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________________ कालजयी महावीर को हिला नहीं पाया यक्ष का क्रोध और भी जगा वह नुकीले नाखूनों और दाँतों से महावीर को काटने-नोंचने लगा महावीर अचल क्रोध का और बढ़ा बल उसने हाथी बनकर उन्हें सूंड में लपेटा पाँवों तले कुचला इस से भी काम नहीं चला उसने सिंह का रूप लिया तीनवे दाँतों व नामवूनों से अग-प्रत्यंग घायल किया सर्प-बिच्छू बन कर मारे असनव्य विषैल डंक महावीर अडोल निश्शंक उसका हर वार बेकार गया क्षमा मूर्तिमान हुई तो उसके सामने क्रोध हान गया तब महावीर ने ठोठ नवोले करुणा-सिक्त स्वर में बोले"भव्यमन ! सत्य को जानो अपने-आप को पहचानो वेन से नहीं धुलते वेन के दाग आग से और भड़कती है आग मैत्री के जल से वैर की आग बुझाओ दूसनों को अभय छो प्रकाश-पर्व : महावीर /77 Jain Education international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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