्त्र मिले तीसना बढ़ाया भनव ने व्यजन पाये चौथा अढाया मोगी तक पहुंचा स्वास्थ्य पाँचवाँ बढ़ाया अनाथ ने असना पाया
सबने चाठा-युगों-युगों तक बढ़ते ही जायें वर्धमान वन-विहान करते वर्धमान नखड़े हो गये एक पेड़ तले निहारने लगे प्रकृति की देन कि अकस्मात् पीड़ से चिंचियाता पेड़ से अ पड़ एक पंछ लहलकान
प्रकाश-पर्व : महावीर /51
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वर्धमान का
रोम-रोम कराह उठा
पोर पोर हो गया
अपने रक्त से रंजित आँखों में उमड़ आयी अहिंसा की नदी
प्रकाश-पर्व: महावीर / 52
बुलवाया शिकारी को पकड़ लाये सेवक तत्काल
'चण्ड' नाम का गुलेलथानी बालक
सहम गया
बोले वर्धमान
" जैसे दर्द हो तो तुम्हारी सहनशीलता रोती है
वैसे ही चोट लगे तो पीड़ सब को एक जैसी होती है
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कभी भी कोई डरना नहीं चाहता तुण्ठानी ही तरह कोई भी जीव
कमी
मरना नहीं चाहता आज तुमने निरपराध पछी को घायल कर दिया कठो कहो अब क्या करोगे तुम ?"
चण्ड ने कहा पौरन"तोड़ दूंगा, नाजकुमार गुलेल तोड़ लूंगा और शिकार हमेशा के लिए छोड़ दूंगा"
प्रकाश-पर्व : महावीर /53
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राग दीखता हुआ विराग
'वर्धमान बड़ हो गया' म ने सोचा ‘वर्धमान विवाह-योग्य हो गया पिता ने कहा'महासामन्त समनवीर की पुत्री यशोदा का प्रस्ताव स्वीकार हो' भाई जे उत्साह-सागर को थाम परामर्श दिया सोचाभोग के मल में भी कमल लिवल सकता है योग का यह भी दिलवा दिया जाय कर्मासक्त कुनिया को
वर्धमान ने जाना पहचाना सत्य समी का याद कियागर्भ में लिया संकल्प ....'कमी नहीं देगी दुःख यह देह उठे जिळोंने जन्म दिया' विवाह किया अक्षय ज्ञान-कोश दिया यशोदा को पुत्री प्रियदर्शना के साथ सहे संस्कार धर्म के
धर्म चाहे गृहस्थ में हो या सन्यास में धर्म तो धर्म का ही प्रसान करता है राग में भी विराग भरता है
प्रकाश-पर्व : महावीर /54
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परिस्थितियाँ जो भी थीं महावीर ने स्वयं रचा अपना समय
कामनाओं के घोड़े कभी नहीं कभी नहीं हो सके अभय कर्म-शत्रु कह गये'महावीर के जीवन में हम तो अपने लिए स्थान ढूंढते नहे
ढूंढते रहे
ढूंढते ही रह गये।
ज्ञान है तो शोक नहीं
सोचा वर्धमान ने'यह देह प्रदान करने वाले तज गये अपनी देह
प्रत्येक देह का अवसान निश्चित हो जाता है जन्म के समय ही अपनी यात्रा के इस पड़ाव पर माता-पिता अट्ठाईस वर्ष रहे मेरे साथ इस अवसर पर एक भावना है मेरी भीउनकी यात्रा को पूर्णता मिले शीघ्र ही मैंने गर्भ में लिया संकल्प निभाया संकल्प एक और भी हैइतने अच्छे थे माता-पिता कि वही मेरे अन्तिम माता-पिता छों
प्रकाश-पर्व : महावीर /55
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फिर किसी के
सपनों में न पलूँ मैं
सदा-सदा
त्रिशला और सिद्धार्थ की ही सन्तान कहाऊँ
इसके लिये
करनी है साधना मुझे
परन्तु ज्येष्ठ भ्राता ने कहा है'आँसू सूखने दो
घर में रहो अभी दो बरस और
उन्होंने दिया है वचनदो बरस बाद वे नहीं रोकेंगे
Ferr
KUU
ठीक है।
ज्येष्ठ भ्राता के नाम
दो बरस और
यों भी
ज्येष्ठ भ्राता तो पिता तुल्य होता है ।'
परिवर्तन को तड़पता समाज
यह कैसा समाज है
एक ओर भोजन के भण्डार हैं
दूसरी ओर भूख और अनन्त प्रतीक्षा एक ओर सूने महल हैं
दूसरी ओर छाँव को तरसते सर
एक ओर पहने जाने की बाट देखते कपड़े हैं
दूसरी ओर ठिठुरते सिकुड़ते बदन
एक ओर हाथी-घोड़े हैं
दूसरी ओर नंगे पाँव
एक ओर स्वामित्व है
दूसरी ओर दासता
कैसा समाज है यह
यह कैसा समाज है
जो मनुष्यता के बिना ही
मनुष्य-समाज कहलाता है
जहाँ इन्सानों को
वस्तुओं के समान खरीदा बेचा जाता है। दासों से निर्ममतापूर्वक
प्रकाश-पर्व: महावीर / 56
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काम कराने का रहता है जुनून
काम न होने पर
कोड़ों से ऐसे पीठते हैं उन्हें
कि देह पर जगह-जगह
छलछला आता है खून
जातिवाद का है ऐसा भयानक रोग कि शूद्रों को
मनुष्यों के पांव की जूतियां
समझते हैं लोग
उन्हें धर्म-स्थानों में नहीं जाने देते
उन की
छाँव तक पास नहीं आने देते
स्त्रियों को भी
बनाया जाता है दासियाँ
अपनी इच्छा से वे
न हँस सकती हैं न ले सकती हैं उबासियाँ
प्रकाश पर्व : महावीर /57
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उन्हें
समझा जाता है मनोरंजन का सामान फिर वे
कुओं में कूद कर क्यों न दें जान उनके लिये दिवास्वप्न है
सम्मान की जगह
कैसा समाज है यह
यह कैसा समाज है
जहाँ न्याय के नाम पर अन्याय
सदाचार के नाम पर कदाचार
और
धर्म के नाम पर अधर्म होता है हर यज्ञ में
कम से कम एक स्वस्थ पशु अपनी जान अवश्य खोता है
उसके माँस को
कहा जाता है प्रसाद
इस अधर्म का
कोई नहीं करता प्रतिवाद
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नैतिकता उठ गई सदाग्रह छूट गये है लोग न अपने से जुड़ते हैं न दूसने से वे तो संकीर्णताओं में उलझ कर टूट गये हैं
इस अंधकार में क्यों...आनिवर क्यों प्रवेश नहीं करती सुबह कैसा कैसा समाज है यह
यह समाज सत्य जानने के लिये कुछ नहीं सीनव रहा है यह तो बस नह-नठ कन चीनव उठा हैसम्भालो...और सम्भलो अगर कुछ कर सकते हो तो मुझे बदलो मुझे बदलो
मुझे बदलो।
प्रकाश-पर्व : महावीर /58
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करुणा-वीर
"समाज बदलने के लिये पहले स्वयं को बदलना है बड़े भाई के को दो बरस बीत गये अब मुझे अपनी सोची हुई माह पर चलना है मैंने स्व-पर-कल्याण की शपथ ली है पिन लोकाठितक देवों ने भी धर्म-तीर्थ-प्रवर्तन हेतु प्रार्थना की है
मैं जिन-दीक्षा अंगीकार कस्गा पर अनजाने में भी सम्पदा से अधाये हुए सुनिवयों का पेट नहीं भरूंगा बेबसों के लिये कुछ न कुछ अवश्य सोचूंगा गरीबी के आँसू जितने पोंछ सकूँगा पोंगा
बहुत संभव है-मेरे प्रयास विनाट निर्धनता का अभिशाप न मिटा पायें परन्तु एक वर्ष तक मैं नित्य बाँदंगा एक करोड़ आठ लानव स्वर्ण-मुद्रायें ।'
सोचा महावीर ने, उन का यह विचार वर्ष-भर उनकी सॉस-ॉस में जिया
प्रकाश-पर्व : महावीर /59
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उस करूणा-वीर ने जो सोचा था वही किया
वही किया। सार्थकता की परम यात्रा 7
महावीर का
महाभिनिष्क्रमण देवों-मनुष्यों पशु-पक्षियों का महोत्सव
धरती ने नहीं देलवा था ऐसा जनसमुद्र अपार आसमान में भर गया था
महावीर का जय-जयकार
भाई नळीवर्धन, ঠিক মূহুমকি और चाचा सुपार्श्व छैनान थे देवकन वर्धमान का इतना बड़ा परिवार
इतनों को वर्धमान प्यावा है सभी कठ नठे हैं'वह उमाना है हमाना है
प्रकाश-पर्व : महावीर /60
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सभी के हृदय उमड़ कर आ रहे हैं
सभी
अवरुद्ध कंठ से महावीर के जय-गीत गा रहे हैं महावीर ने वस्त्र-आभूषण त्यागे अपने हाथों से अपना केश-लोंच किया
संकल्प लिया सभी पाप त्यागने का तीन करण-तीन योग से
प्रकाश-पर्व : महावीर /61
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सार्थकता की परम यात्रा आरम्भ हुई
मनः पर्यय ज्ञान ने
अभिषेक किया इस आलोक-यात्रा का महावीर का हो गया वह
जाग उठे
उसके भाग
गूंज उठी दिशायें - धन्य हैं महावीर
प्रकाश पर्व : महावीर / 62
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धन्य है महावीर का त्याग ।
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साधना केवल साधना
प्रकाश-पर्व : महावीर /63
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घढ़ रहा था सुमेक
छोड़ कर शमीन के सुनव छोड़ कर शीन के समस्त सम्बन्ध महावीर पढ़े आत्मा के आनन्द की ओर
परीषकों उपसर्गो को आमंत्रित करता साहस बढ़ रहा हो जैसे त्याग ने देह धानी हो संयम धढ रहा हो जैसे मुनित्व बढ़ रहा हो जैसे हवा बढ़ रही हो मुक्ति-गगन में अढ नठा हो जैसे भिक्षुत्व का सूर्य परम स्वतन्त्रता का आलोक लुटाता
अभिनन्दन स्वरूप इन्द्र ने जो डाला था वह देवदूष्य प्रसन्न था अपने सौभाग्य पर
हवायें
उड़ा नहीं पा नहीं थी उसे जकड़े था ऐसे वह प्रभु के कन्धे को
जंगल की धारणा टूट गई थी | कि केवल वैशाली के हैं महावीर सिष्ठन-सिहर जा रहे थे
प्रकाश-पर्व : महावीर /65
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उसके वनस्पति-गोम नव-देनव कर प्रभु को अपनी ओर आते
मारे खुशी के लहना रहा था जंगल आज उसजे पहली बार चलते देखा था श्रमणत्व के सुमेरु को
बढ़ रहा था सुमेरू साधना-पथ पर।
दरिद्रता मिली अपरिग्रह से।
साधना-पथ पर बढ़ते चरणों में साष्टांग प्रणत एक दीन-जर्जन वृद्ध
सुमेरु के हदय-प्रदेश में । करुणा हनीतिमा बन लहराने लगी
पुनः देनवा करुणा नेकपड़ों और छ के बीच जीर्ण-शीर्ण होने की होड़ पोर-पोर पर असनव्य झुर्रियों में लिनने गरीबी के मर्मातक अनुभव तमाम उम्म दु:नवों की चट्टानें तोड़-तोड़ कर ॲरवों को जेसे-तेसे मिली कुछ. नमी ज़िन्दगी-भर का दुःनव हाथ जोड़ कर बोला-"प्रभु ! आपको क्या कमी
प्रकाश-पर्व : महावीर /66
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में वैशाली से दूर भिक्षाटन को गया लौटा तो जाना—आपका वर्षीदान मुझ अभागे के हाथ से नवो गया आपकी कृपा का मेघ साल-भर कल्प-वृक्ष बन कर बरसा और बह गया में तरसा सखूब तरसा इस बार भी तरसता ही रह गया पता लगते ही जागा आपके पीछे-पीछे भागा हे प्रभु ! अब तो मेरी पीड़ा हर लीजिये मुझे भी कुछ तो दीजिये"
महावीर ने देवावृद्ध की नजर गड़ी है देवदूष्य पर उसे देखकर अभावों के झाड़-झरवाड़ में निवल उठे है । भावों के अनेक सुमन यह वस्त्र इन सुमनों में उलझ गया है इसे लेकर आगे बढा तो सुमनों को चोट लगेगी हिंसा व्यर्थ जगेगी
दरिद्रता आतुर थी बोली"आपके पास अभी शेष है यह कपड़ा इसी में से दे दीजिये आधा टुकड़ा यही होगा मेला प्रसाद आपकी उदारता की याद”
प्रकाश पर्व : महावीर /67
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प्रभु ने विलम्ब नहीं किया तत्काल आधा देवदूष्य फाड़ा और दरिद्रता को दे दिया
दरिद्रता ने नगर में पहुँचकर उसका मोल समझा
मन
शेष आधे टुकड़े में जा उलझा पीछे-पीछे वृद्ध भी गया जंगल में करते हुए शोध देवा-ध्यानलीन महावीर को
नहीं था देह का बोध
नहीं रही गुंजाईश गिड़गिड़ाने की हिम्मत नहीं हुई
देवदूष्य चुपचाप चुराने की
देख-देख बढ़ती गई चाह
वह महावीर के पीछे-पीछे फिना
पूरे तेरह माह
तब एक दिन
उसका भाग्य फिर गया
देवदूष्य उसके प्रति करुणा से भा
और अपने-आप गिर गया
उसने लपका और चल दिया वह
मन ही मन उसका मूल्य आँकते
महावीर को
क्या पड़ी थी
कि उस ओर ज़रा भी झाँकते !
प्रकाश-पर्व : महावीर / 68
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'स्व' के योग में 'पर' का सहयोग कैसा
महावीर सम्मति थे अतिवीर थे वर्धमान थे परन्तु कर्मान ग्राम की सीमा पर जब ध्यानलीन हुए तो ध्यान थे केवल ध्यान
आत्मा के ध्यान को सुबह-दोपहर-शाम का कैसा बोध न किसी से लगाव न विरोध
ध्यान था अकेला गोधूलि की वेला एक किसान अपने बैलों को लेकर लौट रहा था आत्मा के ध्यान को देव उसने कहा था"भिक्षु ! सुनो मेला कहना मैं घर से लौट कर अभी आया तब तक मेरे बैलों को देनवते रहना"
आत्मा के ध्यान को भौतिकता क्यू कर रहती याद किसान लौटा मुर्त-भर बाद
लव कर हुआ परेशान बैलों का न कहीं नाम न निशान पूछा महावीर से"बैलों को ले गया कौन ?" महावीर मौन !
उसने रात-भर बैलों को खोजा ज्यों-ज्यों बैल नहीं मिले त्यों-त्यों लता गया मन पर मनों बोझा थक-ठान कर सुबह कर्मान लौटा
प्रकाश-पर्व : महावीर /69
For Personal & Private Use Only
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तो उसके प्रयास
बैलों को और खोजने से डर रहे थे
वह देखकर हैरान रह गयामहावीर ध्यानमग्न थे
और उसके बैल वहीं चर रहे थे !
इस संयोग ने
उसके मन में क्रूरता के विचार जगा दिये
'हो न हो चुराने के लिये
मेरे बैल इस भिक्षु ने ही रात को छिपा दिये'
क्रूरता की रस्सी से
अज्ञान ने तत्काल कोड़ा बनाया
तड़ातड़-तड़ातड़
ध्यानलीन देह पर बरसाया
जहाँ-तहाँ पड़ी
सुर्ख सेवाओं से लहू उछल आया
पर मज़ाल
कि तिल-भर काँपी हो वह काया
Kad
यह उपसर्ग आसानी से नहीं टला
स्वर्गस्थ देवेन्द्र को पता चला, देव होने का
लाभ यही तो है
कि जब-जब सज्जनता पर
अत्याचार होते हैं तो
पता लग जाता है समय रहते अन्यथा महावीर
और जाने कितने अत्याचार सहते
प्रकाश पर्व : महावीर / 70
For Personal & Private Use Only
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देवेन्द्र ने किसान को सच्चाई बताई तो उसके मन में कठोरतम दण्ड की आशंका उमड़ आई तब महावीर का ध्यान-क्रम टूटा उनके दिये अभय से किसान का तनाव छूटा
देवेन्द्र बोले-“प्रभु ! आपका ध्यान अबाध हो इसलिए में आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ मेरे मन की सीप में इसी आकांक्षा का मोती है
महावीर बोले"स्व' के योग में कोई सहयोग नहीं होगा आत्मा की साधना तो अकेले ही होती है।”
प्रकाश-पर्व : महावीर /71
For Personal & Private Use Only
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साधना के सन्देश
पूरे साधना-काल के दौरान महावीर
ध्यानस्थ रहे
या गतिमान
तीसरी कोई स्थिति नहीं थी इसके अलावा
वे समझते थे
क्या है वास्तविकता
क्या है छलावा
वे केवल अपने ध्येय को जीते रहे दैहिक दैविक-भौतिक कष्टों से कर्म-निर्जरा कर
अमृत पीते रहे
उनका ज्ञान और उन्नत और उन्नत
-OBAL
O
और उन्नत होता चला गया भौतिकता की गंध को
उनका शरीर खोता चला गया जीवन
बन गया
साधना का निरन्तर गतिशील छन्द देह के सहस्र-सहस्र रोमकूपों से प्रवाहित होने लगी
विमल होते भावों की दिव्य सुगन्ध
वे जहाँ-जहाँ जाते
अनजाने ही यह दिव्य सुगन्ध
चर-अचर को बाँटते
सुगन्ध का निमन्त्रण पा भँवरे उनकी देह पर झपटते और अंग-प्रत्यंग पर तरह-तरह से काटते देह को होती है
तो होती रहे पीर
वास्तव में विदेह थे महावीर
कामिनियाँ आकर्षित हो उनके पास आतीं
भँवरों की तरह निराश लौट जातीं
प्रकाश पर्व : महावीर / 72 For Personal & Private Use Only
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काम के विजेता समभाव के प्रणेता साधना के सन्देश
यान्ना करते-करते पहुँचे मोराक सन्निवेश
वहाँ राजा सिद्धार्थ के मित्र
ऋषि आश्रम के कुलपति दुइज्जत ऋषि ने
उन्हें तत्काल पहचान लिया हर्षित मन से स्वागत किया
आश्रम में ठहराया
सुबह वे जाने लगे
तो आग्रहपूर्वक उन से
आगामी वर्षावास वहीं बिताने का वचन पाया
महावीर पुनः आये
अपना वचन साकार करने
वर्षावास हेतु आश्रम में ठहरने तिनकों से बनी कुटिया में ठहरे
प्रकाश-पर्व : महावीर / 73
ध्यान में उतर गये गहरे
अन्य ऋषि देख कर हैरान
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कभी न टूटने वाला
यह कैसा ध्यान !
