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अग्नि शांत होगी। अमृत बांटो, अमृत पाओ।" यक्ष ने इसे अपने जीवन का मंत्र बना लिया और वह करुणामूर्ति बन गया।
महावीर आगे बढ़े। कनखल से श्वेताम्बी जाने वाले छोटे मार्ग पर उत्तर वाचाला वन में रहने वाले दुर्दात सर्प चण्डकौशिक के विषय में सावधान किए जाने पर उनके मन में सर्प के प्रति वात्सल्य उमड़ आया। वे सर्प की बांबी पर पहुंच कर ध्यानस्थ हो गए। सर्प ने उनके पांवों में डंक मारा तो रक्त के स्थान पर दुग्ध-धारा बह निकली। उन्होंने सर्प को आत्म-ज्ञान दिया तो सर्प अहिंसा का उपासक बन गया । विषधर को ज्ञानामृत बना कर महावीर और आगे बढ़ चले ।
महावीर के चरण चिन्ह देखकर एक सामुद्रिक ने अपने ज्ञान से समझा कि ये किसी चक्रवर्ती के चरण हैं। वह उनका अनुकरण करते हुए आगे बढ़ा तो अपने सामने एक भिक्षु को पाया। मन में ज्योतिष शास्त्र पर सन्देह उगने लगा तो एक दिव्य वाणी ने उसे बताया कि ये चक्रवर्तियों के चक्रवर्ती के चिन्ह हैं। वह महावीर की चरण वंदना कर लौटने ही वाला था कि दृष्टि एक चरण चिन्ह पर पड़ी, जिसमें कुछ चमक रहा था। वह एक रत्न के रूप में अक्षय निधि थी । उसका दारिद्रय धुल गया ।
राजगृह के उपनगर नालंदा की एक तन्तुवायशाला ( कपड़ा बुनने का स्थान) में महावीर ठहरे। गोशालक नामक एक उद्दण्ड युवक भिक्षु भी आ ठहरा, जिसने स्वयं को उनका शिष्य प्रचारित कर दिया। महावीर कर्मग्राम पहुंचे। वहां एक जटाधारी तापस तप कर रहा था, जिसकी जटाओं से जूएं निकल कर पृथ्वी पर गिर रही थीं और उनके प्राण बचाने के लिए वह उन्हें पुनः अपने सिर में रख रहा था । गोशालक ने बारम्बार तापस का उपहास किया तो तापस ने उस पर तेजोलेश्या का प्रयोग कर दिया, जिसकी दाहक पीड़ा से वह चीत्कार कर उठा । करुणार्द्र महावीर ने उसे शीतल लेश्या के प्रयोग से बचाकर अपनी करुणा को साक्षात् किया।
की निरन्तर साधना ने दस वर्ष की अवधि स्पर्श की । इन्द्र को कहना पड़ा, “आज देव-शक्ति भगवान् की मनुष्य तप शक्ति के आगे नतमाथ है।" संगम नामक देव इसे देव शक्ति का अपमान समझ 'तप शक्ति' की परीक्षा लेने पहुंचा। तेज हवा, आंधी, धूल-वृष्टि, तूफान का उपयोग किया। महावीर की ध्यानलीन निर्निमेष दृष्टि की पलकें तक नहीं झपकीं। विषैली चींटियां उनकी देह के रोम-रोम पर आक्रमण करने लगीं । महावीर अकम्पित रहे। मच्छरों के दंश प्रयुक्त हुए। महावीर अडिग रहे। उनकी समूची देह को दीमकों की बांबी बना दिया गया। महावीर ध्यानस्थ रहे। बिच्छू-दंश, सर्प दंश और गज-दंत के प्रहार हुए। महावीर अडोल रहे। जंगली हाथी ने उन्हें पांवों तले रौंदा। महावीर अविचलित रहे । भयभैरव ने उन्हें डराने के प्रयास किए। महावीर दृढ़ रहे । अप्सराओं ने काम जगाने की चेष्टा की। महावीर प्रतिमावत् रहे। उनके परिवारजनों के करुण क्रन्दन उन्हें सुनाए गए। महावीर अनासक्त रहे । तोसली में संगम ने राजप्रासाद में चोरी कर उन पर आरोप सिद्ध करा कर उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया। महावीर मौन तप- लोक में रमे रहे । सात बार उन्हें फांसी दी गई और सातों बार तख्ता हटते ही रस्सी टूटी । रस्सी अलग- तख्ता अलग। महावीर अखण्ड ध्यान बने रहे। उनके पांवों पर बरतन रख उसके नीचे आग जलाई और खीर पकाई गई महावीर देहातीत रहे प्रभावहीन उपसर्ग देते-देते संगम हार गया और क्षमा मांगकर जाने लगा। महावीर के नेत्र सजल हुए। कारण पूछने पर उन्होंने बताया, "जो कर्म-बन्ध तुमने मुझे उपसर्ग देते हुए किया है, उसका परिणाम तुम कैसे सहोगे? तुम्हारे दुःख की कल्पना कितनी हृदयद्रावक है!" संगम ने और सुना वह पश्चाताप में डूब गया।
छम्माणि ग्राम के निकट साधना काल के छोर पर पहुंचे महावीर के कानों में लकड़ी की कीलें ठोंक दीं एक गोपालक ने । मध्यमा नगरी में सिद्धार्थ नामक वणिक के घर जब महावीर भिक्षार्थ गए तो वहां उपस्थित खरक नामक वैद्य ने उनके कानों से कीलें बाहर निकालीं गोपालक के अनुसार उनका अपराध था उसके बैलों की रक्षा न कर पाना और सतत
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