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________________ भगवान् महावीर : एक विचार “ अप्पणो णामं एगे पत्तियं करेइ, णो परस्स । परस्स णामं एगे पत्तियं करेइ, णो अप्पणो । एगे अप्पणो पत्तियं करेइ, परस्स वि । एगे णो अप्पणो पत्तियं करेइ, णो परस्स ।” अर्थात् इस संसार में कुछ मुनष्य केवल अपना भला करते हैं, दूसरों का नहीं। कुछ अपना भला न करते हुए भी दूसरों का भला करते हैं। कुछ, अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी । कुछ ऐसे होते हैं जो न अपना भला करते हैं और न ही दूसरों का । चारों ओर देखें तो चारों ही प्रकार के मनुष्य न्यूनाधिक संख्या में दृष्टिगत होते हैं । दृष्टिगत यह भी होता है कि ऐसे लोग अपेक्षाकृत अधिक होते जा रहे हैं जो या तो केवल अपना भला चाहते हैं और या फिर किसी का भी नहीं। आत्मकेन्द्रित स्वार्थ एक विराट् दैत्य के समान नैतिक मूल्यों को निगलता जा रहा है। विचारणीय तथ्य यह है कि नैतिकता की बड़े पैमाने पर हो रही इस हिंसा से बहुत कम मनुष्य विचलित होते हैं। अधिकतर लोग ज्ञात-अज्ञात रूप से इस हिंसा को उचित मानने लगे हैं। नैतिकता की याद उन्हें प्रायः उसी समय आती है जिस समय उनके आत्मकेन्द्रित स्वार्थ खतरे में पड़ते हैं । कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो आत्मकेन्द्रित स्वार्थ के दैत्य को उचित ठहराते हैं । उसके पक्ष में तर्क-वितर्क करते हैं । उसका सम्मान करते हैं । उसकी पूजा करते हैं । Jain Education International - सुभद्र मुनि अकारण नहीं है कि देश के आकाश पर छोटे-बड़े अग्नि- वर्षी बादलों की तरह इतने पाप छा गये हैं कि उनकी सही-सही संख्या भी अधिकांश लोग भूल चुके हैं। ऐसे में याद आती है प्रभु की यह देशना, "सद्गृहस्थ सदा धर्मानुकूल ही अपनी आजीविका करते हैं,” ऐसे में याद आता है कि प्रभूत सम्पत्ति के स्वामी होते हुए भी प्रभु ने उसका अंतिम रूप से त्याग करने से पूर्व ‘वर्षीदान' के रूप में उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया था। दूसरों की दरिद्रता से उपजती पीड़ा अपने रोम-रोम में अनुभव करते हुए वे दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक निरन्तर प्रतिदिन एक करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्रायें बांटते रहे । एक वर्ष की कालावधि में उन्होंने तीन अरब अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान किया। क्यों किया? जिन स्वर्ण मुद्राओं के लिये युद्ध होते रहे, रक्तपात होता रहा, अपराध होते रहे, असंख्य मनुष्यों के जीवन समाप्त होते रहे, नैतिकता नीलाम होती रही, उन्हीं को प्रभु ने सूखी घास की तरह बांट दिया। उनका तिनके की तरह त्याग कर दिया। क्या कारण था इसका ? कारण यह था कि उन्होंने सम्पत्ति का चरित्र पूरी तरह जान लिया था । वे समझ गये थे कि “धान्यों, सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त करने में असमर्थ है।" वर्तमान युग का अधिकांश भाग इस सत्य को समझते हुए भी नहीं समझता, यह इसका दुर्भाग्य है। इसी का परिणाम है कि मनुष्य समाप्त हो जाता है परन्तु धन सम्पत्ति के लिये निरन्तर बढ़ती उसकी लालसा समाप्त नहीं होती । इस लालसा की दासता स्वीकार कर वह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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