उन दिनों वहाँ बारिश कम हुई वनस्पतियाँ सूख गई थीं आश्रम के आस-पास का क्षेत्र विशेष रूप से था सूखे का मारा न मनुष्यों को पर्याप्त अन्न-जल न पशुओं को चारा
कुटियों का घास-फूस खाते
तो सभी ऋषि लाठियाँ लेकर उन्हें खदेड़ते दूर भगाते
पशु भूख से छटपटाने लगे सूखे पत्ते तो क्या
लकड़ी के टुकड़े तक चबाने लगे जब-जब वे आश्रम में
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एक महावीर थे जिन्होंने हिंसा से पूर्णत: किया किनाना। आत्म-रक्षा के लिये भी भूनवे पशुओं को कभी नहीं मारा अन्य ऋषियों के दुर्वचन सहे वे ध्यानलीन थे ध्यानलीन ही रहे
पर ऋषि-समूह चुप नहीं रहा उनकी निरन्तर शिकायतें पा एक दिन कुलपति ने कहा"क्षत्रिय-पुत्र छोकर भी तुम गायों को नहीं भगाते
एक पछी भी अपना घोंसला बचाता है तुम क्यों नहीं बचाते ? ऋषि कहते हैंजो बचा न सके अपनी कुटीन वह कैसा महावीर !”
सोचा महावीर नेकुटिया की ही चिन्ता करनी थी तो ध्यान को आत्मा से क्यों जोड़ता राजभवन किस लिये छोड़ता साधना हेतु स्थान का चुनाव भी छल है इस आश्रम से अच्छा तो जगल है
वे आश्रम छोड़ बिना कुछ कठे बढ गये आगे इस प्रसंग से और अधिक
प्रकाश-पर्व : महावीर /74
For Personal & Private Use Only
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और भी अधिक जागे
साधना-पथ में न आयें बाधायें
इस उद्देश्य से धारण की
पाँच प्रतिज्ञायें
निंदा - स्तुति करने वालों के संग-साथ से
दूर रहना
सुरक्षित स्थान न चुनकर स्वयं को
पूर्णतः प्रकृति को सौंप देना
और ध्यान की नदी में बहना भिक्षा मांगने
5000
व मार्ग पूछने के अतिरिक्त सर्वथा मौन रहना
और
केवल कर पात्र में भोजन करना अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु कभी किसी को प्रसन्न करने का नहीं करना प्रयास
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पन्द्रह दिन आश्रम में
और शेष समय
एक वृक्ष के नीचे
यूं व्यतीत हुआ श्रमण महावीर का प्रथम वर्षावास ।
प्रकाश पर्व : महावीर / 75
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इधर क्षमा थी उधर क्रोध
साधना करते हुए अविराम महावीर पहुंचे-अस्थि ग्राम ग्राम के निकट यक्ष-मठिदन को साधना-स्थल बनाया तभी उस का पुजारी आया बतलाया“यह एक दुष्ट यक्ष का निवास है उसे मानव-रक्त की प्यास है वह इस गाँव को सचमुच अस्थियों से भर चुका है कइयों की हत्या कर चुका है। आप अपने प्राण व्यर्थ न गँवाएँ साधना के लिये अन्यत्न कहीं जायें
महावीर ने सब कुछ सुना परन्तु साधना हेतु यक्ष-मदिन ही चुना
सचमुच ! देह-विसर्जन मनुष्य को पौरूष से भन देता है पूरी तरह यक्षायतन में देह-विसर्जित महावीर के पराक्रम को ध्यानलीनता ने छुआ सूर्यास्त हुआ पहन रात बीते यक्ष आया महावीर को देनव भयानक अट्टहास गुंजाया यक्षायतन की कॉप उठी एक-एक दीवार उसने भनी पशु-पक्षियों तक को दहला देने वाली
ਤ जिस से काल पर भी कहन छाया पर उसका आतक
प्रकाश-पर्व : महावीर /76
For Personal & Private Use Only
Page #98
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कालजयी महावीर को हिला नहीं पाया यक्ष का क्रोध और भी जगा वह नुकीले नाखूनों और दाँतों से महावीर को काटने-नोंचने लगा
महावीर अचल क्रोध का और बढ़ा बल उसने हाथी बनकर उन्हें सूंड में लपेटा पाँवों तले कुचला इस से भी काम नहीं चला
उसने सिंह का रूप लिया तीनवे दाँतों व नामवूनों से अग-प्रत्यंग घायल किया सर्प-बिच्छू बन कर मारे असनव्य विषैल डंक
महावीर अडोल निश्शंक उसका हर वार बेकार गया क्षमा मूर्तिमान हुई तो उसके सामने क्रोध हान गया तब महावीर ने ठोठ नवोले करुणा-सिक्त स्वर में बोले"भव्यमन ! सत्य को जानो अपने-आप को पहचानो वेन से नहीं धुलते वेन के दाग आग से और भड़कती है आग मैत्री के जल से वैर की आग बुझाओ दूसनों को अभय छो
प्रकाश-पर्व : महावीर /77
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दूसनों से अभय पाओ !" यक्ष ने कहा-“भिक्षुक ! तुम्हें नहीं मुझे है प्रतिशोध का रोग क्षमा और अभय के योग्य नहीं इस गाँव के लोग
जब मैं बैल था पिछले जनम में तब इन लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी सितम में में उसी के गिन-गिन कर बदले ले नठा हूँ इनके पापों के पल इन्हीं को दे रहा हूँ समझ सको तो समझो मेनी व्यथा सुनो मेनी अपार वेदना की कथा
मेना स्वामी धनदेव मुझे बड़ा प्यार करता था मैं भी उसी पर जीता था उसी पर मरता था उसने मुझे गाड़ी में कभी नहीं जोता था मुझे प्यार किये बिना उसे भोजन हजम नहीं होता था
एक बार वह पाँच सौ गाड़ियों में सामान भर व्यापार के लिये चला मैं भी गले की घंटियां बजाता साथ-साथ निकला
गरमी इतनी कि एक-एक जीव पसीने में सन गया था
प्रकाश-पर्व : महावीर /78
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वर्धमान ग्राम के पास बहती नदी का पानी सूनवकन कीचड़ बन गया था उसी कीचड में गाडियाँ स गई पसी तो ऐसी कि किसी भी तरह निकल नही पाई स्वामी की छूट पड़ी रुलाई
अतत: उस विपत्ति में उसने मुझे मित्र बनाया था तब उसके प्यार का कर्ज उतारने का दिन आया था
मैंने अपना साना बल अपने कंधों में संचित कर लिया पूरा जोर लगाया
और पहली गाड़ी को पार कर दिया फिर दूसरी फिर तीसरी यूं सब गाड़ियाँ निकाल दी स्वामी की बिगड़ती तबीयत संभाल दी
परिश्रम इतना लगा कि परिश्रम के छक्के छूट गये गाड़ियाँ तो निकल गई पर मेरे कंधे टूट गये स्वामी के होठों पर देनवी मुस्कान जान में आई जान टूटे कंधों में दर्द था बड़ा में निढाल हुआ और धरती पर गिर पड़ा
प्रकाश-पर्व : महावीर /79
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.
यह देनव स्वामी को अपार दु:नव हुआ उसने मुझे जगह-जगह से छुआ मैं उठ नहीं सकता था झुक नहीं सकता था मैं चल नहीं सकता था। और वह रुक नहीं सकता था
उसने ग्रामवासियों को इकट्ठा किया प्रभूत धन दिया कहा-'यह जो धरती पर लेटा है बैल नहीं है यह मेरा बेटा है इसकी करते रहना सार-संभाल हर तरह से रवते वरुना नख़याल
ये धन इतना है कि इसका महीनों तक नहीं होगा क्षय में अपने वत्स को साथ ले जाऊगा लौटते समय इसके बिना मेरा जीवन बना रहेगा सत्रास लो ! मेरा बेटा मेनी अमानत है तुम्हारे पास
गाँव वालों ने धन तो ले लिया पर मुझे एक बूंद पानी तक नहीं दिया भूनव-प्यास से तड़पता मैं पड़ा नहा धूप में अतत: मर गया
प्रकाश-पर्व : महावीर /80
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और जवमा दक्ष के रूप मे
अब तो मैं
केवल प्रतिशोध का अर्थ हूँ
उस समय ये थे
आज में समर्थ हूँ
एक-एक तड़प का
मैंने भरपूर बदला लिया
वर्धमान ग्राम को
अस्थिग्राम बना दिया
में यहाँ के बच्चे-बच्चे में
अपान यातनाओं का विष भया नहीं भिक्षुक
इन राक्षसी लोगों को
कभी क्षमा नहीं करुगा ।"
महावीर ने क्रोध की बात सुनी मुस्कनाये
सहजता के शब्द
क्षमा की पिठुवा पर आये
"यदि एक प्रश्न का उत्तन के सको
तो अवश्य लेना बदला
खून सना कपड़ा खून से धोया जाय तो कब तक हो सकता है उजला ?"
