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________________ Jain Education International साधना के सन्देश पूरे साधना-काल के दौरान महावीर ध्यानस्थ रहे या गतिमान तीसरी कोई स्थिति नहीं थी इसके अलावा वे समझते थे क्या है वास्तविकता क्या है छलावा वे केवल अपने ध्येय को जीते रहे दैहिक दैविक-भौतिक कष्टों से कर्म-निर्जरा कर अमृत पीते रहे उनका ज्ञान और उन्नत और उन्नत -OBAL O और उन्नत होता चला गया भौतिकता की गंध को उनका शरीर खोता चला गया जीवन बन गया साधना का निरन्तर गतिशील छन्द देह के सहस्र-सहस्र रोमकूपों से प्रवाहित होने लगी विमल होते भावों की दिव्य सुगन्ध वे जहाँ-जहाँ जाते अनजाने ही यह दिव्य सुगन्ध चर-अचर को बाँटते सुगन्ध का निमन्त्रण पा भँवरे उनकी देह पर झपटते और अंग-प्रत्यंग पर तरह-तरह से काटते देह को होती है तो होती रहे पीर वास्तव में विदेह थे महावीर कामिनियाँ आकर्षित हो उनके पास आतीं भँवरों की तरह निराश लौट जातीं प्रकाश पर्व : महावीर / 72 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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