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मौन रहना। रक्तरंजित महावीर की मुक्ति-साधना का यह अंतिम उपसर्ग था। तप-यात्रा का प्रथम उपसर्ग जिस कारण से महावीर ने सहा, उसी कारण से अन्तिम उपसर्ग भी सहा। काल-चक्र के साथ-साथ कर्म-चक्र भी पूर्ण हुआ। ।
मातृ-जाति-उद्धारक महावीर ने संकल्प किया-वे संसार की सबसे दुःखी और पीड़ित स्त्री के हाथों अपना व्रत खोलेंगे। छह मास बीत गए। वे कौशाम्बी पहुंचे। इतिहास का अभूतपूर्व अभिग्रह धारण किए। उन्होंने एक नारी (चंदनबाला) को देखा। उसके साथ तेरह दुःखद स्थितियां बनी थीं : 1. अविवाहित कन्या 2. राजकुमारी 3. निरपराध 4. सदाचारिणी होकर कलंकिता 5. बन्दिनी 6. हाथों में हथकड़ियां व पैरों में बेड़ियां 7. मुण्डित सिर 8. तीन दिन से निराहार 9. खाने के लिए उड़द के उबले बाकुले सूप में लिए थी। 10. किसी अतिथि की प्रतीक्षा-रत 11. एक पांव देहली के बाहर और दूसरा अन्दर 12. मुख पर प्रसन्नता तथा 13. आंखों में आंसू। महावीर ने करुणा विगलित मन से उस नारी के हाथों आहार ग्रहण कर अपना व्रत खोला। घटना यूं थी-कौशाम्बी के राजा शतानीक के हाथों चम्पा के राजा दधिवाहन युद्ध में परास्त हुए और शतानीक के रथाध्यक्ष ने चम्पा की महारानी धारिणी व राजकुमारी वसुमति का धोखे से अपहरण किया। मार्ग में अपनी सतीत्व-रक्षा हेतु महारानी ने आत्महत्या कर ली और राजकुमारी को वाक्-जाल में फंसा रथाध्यक्ष अपने साथ ले आया। कौशाम्बी की एक वेश्या को उसे बेच दिया। वसुमति वेश्या के साथ न जाकर प्रतिवाद करने लगी तो कौशाम्बी के सेठ धनावह ने उसे खरीदा और पुत्री बना चन्दना नाम रखकर अपने घर ले आया। सेठानी मूला को एक बार अपने पति व वसुमति पर संदेह हुआ। पति की अनुपस्थिति में उसने चंदना का सिर मुंडवाया। हाथों में हथकड़ियां व पांवों में बेड़ियां पहनाईं और तलघर में डाल दिया तथा स्वयं पीहर चली गई। तीन दिन बाद लौट कर सेठ ने चंदना को बाहर निकाला। देहली पर बैठाया। उस समय उपलब्ध सूप में रखे उड़द के बाकुले उसे दिए और हथकड़ी बेड़ियां काटने वाले लुहार को बुलाने चला गया। इसी समय महावीर वहां पहुंचे। महावीर ने देखा-संसार में इससे अधिक पीड़ित और कोई नहीं हो सकता। उस बाला (चंदनबाला) का उद्धार करने के लिए उन्होंने आहार ग्रहण किया। देवों ने 'अहो दानं-अहो दानं' का घोष करते हुए वहां रत्नों की वर्षा की। संयम -पथ पर कदम बढ़ाने को संकल्पित चंदना ने नया जीवन पाया।
जुंभक ग्राम के सीमान्त प्रदेश में ऋजुबालुका नदी के तट पर श्यामक कृषक के खेत में शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन गोदोहन आसन में (पांचों ज्ञानेन्द्रियों व पांचों कर्मेन्द्रियों को दो स्तनों के समान अपने सबल हाथों में आबद्ध किए) ध्यानलीन महावीर ने सभी पाप कर्मों का क्षय किया। कैवल्य पद पाया। सर्वज्ञ हुए। भिक्षु से वे भगवान् बन गए। देवों ने कैवल्य महोत्सव मनाया। सैकड़ों सूर्यों का प्रकाश बन कर महावीर मध्य पावा पहुंचे। वहां सोमिल ब्राह्मण द्वारा आयोजित अभूतपूर्व यज्ञ के प्रयोजन से भारत के ग्यारह उद्भट विद्धान् अपने 4400 शिष्यों सहित इन्द्रभूति गौतम के नेतृत्व में आए हुए थे। महासेन उद्यान में भगवान् के समवसरण का प्रभाव देवलोक के समान पावा नगरी में भी प्रसारित हो गया। यज्ञ प्रभावहीन होने लगा तो इन्द्रभूति गौतम भगवान् को शास्त्रार्थ में पराजित करने के उद्देश्य से उद्यान में आए
और भगवान् को देख-सुन कर वहीं रह गए। भगवान् के प्रथम शिष्यत्व का गौरव पाया। सोमिल का विशाल यज्ञ महावीर भगवान् के समवसरण में समाहित हो गया। यज्ञ में पधारे ग्यारहों उद्भट विद्वान् अपने चार हजार चार सौ शिष्यों सहित श्रमण संघ में दीक्षित हुए। भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए भगवान् ने साधना-श्रेणियों के अनुसार-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका के रूप में चतुर्विध संघ की स्थापना की। उनके धर्म-संघ में चौदह हजार साधु, छत्तीस हजार साध्वियां, एक लाख उन्सठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएं थीं।
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