प्रकाश-पर्व: महावीर / 81
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इसका उत्तर दे सकता है कोन यक्ष भी मौन
महावीर ने दिया बोध"विरोध से कभी शाळत नहीं होता विरोध तुम प्रतिशोध की अग्नि पर मेत्री, करुणा, प्रेम व सहानुभूति का नीर बरसाओ
अमृत बाँटो अमृत पाओ
इस तरह इस जन्म में भी तुम कुछ सार्थक कर जाओगे गोम-गोम आनन्द से भर जाओगे।"
इतना सुनकर यक्ष नहीं रह सका नवड़ा तत्काल महावीर के चरणों में गिर पड़ा उसने अपनी मिथ्या धारणा को नवो दिया इस प्रकार झमा के अमृत ने क्रोध का मैल धो दिया ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /82
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नस-नस में करुणामृत बहता
के ने आत्मा को प्रभावित किया आत्मा को देह ने सुनव-दु:नव की अनुभूति नवो गई महावीर की देऊ साधना से कुठदन हो गई
उत्तर वाचाला वन की ओर अढते महावीर ने निठानाग्वाल-बालकों ने पीछे से पुकारा "उधर मत जाओ भिक्षुक !
इधर आओ उधर तो चण्डकोशिल साँप का कहन है उसकी (फकार में उड़ते पछियों को भी नवींच कर मान देने वाला ज़हन है वह एक नज़न देनव लेता है जिस किसी को तत्काल प्राण गँवाने पड़ते हैं उसी को उसके क्रोध से कोई नहीं बचा आज तक आप अपने को बचाइये। उस तरफ मत जाइये।"
विव्ह महावीर के पास कहाँ से आता भय यह सुन कर तो ओर दृढ हो गया उसी रास्ते से जाने का निश्चय जिसका इतना भयानक नवींचा गया चिन्न उसी सर्प को कहा मष्ठावीन ने
प्रकाश-पर्व : महावीर /83
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ग्वाल-बाल देनवते रह गयेयोगी के रोम-रोम में अभय रहता है वरना भयानक साँप को भी । कभी कोई अपना मित्र कहता है !
महावीर के साथ बढ़ा उनका चिन्तन... 'करुणा का अधिकारी जीव-मात्र है जिसे क्रोध ने पहले ही डॅस रकमवा है वह सर्प भय और क्रोध का नहीं सहानुभूति और मैत्री का पात्र है उसके पास जाना है । क्रोध के विष से उसे बचाना है'
देलवो ! अपने युग में महावीर करुणा के कैसे-कैसे कालजयी बीज बो गये वे सर्प की बाम्बी के पास पहुंचे और कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गये
चण्डकौशिक को अरसे बाद मानव-व्ह का गठधाभास मिला आहार की सम्भावना से उसका क्रोध विला
प्रकाश-पर्व : महावीर /84
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वह बॉबी से बाहर आया एक आदमी को अभय मुद्रा में मवड़े पाया चुनौती मिली अठकान को क्रोध चढा छोड़ दिया हत्यारी फूत्कार को
परन्तु महावीर जैसे थे फूत्कार सहकर भी वैसे के वैसे थे सर्प में
अहंकार और क्रोध का हो गया संयोग फिर उसने अचूक दृष्टि-विष का किया प्रयोग चण्डकौशिक हैरान मूर्च्छित होना तो ठून मष्ठावीन जना भी नहीं छुए परेशान
प्रकाश-पर्व : महावीर /85
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अब क्रोध व मद की विष धारा पागल हो कर बही
आवेश की कोई सीमा नहीं रही
चण्डकौशिक ने
महावीर के पाँवों में
अपने विषैले दाँतों का समूह
एक साथ गड़ाया परम आश्चर्य
पाँवों से खून की जगह दूध निकल आया
साधना ने जीवन में कैसा परिवर्तन किया
क्रोध की क्षमा
मान को विनम्रता
माया को सरलता
लोभ को त्याग
हिंसा को अहिंसा
कायरता को पराक्रम
निमर्मता को करुणा
और खून को दूध बना दिया
सच है
देह आत्मा को प्रभावित करती है
आत्मा
देह को
. समभाव बनी महावीर की देह
प्रकाश-पर्व : महावीर / 86
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इतना सहती थी कि उसकी नस-नस में रक्त की नहीं करुणा की धारायें बहती थी
।
एक ओर रक्त-पिपासु विष था दूसरी ओर आत्मीयता-सा उजला दूध एक ओर प्रहार था दूसरी ओर प्यार
सर्पको अन्तत: अपने हौंसले पड़े थामने कैसा लगता है जब चरम हिंसा और परम अहिंसा होते हैं आमने-सामने
IVV UVODU
भौंचक्का था चण्डकौशिक का क्रोध महावीर बोले"सर्पराज ! बोध पाओ बोध
अतीत में जाओ जा सकते हो जहाँ तक खोजो खोजो खोजो किस कारण से तुम पहुँच गये यहाँ तक तुम्हारी दुर्दशा का दायित्व जिस पर है क्या उस मूल कारण पर तुम्हानी नज़र है सोचो और हटा दो वही मल अवरोध
प्रकाश-पर्व : महावीर /87
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सर्पराज ! बोध पाओ
बोध
चण्डकौशिक ने समझाकुछ नहीं है हार-जीत में अपनी दुर्दशा का मूल कारण खोजने वह उतर गया अतीत में
जैसे-जैसे जमने लगा ध्यान
वैसे-वैसे कौंधने लगा
जातिस्मरण ज्ञान.... ...नहीं ! सर्प नहीं था मैं में सर्प नहीं था
में था एक ब्राह्मण वाचाल हमेशा क्रोध से मुँह लाल अपने उपवन की करता रखवाली एक दिन पशुओं ने चर डाली हरियाली
उपवन में एक भी फल नहीं छोड़ा मैंने कुल्हाड़ा उठाया
और एक-एक का खून पीने दौड़ा
नेत्रों का विवेक खो गया
वो गहना गड्ढा नहीं दिखा मुझे और मैं उसी में ढेर हो गया
उस से पहले था देव अग्निकुमार वहाँ भी क्रोध का ही व्यापार
उस से पहले
गोभद्र मुनि नाम का संत
क्रोध का
वहां भी नहीं अंत
पाँव तले कुचला मेंढक नहीं जिया
उसे देख कर अनदेखा किया प्रतिक्रमण के समय.
प्रकाश पर्व : महावीर / 88
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शिष्य ने दिलवायाहिंसा का भय बोला-"गुरुदेव ! ध्यान दीजिये पाप हो गया है आलोचना कर लीजिये मैंने शिष्य को मारने के लिये अपना दण्ड उठाया दौड़ा नेत्रों का विवेक खो गया वो खम्भा नहीं दिलना उस से टकराया हो गया देहावसान वाह रे ! क्रोध और मान
00.000
सन्त, देव, ब्राह्मण..." ....ब्राहमण, सन्त, देव...
क्रोध...क्रोध...क्रोध... हिंसा...हिंसा...हिंसा... देनवा क्रोध और हिंसा का प्रपंच देव और मनुष्य से बना डाला तिर्यंच...
चण्डकौशिक ने नखोज लिया दुर्दशा का मूल कारण तत्काल करने लगा उसका निवारण असंव्य प्राणों के हन्ता फन को संभाल लिया
उसे
POODS
सीधे बॉबी में डाल दिया किया संकल्पवेदना अब अधिक हो या अल्प अब किसी को नहीं सतायेगा नहीं डरायेगा अपनी करनी पर पछतायेगा
प्रकाश-पर्व : महावीर /89
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ये फन
अब कभी बाहर नहीं आयेगा
उधर
ग्वाल-बाल
पहुँचे भय लिये दिल में
देख कर आश्चर्य हुए
साँप का शरीर महावीर के चरणों में
और मुँह बिल में !
गाँव वालों से वृत्तान्त कहा गया सुन कर
उन से भी न रहा गया
वे पहुँचे
तब तक जा चुके थे महावीर
उसी तरह पड़ा था सर्प का शरीर
जब सभी आश्वस्त हो गये
कि यह अब किसी को कुछ नहीं कहेगा
यूँ ही
चुपचाप पड़ा रहेगा तो उन्होंने उसे
'नाग देव' मानकर पूजा शुरू कर दी बॉबी के आसपास की जगह
दूध, दही, घी, आदि से भर दी
उनकी गंध से वज्रमुखी चीटियां आने लगीं सर्प को नोचने-काटने-खाने लगीं
असहय वेदना ने उसे
पल-पल आहत किया
पर महावीर के जगाये जागा था वह उसने कभी भूलकर
क्रोध को कष्ट नहीं दिया
हर स्थिति में सम-भाव
हर स्थिति में दया
कर्मों की होती रही निर्जरा
देह विसर्जित कर
वह 'सहस्रार' नामक देवलोक में गया
सचमुच !
