SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संरक्षण पर बल देते हुए प्रकृति सन्तुलन को बिगड़ने से रोका। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि बहुत बाद में जगदीश चन्द्र बसु के कहने पर विज्ञान को यह सत्य समझ में आया । प्रमाणित भी हो गई भगवान् की बात । कट्टर अज्ञान द्वारा पोषित साम्प्रदायिक संकीर्णतायें अनेकान्तवाद ने तोड़ीं। किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, स्थिति या विचार को सभी संभव दृष्टियों से देखना ही वास्तव में पूर्णत्व को देखना है और यही है अनेकांतवाद । पूर्ण सत्य जानने का एकमात्र उपाय । भगवान् ने अपने युग में प्रचलित किसी भी विचारधारा को अमान्य नहीं किया। कहा कि समस्त विचारधारायें आंशिक सत्य लिए बहती हैं। आवश्यकता अंतर्नेत्रों द्वारा सभी का सत्य देखने और अपना सत्य पाने की है । अंधानुकरण परम्परा का भी व्यर्थ है और नवीन का भी । जिसे हम सत्य व उचित मानें, केवल उसी का व्यवहार करें। भगवान् द्वारा प्रतिपादित संकीर्णता और अतिवाद के विरोधी इस सिद्धान्त ने जन-जन में एकता व बन्धुत्व की स्थापना तो की ही, विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सद्भाव व जनतांत्रिक व्यवहार पर भी बल दिया। स्पष्ट है कि आचरण में उतरने के लिए अहिंसा जो धैर्य मांगती हैं, अनेकांतवाद भी वही धैर्य मांगता है। दोनों ही आत्मिक शक्ति के स्रोत सिद्धान्त हैं। उल्लेखनीय तथ्य है कि संस्कृत को रौब जमाने की युक्ति के रूप में महावीर ने कभी नहीं अपनाया और जिस ज्ञान पर जीव-जीव का नैसर्गिक अधिकार था, उसे जन-भाषा में ही जन-जन तक पहुंचाया । विषमता भगवान् के समय में समाज का एक पुराना रोग बन चुकी थी। बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को निगल जाना ही उस समय का सामाजिक न्याय था । वर्णाश्रम व्यवस्था उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग के बहुमुखी शोषण का मुख्य उपादान थी। ऐसे में वास्तविक लोक नायक की भूमिका निभाते हुए महावीर ने दृढ़तापूर्वक स्थापित किया कि श्रेष्ठता का मापदण्ड वंश नहीं, कर्म है । अमानवीय कार्यों में रत ब्राह्मण भी शूद्र है और मानवीय श्रम का गौरव शूद्र भी ब्राह्मण है। ध्यान देने योग्य बात है कि यह खोखला सिद्धान्त मात्र नहीं था, एक यथार्थ सत्य था। आर्द्रकुमार जैसे आर्येतर जाति के युवकों को उन्होंने अपने मुनि संघ में दीक्षा दी थी । हरिकेश जैसे चाण्डाल कुलोत्पन्न मुमुक्षुओं को अपने भिक्षु संघ में वही स्थान दिया था, जो ब्राह्मण श्रेष्ठ इन्द्रभूति गौतम को मिला था । भगवान् महावीर की यह अखण्ड मान्यता थी कि कोई भी व्यक्ति समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है । मनुष्य अपना भाग्य स्वयं बना सकता यह कहकर महावीर ने उस भाग्यवाद को भी आईना दिखाया जो वंचितों को निष्क्रिय बनाकर वंचकों का काम आसान करता था । वंचितों को दास-दासियों की तरह खरीदने और बेचने वाले समाज में भगवान् महावीर ने अपने साध्वी संघ की प्रमुख चन्दनबाला को बनाया, जिसे निष्प्राण वस्तु की तरह खरीदा - बेचा जा चुका था। नारी स्वतंत्रता व क्षमता के पक्ष में भगवान् के आचरण का यह सशक्त तर्क व न्याय है । साध्वी संघ में छत्तीस हजार साध्वियों का और श्राविका संघ में तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं का होना वस्तुतः भगवान् की ओर से इस भ्रम का दो टूक खण्डन है कि स्त्री मात्र भोग्या या दासी ही हो सकती है। यह भगवान् महावीर की अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामाजिक देन है । अहंकार, क्रोध, प्रमाद (विषयासक्ति), रोग और आलस्य को अशिक्षा के कारण बताते हुए उन्होंने ज्ञान को श्रद्धा और आचरण से जोड़ा। जीवन के शैक्षिक पक्ष को यह उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है । अपने समाज के वर्ग-वैषम्य का आधार महावीर ने परिग्रह को माना । आवश्यकता से अधिक संग्रह को उन्होंने सामाजिक अपराध बताया। इस अपराध के कारण ही स्थिति यह थी कि बच्चों को दूध चाहे मिले न मिले, यज्ञ को घी अवश्य मिल जाता था। इसी ऐतिहासिक परिस्थिति की पीड़ा भगवान् - प्रदत्त अपरिग्रह जैसे मूल्य की जननी बनी। कामनाओं को मृत्यु घोषित करते हुए वे बोले - कल की वह सोचे जिसे कभी न मरना हो । मरना सबको है इसलिए संचय कैसा? कर्म-फल प्रत्येक को भोगने हैं इसलिए संचय क्यों ? स्पष्ट है कि इन बातों ने उस समय के व्यक्ति चरित्रों से दुर्गुणों का कूड़ा-करकट साफ करने में उल्लेखनीय भूमिका अभिनीत की। घृणा, क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, लोभ, व्यभिचार आदि की जड़ों को उखाड़ा। प्रेम, करुणा, अहिंसा, साम्य, क्षमा, अस्तेय, अपरिग्रह, आदि को असंख्य व्यक्तियों की भाव-भूमि पर रोपा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy