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और महामनीषी गौतम के मध्य गतिशील रहा तो कभी सुधर्मा स्वामी व जम्बू स्वामी के मध्य । भगवान् महावीर की परम्परा के गौतम तथा भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के केशी श्रमण के बीच होने वाला संवाद स्वस्थ वार्ता का विशिष्ट उदाहरण है। स्वस्थ वार्ता की इस श्रृंखला में और भी अनेक कड़ियां आकर जुड़ीं। स्कंधक परिव्राजक व गौतम, भगवान् महावीर व असुरराज चमरेन्द्र, भगवान् व शिवराजर्षि तथा भगवान् व परिव्राजक कालोदायी के बीच जैसे सम्बन्ध थे, वे सर्वोत्कृष्ट मानवीय सम्बन्धों के जगमगाते उदाहरण हैं। अपने से भिन्न मान्यता रखने वालों के प्रति कही कोई पूर्वाग्रह दिखाई नहीं देता। दिखाई देता है तो अज्ञान के अंधकार से बाहर आने का ईमानदार प्रयास और ज्ञान को सम्यक् रूप देने की साम्प्रदायिकता रहित कोशिश। राग-द्वेष के अज्ञान व मल से ये सभी सम्बन्ध मुक्त हैं। सत्य का निःसंकोच स्वीकार व कथन इनकी विशेषता है। यह विशेषता बताती है कि प्रभु के धर्म-संघ का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं था। विषमता ग्रस्त नहीं था। सम्यक्त्व से आलोकित एवम् समता पर आधारित स्वरूप था वह।
समता चाहे व्यक्ति में हो या राष्ट्र में, वह मनुष्यता का गौरव ही होती है। अपने-पराये का भेद वह समाप्त कर देती है। विषमता को निर्मूल कर देती है। राग-द्वेष के बंधनों का अन्त कर देती है। शारीरिकता की संकीर्णता से जीव को बाहर निकालती है। उसे ऐसी स्वाधीनता की ओर उन्मुख कर देती है, जिसे प्राप्त कर वह मृत्यु से भयभीत होना छोड़कर मृत्यु का स्वागत करने के योग्य बन जाता है। फिर उसकी मृत्यु एक महान् और नये जीवन में प्रवेश बन जाती है। फिर उसका जीवन अपनी तथा दूसरों की स्वाधीनता का महाकाव्य बन जाता है। मित्रता-शत्रुता की विभेदक रेखायें जहां समाप्त हो जायें, वहीं अहिंसा का सूर्य उगता है। जहां अहिंसा का सूर्य उगे, वहां अस्त्र-शस्त्रों का अंधकार तिरोहित हो जाता है।
भगवान् महावीर अहिंसा का सूर्य थे। वे न तो कभी अस्त हुए, न होंगे। इसलिये कि उनका प्रकाश असंख्य आत्माओं में व्याप्त रहा है, और रहेगा। सूर्य कभी अस्त नहीं होता। वह तो पृथ्वी के एक अंश से दूसरे अंश की ओर अपनी यात्रा निरन्तर जारी रखता है। भगवान महावीर की आलोक यात्रा जारी है। जारी रहेगी। फिर उनके निर्वाण को महाजीवन का आरम्भ क्यों न माना जाय!
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