साधना की सीप में पलता है
मुक्ति का मोती
ज्ञान की कृपा हो जाये
तो आत्म-कल्याण में देर नहीं होती ।
प्रकाश पर्व : महावीर / 90
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क्षमा ने धारण की देह
साधना महावीर की थी
देवलोक तक प्रकाश-सी प्रसारित हो गई धन्य हआ इन्द्रगुणगान से पर संगमदेव के मन में जागे ईर्ष्या व शंका के विषधर सोचा‘निर्णय तो होना चाहिये देख-परख कर यहव्या कि देवशक्ति को अपमानित करने की ठान लें मनुष्य को यूं ही महान् मान लें'
चल दिया सुविधा-पोषित अकार देवने
कितना मजबूत है महावीर-साधना का आधार ! पहले उसने माता-पिता, भाई-भाभी, पत्नी-पुत्री के करुण क्रन्दन सुनाये सबके मोठाकुल विलाप महावीर को हिला न पाये नाग कालेश-मान शेष न था महावीर के मन में अर्थ तो था इन्द्र के अभिनन्दन में हार गई अप्सलायें मोहित करने आई थी पर कहने लगीं"चलो ! काम-जेता महावीर के गुण गायें !!"
प्रकाश-पर्व : महावीर /91
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TANI
पिन उसने चलाई तेज़ हवा पर महावीर को छू कर वह बन गई कई लोगों की दवा पिर चलाई आधी धूल-भनी काली महावीर धूल के ढेर में लगभग दब गये । पर कौन कहे कि उन्होंने पलकें झपका ली फिर विषैली चीटियों का दल छा गया पूरे शरीर पर केह के रोम-मोम पर यातनाओं का स्याह रंग पर मज़ाल कि ज़रा-भी अंच आई हो
साधक महावीर पर पिर आये मच्छन वे भी हार गये काट-काट कर पिर दीमकों का आक्रमण कराया उनके नीचे छिप गई महावीर की काया फिर बिच्छुओं पिर साँपों फिर हाथियों के प्रहार अंतत: बेकार
अकार अपनी हार यूँ ही नहीं करता स्वीकार संगम पुनः तैयार
प्रकाश-पर्व : महावीर /92
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महावीर गये जहाँ-जहाँ उसने स्वयं को उनका शिष्य प्रचारित किया वहाँ-वहाँ चोरियाँ की लोगों को सताया अपराधों का आदेशदाता महावीर को बताया लोग रोष से भरे उनके पास आये तरह-तरह से भाँति-भाँति के संत्रास पहुँचाये पर महावीर की दृष्टि थी न्यारी उन्होंने संगम को माना कर्म-निर्जरा कराने वाला उपकारी
तोसली में माजप्रासाद के ताले संगम ने तोड़ डाले ताले तोड़ने के शस्त्रों को महावीर के ध्यान-साधना-क्षेत्र में छिपाया गुप्तचरों को बताया
महावीर बना लिये गये बंदी तब भी ज्यों की त्यों रही साधना की बुलटी महावीर से पूछा गया"अपराधी कौन ?" महावीर ध्यानस्थ...मौन पॉसी का आदेश हो गया पल-भर को तो संगम सुखसागर में खो गया
'प्रकाश-पर्व : महावीर /93
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महावीर को
फाँसी के तख्ते पर खड़ा किया गया
गले में फाँसी का फन्दा
डाल कर खींच दिया गया
किसी ने नहीं देखा इधर-उधर
तख्ता हटा
रस्सी टूटी महावीर
ज्यों के त्यों ज़मीन पर
पुनः फाँसी दी गई
परिणाम फिर वही
उन्हें
फाँसी दी गई सात बार पर निराशा का सन्नाटा बरकरार
संगम फिर भी नहीं हुआ हताश उसने अनुकूल व प्रतिकूल परीषहों के नये-नये उपाय किए तलाश
वह
छाया-सा लगा रहा उन के संग-संग तप के पूर्ण होने पर जब कभी आता पारणे का प्रसंग
तो कोई न कोई उपद्रव कर देता
कभी भिक्षु बन स्वयं मांगने आ जाता
कभी देय वस्तु में
सचित वस्तु भर देता
महावीर लौट जाते.
ध्यान व तप की साधना में
पुनः पुनः सार-तत्त्व पाते
प्रकाश पर्व : महावीर / 94
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सार-तत्व पाते
बहुत दिन इसी तरह बीते परन्तु संगम के उपद्रव नहीं जीते
फिर भी उसने हार नहीं मानी
ग्वाले के रूप में
दूध और चावल लाकर खीर बनाने की ठानी
ध्यानस्थ महावीर के पाँवों के पास... बहुत पास लकड़ियाँ जलाने लगा
उन पर बरतन रख रखीर पकाने लगा
त्वचा जलने लगी
माँस जलने लगा
हड्डियाँ सुलगने लगीं देह में व्यापने लगी मर्मांतक पीड़ा
पर साधना की शक्ति के लिये बड़ी से बड़ी यातना भी थी क्रीड़ा
महावीर का मन
न हिलना था, न हिला अनन्त उपसर्ग दिये संगम ने
पर प्रतिध्वनि-स्वरूप कम्पन तक नहीं मिला
प्रकाश पर्व : महावीर / 95
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अन्तत: उसने स्तुति की महावीर-साधना के आधार की अपनी पराजय स्वीकार की माना कि हिंसा का ज्वार जब चढता है तो खूब चढता है पर अहिंसा के सामने उसे झुकना ही पड़ता है संगम जाने से पहले रुका महावीर के चरणों में झुका कहा"मेरे मन में अब न कोई मान है में जान गया
मनुष्य की साधना-शक्ति देव-शक्ति से कहीं ज्यादा महान् है आप धन्य है साधनामृत से अपने व्यक्तित्व को और भनें मेंने बड़े दु:ख दिये हो सके तो मुझे क्षमा करें।"
संगम ने देवापहली बार झलकी महावीर के चेहरे पर पीड़ा की परछाई गोमावलि सिहनी ऑखें तक नम हो आई पूछा"भयानक से भयानक कष्ट में भी आप अडिग रहे अकम्प भाव से जनवार परीषठ सहे अब में पछता रहा हूँ हार मान कर जा रहा हूँ अब आप ऐसा कौन-सा दु:ला पा गये कि जिसकी अंच से आप पिघले और ऑनवों में आँसू आ गये ?"
प्रकाश-पर्व : महावीर /96 For Personal & Private use only
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महावीर ने ठण्डा उच्छ्वास छोड़ा पहली बार अपना दीर्घ मौन तोड़ा"संगम ! तुमने पनीक्षा लेने के चक्कर में अनन्त कर्म बांध लिये हँस-हँस कर पर ये जब उदय में आयेंगे तो तुम्हें सतायेंगे कस-कस कर जब कर्म-फल भोगोगे
तब तुम्हारी सहनशक्ति किस-किस तरह नीतेगी तुम पर क्या-क्या बीतेगी उसी कल्पना-मान से मैं सिहर उठा हूँ गहने कु:नव से भर उठा हूँ!"
संगम ने सुना सिर धुना ग्लान-म्लान चित्त वह सोच रहा थाप्रायश्चित्त प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /97
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मनुष्यता का सम्मान है नारी
जो हुआ
अवश्यम्भावी था
वत्स देश के राजा शतानीक पर ज़र जोरू जमीन का लालच हावी था उसने अंग देश के राजा दधिवाहन पर हमला कर दिया
उसकी राजधानी चम्पा को
रक्तपात और लूटपाट से भर दिया
shaw
Tag
शतानीक विजयी हो गया
पराजित दधिवाहन
प्राण बचा कर न जाने कहाँ खो गया
रूप के लोभी एक रथी ने
लूटपाट करते हुए दधिवाहन की
पत्नी धारिणी व पुत्री वसुमती को देखा हृदय पर निवची वासना की रेखा उसने ताड़ा मौका
दोनों को
चिकनी-चुपड़ी बातों से दिया धोखा अपने रथ में बैठाकर ले चला
बीच जंगल में जाकर रोका
प्रकट कर दिया मन का पाप कहा
"मेरे हृदय देश की रानी बनें आप "
सतीत्व की प्रतिमूर्ति थी धारिणी रानी
उसने रथी की बात
किसी कीमत पर न मानी
उसे लम्पटता का एक भी अवसर न दिया
प्रकाश-पर्व: महावीर / 98
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Page #120
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अपनी जीभ नवींचकर स्वयं ही प्राणों का अन्त कर लिया बेटी को दिनवा दी नाह वसुमती ने भी निश्चय कियासतीत्व-रक्षा हेतु प्राणों की भी नहीं परवाह
माँ की साठ वह चलने लगी जैसे ही डने हर रथी ने उसे रोक लिया वैसे ही वह समझा गया था सतीत्व का अर्थ उसने कहा-“बहिन ! तुम्हासा भय है व्यर्थ मानी के प्राण तो मैं नहीं लौटा सकता पर तुम्हें अब कुछ नहीं पड़ेगा सहना
मेरे घर तुम बहिन के पद पर रहना ।”
पनन्तु वसुमती यहाँ भी गई ठगी उसे देनव रथी की पत्नी भड़कने लगी कहा-“इसी क्षण बाजार जाओ इसे बेच कर धन लाओ वरना कभी मत दिनवाना सूरत हमें स्त्री की नहीं हमें तो है धन की जरूरत"
रथी उसे ले गया बाज़ार वहाँ हो नहा था स्त्रियों का व्यापार देव कर उनका क्रय-विक्रय वस्तु के समान वसुमती परेशान कौशाम्बी की गणिका महिषी को
प्रकाश-पर्व : महावीर /99
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वह देनवते ही भा गई रथी से बात की
और उसे एक लानव स्वर्ण-मुटायें थमा गई उसे पाकन वह निहाल वसुमती ने किया सवाल “मुझे तो दासी का काम भी नहीं आता आपके घर क्या करना होगा माता ?"
गणिका बोली"वहाँ तुम सुनव से रहना तन कन नित्य अनेक पुरुष तुम पन न्यौछावन होंगे अमन बन कर"
बलात् घसीटे जाने पर वसुमती ने शोर मचाया तभी वहाँ कोट्याधिपति धनावह अया सुन कर वह करुण पुकार उसके हृदय में हाहाकार
उसने गणिका से कहा"इस बालिका को छोड़ दें आप और पुण्य कमायें” गणिका तमक कन बोली"मेनी एक लानव स्वर्ण मुढ़ायें ?"
NDORON
धनावह ने मुद्राओं-भना थैला गणिका को थमाया वसुमती को बचाया कहा"मैं अपने नि:सन्तान होने को रोता था मुझे क्या पता थाएक दिन में भी वात्सल्य से भर जाऊँगा तेरे जैसी सुशील बिटिया पाऊँगा"
प्रकाश-पर्व : महावीर /100
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Page #122
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वसुमती ने बड़े कष्ट उठाये पर ऐसा स्नेह पाकर असू उमड़ आये सतीत्व की यूँ बनी बात वह सिर झुकाये चल दी पिता के साथ
घर पहुंची तब भी ऑनवों में तैर रहा था पानी उसे देनव प्रसन्न हुई मूला सेठानी
वसुमती शील की देवी नम्रता का प्रतिरूप मधुरता की प्रतिमा गुणों का अथाह कूप सेवा की सुरभि ऐसी जैसे मुगळ्ध बसी हो चन्दन में 'इसे कहेंगे चन्दना' दोनों ने सोचा मन में
चन्दना वहीं रहने लगी बड़े असमानों से धनावह को पिता और मूला को माँ कहने लगी
एक दिन मूला के मन में विचार जगा
स्वार्थ
मस्तिष्क में घुस कर सोचने लगा'यह तो ठीक है
प्रकाश-पर्व : महावीर /101
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Page #123
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कि हमें मिल गई सन्तान पर एक तो लड़की ऊपर से सुन्दन और जवान जाने कब यह मेसी नवुशियाँ बीन ले मेरे पति को पुसलाकर मुड़ा से छीन लें
एक दिन धनावह बाहर से आये चन्दना ने उनके हाथ धुलाये तभी मुंह पर आ पड़े उसके लम्बे बाल सेठ ने उन्हें सम्भाला और उसकी पीठ पर रख दिया तत्काल मूला ने देवा यह दृश्य ईर्ष्या बोली उसके भीतर से'मैं इसे बनाकर छोडूंगी अस्पृश्य यह चन्दना नहीं अंगना बनने की ताक में है यह कुलटा यहा रही तो मेरा सौभाग्य राव में है
सेठ तीन दिन के लिये बाहर गया एक बार सेठानी तो खाये बैठी थी सवार उसने चन्दना के हाथ-पाँव हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़े लम्बे-लम्बे बाल निर्ममता से पकड़े और काट दिये एक कपड़ा छोड़ा शेष सब वस्त्र-आभूषण उतार लिये अपशब्दों का गन्द उस पर उड़ेल दिया तलवर की अधेरी गुफा में उसे धकेल दिया नाला लगाया और पीहर चली गई
प्रकाश-पर्व : महावीर /102
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Page #124
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चन्दना एक बार फिर छली गई
तीन दिन तीन रात भूख-प्यास-वेदना नही उसके साथ तब सेठ घर आया सामान उतारा चठदना बिटिया को पुकारा कहीं से न पाया कोई उत्तर कोशिश करने पर सुनाई दिया धीमा-धीमा एक स्वर“मैं यहाँ हूं पिता जी तलघर के भीतर"
सेठ ने ताला नवोला बिटिया की दुर्दशा देनव हृदय डोला सागरा धैर्य पल-भर में खोया
फूट-फूट कर सोया चन्दना ने चुप कराया कहा“पिता जी ! तीन दिन से कुछ नहीं नवाया कुछ खाने को दो भूनव के पंजे से जान छूटे यह आर्त ध्यान टूटे'
जिस घर में टूटता नहीं था दान का सिलसिला उसी घर मे अपनी बेटी के लिये सेठ को उड़द के बाकुलों के अलावा कुछ नहीं मिला सूप में समय कर वही दिये कहा-“मैं लुहार बुलाता हूँ तेरे बंधन काटने के लिये" चन्दना को प्यास लगती थी
प्रकाश-पर्व : महावीर /103
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Page #125
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तो दौड़ पड़ते थे दास-दासी आज वही देहरी पर बैठी देव नही थी उड़द के बाकुले और वे भी बासी
उधर
तपरत महावीर को आहार देने के लिये प्रतीक्षाओं के अनेक घट गीत गये थे अभिग्रह ऐसा था कि मुंठ की ओर हाथ बढाये पाँच महीने पच्चीस दिन बीत गये थे
प्रकाश-पर्व : महावीर /104
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Page #126
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उन्होंने संकल्प लिया था
अभिग्रह किया था
'यदि हो कोई अविवाहित राजकुमारी
बेकसूर और सदाचारी
बन्दी - अवस्था में पड़ी हो
पाँवों में बेड़ी
हाथों में हथकड़ी हो
सिर मुण्डा हुआ हो
रोटी-पानी को तीन दिन से न छुआ हो सूप में लिये हो
उड़द के बाकुलों का आहार
एक पाँव देहरी के भीतर
एक बाहर रनवे कर रही हो इन्तज़ार
चेहरे पर खुशी के भाव रखने हों
और आँखों में आँसू भरे हों
इन तेरह सयोगों को जब देखूंगा एक साथ तभी भिक्षा के लिये फैलाऊँगा हाथ
अन्यथा रचता रहूगा
तप के अखण्ड अध्याय देह रहे या जाय'
इस अभिग्रह में
एक सन्देश साफ़ था
महावीर का तप
नारी को भोग्य सामग्री मानने के खिलाफ़ था
'नानी मनुष्यता का सम्मान है
ऐसा था उनका विचार
उन्हें
पारणा नहीं करना था
उन्हें तो करना था
किसी घोन दुर्दशाग्रस्त नानी का उद्धार
महापुरुषों का एक-एक कर्म
भावी समाज-रचना के बीज बोता है
उनका पलकें झपकाना
और साँस लेना तक उर्वर होता है।
प्रकाश पर्व : महावीर / 105
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महावीर
असम्भव से परिग्रह को सम्भव करने चले चन्दना जहाँ बैठी थी
वहीं आ निकले
महावीर को देख
चन्दना खुशी से खड़ी हो गई
उसे लगा
वह खुद से बड़ी हो गई जिसे जमाने भर ने दुत्काना है
उसे महावीर ने सत्कारा है।
वे उसके द्वार तक आयेंगे रोम-रोम में स्वागत की उमंगें
चेहरे पर अरसे बाद खुशी की तरंगे
महावीर ने देखा -
के
असंभव के संभव होने की सम्भावना
यहीं है
पर इसकी
आँखों में आँसू नहीं हैं,
वापिस मुड़ गये महावीर चन्दना अधीर
मन अपने को अभागा कह चला हृदय का समस्त धैर्य
हिचकियों की लहनों के साथ
पलकों के कूल-किनारे तोड़ता बहु चला
महावीर एक बार फिर चन्दना की ओर मुड़े
चन्दना के धधकते नेत्र
पुनः शीतलता से जा जुड़े जो असम्भव लगता था
प्रकाश-पर्व: महावीर / 106
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वही घट गया अभिग्रह पूर्ण हुआ कुहासा छंट गया महावीर ने असे बाद करपान बढ़ाया. मनुष्य तो मनुष्य पशु-पक्षियों और देवी-देवताओं के नयनों में भी हर्ष भन अया चन्दना ने अठार नहीं दिया अपने हाथों से अपनी सबसे बड़े खुशी छुई धनाक के घर देवों द्वारा रत्नों की बारिश हुई चन्दना का भर गया निक्त मन 'अहो दान...अहो छान के घोष से गूजने लगे धरती-गगन साने के माने दुःनव छूट गये हथकड़े-बेड़ियों के बंधन तड़तड़तड़तड़
खुद टूट गये
अंधविश्वासों की...नामी-दुर्दशा की यह टूटन धर्म से पावनता से युक्त हुई वस्तुत: चन्दना के रूप में नानी-जाति पराधीनता से मुक्त हुई
अब तो चन्दना को सबने पहचाना सबने सम्मान दिया पर उसने महावीर की ही अनुगामिनी होने का निश्चय किया
धन्य वह तप धव्य वह क्षण धन्य वह चन्दना जो मष्ठावीर के चरणों में हो गई वन्दना
केवल वन्दना ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /107
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साधना-ग्रंथ
और उपसर्ग का अंतिम अध्याय
अनेक उपसर्ग आये
महावीर की चट्टानी साधना से
लहनों की तरह
टकराये और लौट गये होकर हताश
जारी नही
जारी रही केवल ज्ञान की तलाश
होने ही वाला था
तलाश का पूर्णविराम
महावीर आये छम्माणि ग्राम
साधना में वो गये
ध्यानलीन
गये
उजला
और उजला होता गया ज्ञान
तभी अपने बैलों के साथ गुजरा
वहाँ से एक किसान
वह भी
महावीर को ध्यान रखने के लिये कहकर
बैल छोड़ गया
साधना ग्रंथ में
उपसर्ग का अन्तिम अध्याय जोड़ गया
लौटा तो बैल नहीं थे वहाँ
पूछा - "आखिर वे गये कहाँ ?"
उसने पूछा बार-बार
महावीर का मौन
ज्यों का त्यो बरक़नार !
उत्तर न पाकर क्रोध भड़कने लगा
वह बिजलियों की तरह कड़कने लगा
"मैं पूछे जा रहा हूँ
तू कुछ नहीं बताता है
पर मुझे तो गूंगों से भी बुलवाना आता है।
बहरा है क्या
कान बन्द हैं तेरे ?
अभी खोलता हूँ जना हाथ देख मेरे"
प्रकाश-पर्व: महावीर / 108
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बुद्धि कहाँ होती है
ध के दीवानों में वह लकड़ के दो लम्बे-नुकीले टुकड़े ले अया ओर एक-एक कर ठोकने लगा महावीर के कानों में हथौड़े के साथ-साथ घोर यातना का क्रम चल रहा था पर धन्य है महावन का ध्यान उसे कुछ भी नहीं नवल रहा था
कितना केन्द्रित और घनीभूत था वह ध्यान उनसे दून नह कैसे लेता केवल ज्ञान !
किसान कानों में कीलें ठोक कर चला गया उसका हृदय जना भी नहीं डोला कुछ समय बाद महावीर ने ध्यान नवोला तप के पारणे के लिये गये जिनभक्त सिद्धार्थ के घर उसी समय खनक नामक वेध भी था वहीं पर उसके शमीन व अकृति-विज्ञान ने बतायाकिसी भयानक शल्य से आहत है यह तेजस्वी काया
पारणे के पश्चात् सिद्धार्थ और नवरक औषधि अदि लेकन महावीर के पीछे-पीछे चल दिये साथ-साथ
महावीर ने ध्यान लगाया उद्यान में
प्रकाश-पर्व : महावीर /109
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खरक ने जाँच की
पाया
कीलें ठोंकी गई कान में
चिमटी से
दोनों को निकाला रह-रह कर
कीलो के साथ
खून भी निकलने लगा बह-बह कर
कीलें जितनी लम्बी थी
उतनी ही कड़ी
उनके बाहर निकलते ही रक्त की धाराये चल पड़ी
प्रकाश पर्व: महावीर / 110
इस सहनशीलता के चरणों में खरक भी झुका
औषधि का लेप किया
रक्त रुका
बस !
यही था अन्तिम उपसर्ग
इसके बाद समस्त कष्ट वो गये
जन्म-मरण और सुख-दुःख देने वाले सभी कर्म
मूलतः अशेष हो गये
अंतत्रो से
महावीर रहे थे विलोक
बस !
अब प्रकट होने ही वाला है।
पूर्ण ज्ञान का आलोक आलोक !
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ज्ञान: केवलज्ञान
प्रकाश पर्व : महावीर / 111
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पूर्णत्व का परम शिरवर
सब अपने होने पर सार्थक हुए
भक ग्राम का सीमान्त प्रदेश श्यामक कृषक का नवेत शाल वृक्ष की छाँव ऋजुबालुका नदी का तीन वैशानव शुक्ला दशमी का दिवस
गोठासन में ध्यानस्थ महावीर पाँचों जनेद्रियों पर पूना बस सब कुछ पूर्णता के लक्ष्य से संबद्ध अन्तिम संकल्पअब अन्य कोई संकल्प नहीं करना पूर्णता मिलने तक इसी ध्यान में जीना-मलना
ज्ञान स्वयबुद्ध अंत:करण पूर्णत: विशुद्ध न महावन न सम्मति न वर्धमान ध्यान केवल शुक्ल ध्यान शुक्ल ध्यान शुक्ल ध्यान
अकाश का सूर्य होने चला अत मनुष्यता का सूर्य होने चला उदय चार धातिक कर्मे का
मूलत: क्षय
जन्म-जन्मांतर के कर्म नष्ट अत्मा निर्मळतम चर-अचर जग हस्तामलकवत् स्पष्ट
प्रकाश-पर्व : महावीर /113
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बळ अनों से भी तीनों काल तीनों लोकों का दर्शन केवल दर्शन केवल ज्ञन केवल ज्ञन केवल ज्ञान का अलोक-वर्षण
साधना की तलाश केवल ज्ञन असीम प्रकाश
देवों द्वारा केवल्य महोत्सव अभिनळदन
धव्य हुआ जग पूर्णता के परम शिनवर को कर अनन्त वचन अनन्त वळन
अनन्त वन्दन !
महावीर औरों के
पहले स्वय पूर्णता से भरे भगवान् पिन अपूर्णता को मुक्त-हस्त से बाँटा पूर्णता का ज्ञन
महावीर थे और थी पूर्णता की अभवण्ड लय पावा नगरी धार्मिक गतिविधियों का केक थी उस समय बन कर सैकड़ें सूर्यो के उजियाने प्रभु वहीं पधारे
प्रकाश-पर्व : महावीर / 114
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देवताओं ने दिव्य समवशरण रचाया प्रभु को सुनने
बच्चा-बच्चा अया
ब्राहमण तो
उसी समय सोमिल ब्राहमण ने वहाँ एक विशाल यज्ञ का अयोजन किया था। इन्द्रभूति गौतम प्रभृति व्यानह उभट विद्वानों को उनके चार हजार चार सौ शिष्यों सहित निमन्त्रण दिया था
यज्ञ में लालवों के शामिल होने की थी अशा परन्तु साक्षात् ज्ञान-रूप महावीर की प्रथम देशना के कारण क बन गई निनाशा
सभी दिशाओं से उमड़ते जनसमूह समवशरण की ओर जाने लगे देवताओं के विमान स्वयं को एक-दूसने से टकराने से बचाने लगे आकाश से दिव्य पुष्प-वृष्टि होने लगी व्यापक धर्म-प्रभावना की सृष्टि होने लगी इन्द्रभूति गौतम ने भी देलवा चमत्कार उठे लगा'यह तो हमारे अस्तित्व को चुनौती है इसे करना ही होगा स्वीकार वैदिक संस्कृति के प्रति जन-जन में नया विश्वास भरना होगा महावीर को शास्त्रार्थ में पराजित करना होगा तभी पड़ेगा कुछ पर्क हमारे पास तो असनव्य हैं तर्क लगता हैमहावीर ने सम्मोहिनी विढ्या का प्रयोग कर दिया
प्रकाश-पर्व : महावीर /115
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और अपार जनसमूह को अकर्षित कर लिया जनता कोगी सत्य का सत्कार जब वह शास्त्रार्थ में जायेगा हार
NEIRD
सोचते हुए इछाभूति गौतम अदि विछान् चल दिये महासेन उद्यान जैसे-जैसे उद्यान अता गया पास वैसे-वैसे होता चला गया संशय का हास समवशरण को देलवा तो धुंधली पड़ गई आत्मविश्वास की सेवा प्रभु के दर्शन किये
तो तर्कों का जंजाल नवो गया अनुभूत ज्ञान के सम्मुसव पोथियों का ज्ञान व्यर्थ हो गया वह सब मिट गया जो मन में ठाना था
d
प्रभु की वाणी गूजी"तुम आ गये गौतम ! तुम्हें तो आ ही जाना था ।"
एक ओर ज्ञान-वाणी की अतुलनीय मिठास दूसनी अर शुष्क बौद्धिकता का नीलम विलास गौतम मिठास की धारा में बह गये कुछ समय के लिये अवाक् रह गये
प्रकाश-पर्व : महावीर /116
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पुनः परमाया प्रभु ने"अच्छा हुआ तुम शीघ्र आ गये यहीं तुम्हारे मन में बरसों से एक प्रश्न हैआत्मा का अस्तित्व सचमुच होता मी है या नहीं ?"
सुनकर गौतम स्तब्ध कमी किसी से न कहा गया अतरतम का प्रश्न महावीर को सहजता से उपलब्ध ! यह मनुष्य नीं यह तो है साक्षात् ज्ञन
प्रभु ने चुटकियों में कर दिया उस प्रश्न का समाधान गौतम चकित मोम-मोम पुलकित कर लिया निश्चय अब तो महावीर में ही कर देना है स्वयं को विलय
यही हुआ अन्य सभी विद्वानों के साथ सरलता से ईंट गई अकान की बात अब कोई नहीं था शब्द-जाल से गर्वित व्यानठों विद्वान् चार हजार चार सो शिष्यों सहित प्रभु चरणों में समर्पित
मन में साधना का प्रण धन इस तरह पहुंचे प्रभु के पास उनके ग्यारह गणधर
चन्दनबाला अक्षय-अनन्त सुनव हुई
उनके साध्वी-संघ की प्रमुभव हुई
प्रकाश-पर्व : महावीर /117
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धर्म की अगामी सुव्यवस्था के प्रभु ने चार बनाये ॐा भ्रमण, श्रमणी, श्रवक श्रविका संघ उनके धर्म-संध में जाति, वर्ग, अयु और सम्बन्ध जैसे विभाजन निस्सार थे साधना की अवधि और तप-त्याग ही न्यूनाधिक सम्मान के अधार थे प्रभु ने वेदनाओं को हर्ष और पतन को उत्कर्ष बनाया धर्म-दृष्टि के पैमाने से सिनवाया पाप-पुण्य को मापना तीर्थकर महावीर ने की धर्म-संघ-तीर्थ की स्थापना जिसके अलोक से धन्य है अज सम्पूर्ण समाज
समी
समवशरण में प्रभु-वाणी सुनने लगे अनुभव-सिद्ध-ज्ञान प्रभु-कथन को गुनने लगे
प्रभु मार्थकता के मोती बिनवना रहे थे अपने मुमवारविक से परमा रहे थे"भव्य जीवो ! अपनी उम्र मत बिताओ अज्ञान की कगाह में तुम्हारे लिये धर्म ही एकमात्र शरण है जन्म-जना और मरण के केगवान् प्रवाह में तुम्हें सुनव-दुःनव का मूल नवोना है समझ लो ! ज्ञानी होने का अर्थ अहिंसक होना है।
प्रकाश-पर्व : महावीर /118
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हिंसा और अहिंसा की तराजू पर ही ज्ञान और अज्ञान को तोलो दूसों को कु-सव देने वाला कठोर सत्य भी मत बोलो।
बीता हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता
जीव
मनुष्य-जन्म बार-बार नहीं पाता कुशा की नोक पर रहने वाले अस-बिकु के समान यह जीवन भी है अल्प शीधातिशीघ्र को धर्म का संकल्प ।
देलवो ! क्रोध, प्रीति की लय का अकान, विनय का मित्रता का, माया
और सभी सद्गुणों का, लोभ की छाया विनाश कर देती है तन-मन-जीवन में पाप भर देती है।
संसार के वदन-पूजन का काँटा बहुत सूक्ष्म है बड़ कठिनाई से निकलता है सावधान ! इस कीचड़ में पड़ साधक असानी से नहीं सम्भलता है।
यह पृथ्वी धन-धान्य-सम्पदा से पूर्णत: परिपुष्ट स्वयं समर्पित होकर भी नहीं कर सकती लोमीको सन्तुष्ट, भोग पतन की अनन्त गहराइयों तक ले जाता है केवल संयम है जो सच्चा अनळ दे पाता है।
काम-भोग अतृप्ति के कहन है अमृत के वास्ते भी जहर है भोगों की लालसा नवने वाले प्राणी
AM
प्रकाश-पर्व : महावीर /119
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केवल प्यास पाते हैं दुर्गति को प्राप्त होते हैं प्यासे ही मर जाते हैं
गीत सब विलाप है नाट्य सब विडम्बना अर अभरण सबभार संसार के सब काम-भोग टुरवावह हैं इळे छोड़ने को नसो तैयार ।
मृत्यु का शेर प्राणों के हिरण को अ समय उठा ले जाता है तब सगे से सगा सम्बन्धी भी किसी का साथ नहीं दे पाता है संसार मेला है मनुष्य मूलतः और अन्तत: अकेला है।
संसार-रुपी कफ (श्लेष्म) में फंसते हैं अत्मा ही नरक की वैतरणी नदी और कूट शाल्मलि वृक्ष की चुभन है आत्मा ही स्वर्ग की कामदुधा धेनु (गो) तथा नछन-वन है
अत्मा का कल्याण सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चानिन्न से सधेगा जीव यदि विवेक से चले विवेक से नखड़ा हो विवेक से बैठे विवेक से सोचे विवेक से भोजन को और विवेक से ही बोले तो पाप कर्म नहीं बंधेगा
काम-भोगों को सर्वस्व मान कर चरवते है हँसते हैं, वे जीव मक्नवी की तरह
कोई कितना ही कठोर तप को परन्तु यदि वह मायावी बन छलेगा तो उसे त्रास अर्थात पुन:-पुनः गर्भवास प्राप्त होगा
प्रकाश-पर्व : महावीर /120
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सुबह-शाम नहाने से यदि मोक्ष पाते तो पानी के सभी जीव मुक्त हो जाते ।
पानी से पाप धोने जैसे सिद्धान्तों से मुक्ति के द्वार नहीं खुलते पानी यदि पाप धो सकता तो पुण्य भी धुलते।
कोई भ्रमण नहीं होता सिर मुण्डा लेने से कोई नहीं होता ब्राहमण 'अइम्' को रट-रटा लेने से
कोई मुनि नहीं होता निर्जन वन को घर बना लेने से कोई नहीं होता तपस्वी तन पर कुशा के वस्त्र सजा लेने से ।
प्रकाश-पर्व : महावीर /121
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काम-द्रोथ-मान-माया-लोभ व संसार का त्यागी ज्ञानी पुरुषों के अप्त वचनों में अनुनागी भिक्षु कहलाता है मुठित पाता है।
शमीर नाव है जीव नाविक है और समुह है संसान इसे महर्षिजन करते हैं पार "
प्रकाश-पर्व : महावीर /122
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प्रक
जगह-जगह घूम-घूम कर करते रहे धर्म-चक्र-प्रवर्तन तीस वर्ष तक देते रहे जन-जन को हितकारी शिक्षाये
उनके धर्म-संध में थेचौक हज़ार साधु छत्तीस हजार साध्वियों एक लानव उठसठ हज़ार श्रवक और तीन लालव अठारह हज़ार श्रविकाये प्रभु पाद प्रणति से अमृत बोध को पायें ॥
प्रकाश-पर्व : महावीर /123
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IIIIIIIIIII/
निर्वाणोत्सव
प्रकाश-पर्व : महावीर /125
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देह से देहातीत प्रभु जिये इसलिये कि भेल-भाव, अधर्म और मिथ्यात्व के घेरे से जीव निकले उन्हें सत्य का बोध प्राप्त हो धनती से सारे समुद्र सूनवे तो दुनिया को मष्ठावीर का दिया समाप्त हो प्रभु की देन अब भी है असनव्य चेतनाओं के पास पावापुरी में था शासनपति भ्रमण भगवान् महावीर का अन्तिम वर्षावास
शीतलता का नीर थे समझ गये-वर्तमान और अगामी जीवों की ज्ञान-पिपासा
वहाँ
विधिवत् किसी ने नहीं की जिज्ञासा पर प्रभु तो
वह शान्त की सोलह प्रन तक निरन्तर धर्म की विनासत वाचना प्रदान की फिर अन्तिम उत्तर अध्ययन कहा जिसमें छत्तीस विराम अनन्त काल तक अयेगी वह भव्य जीवा के काम
कहते-कहते वे मौन हो गये असीम समाधि में खो गये नष्ट हुआ शेष चार अधाति कर्मों का संयोग मन-वचन-काय का योग हो गया अयोग
प्रकाश-पर्व : महावीर /127
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कार्तिक अमावस्या का सघन उधकार
क से देहातीत साकार से निसाकार
भगवान् महावीर ने अज्ञान व कर्मों के अन्धकान मिटाये इसलिये देवों ने उन के परिनिर्वाण की महिमा में प्रकाशमान रत्न वे मनुष्यों ने दीपक जलाये
उस महापुरुष का परिनिर्वाण भी प्रकाश का महोत्सव बनकर रहा इसे जन-जन ने 'दीपावली' कहा
हम सबके उधकार का भी क्षय हो जय हो भगवान् महावीर की जय हो।
प्रकाश-पर्व : महावीर /128 For Personal & Private Use Only
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________________ जैन साहित्य डॉ. राजेन्द्र मुनि : उत्तराध्ययन सूत्र 1100.00 1500.00 600.00 300.00 200.00 डॉ. राजेन्द्र मुनि : जीवाजीवाभिगम सूत्र | डॉ. राजेन्द्र मुनि : जैनधर्म : एक अनुशीलन डॉ. राजेन्द्र मुनि : जैनधर्म : एक संक्षिप्त इतिहास डॉ. राजेन्द्र मुनि : जैनधर्म : तत्त्वविद्या एक अनुचिन्तन डॉ. राजेन्द्र मुनि : जैनधर्म : आचार और संस्कृति डॉ. राजेन्द्र मुनि : जैन चौबीस तीर्थंकर 'डॉ. राजेन्द्र मुनि : जैन साहित्य में श्रीकृष्ण आचार्य देवेन्द्र मुनि : कर्म विज्ञान - 9 भागों में 150.00 250.00 6000.00 आचार्य देवेन्द्र मुनि : जैन दर्शन-एक विश्लेषण 800.00 आचार्य देवेन्द्र मुनि : विचार और दर्शन 350.00 आचार्य देवेन्द्र मुनि : ब्रह्मचर्य-एक वैज्ञानिक विश्लेषण 600.00 800.00 आचार्य देवेन्द्र मुनि : सुभद्र मुनि धर्म और जीवन तीर्थंकर महावीर 500.00 कल्याण सागरजी महामत्र का 100.00 Serving Jin Shasan LINITIO: 5430517 यूनिवर्सिटी पाब्लकेशन 123499 gyanmandirkobatirth.org प्रकाशक एव वितरक बी-137, कर्म पुरा, नई दिल्ली -110015 For Personal & Private Use Only