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________________ यह बोध जाग जाये तो सभी असुरक्षाओं से वह स्वाधीन हो जाये। सभी संशयों से उसे मुक्ति मिल जाये। सभी दुःखों से उसकी चेतना और उसका जीवन स्वतन्त्र हो जाये। धन्य हो जाये। खेद का विषय यह है कि यह बात एक मंगल-कामना तो हो सकती है, परन्तु वास्तविकता नहीं बन पा रही। वास्तविकता यह है कि 'जैसे को तैसा' या 'खून का बदला खून' जैसे अमानुषिक सिद्धान्त जीवन के नियामक विचार बनते जा रहे हैं। यही विचार समाचार-पत्रों की रक्तरंजित सुर्खियां बन कर आये दिन हमारी संवेदनाओं को झकझोरते रहते हैं। भगवान् महावीर इन विचारों को त्याज्य मानते थे। केवल मानते ही नहीं थे, इस त्याग को जीते भी थे। उनकी साधना की एक-एक सांस ने 'खून का बदला खून' जैसे सिद्धान्त का अहिंसक प्रतिरोध किया। यक्षायतन में साधनालीन महावीर को शूलपाणि यक्ष ने दिशाओं को कंपाने वाली हुंकार से आतंकित करने की चेष्टा की, तरह-तरह से उन्हें नोंचा, हाथी बनकर उन्हें पांवों तले रौंदा, सिंह बनकर उनकी देह में नाखून और दांत गड़ाये, सर्प-बिच्छू बनकर विषैले डंक मारे तो बदले में क्रोध नहीं पाया। प्रतिशोध नहीं पाया। धमकियां नहीं पाईं। पाया तो क्षमा...केवल क्षमा का ऐसा अमृत, जिसे उसने पहली बार चखा था। पाया तो यह ज्ञान कि “अग्नि से कभी अग्नि शान्त नहीं होती। वैर से कभी वैर नहीं मिटा करते। पानी से ही अग्नि शान्त होती है। मैत्री से ही वैर बुझ सकता है।" इस ज्ञान से शूलपाणि यक्ष के जन्म-जन्म का क्रोध शान्त हो गया। वह सभी को क्षमा और अभय का अमृत बांटने लगा। स्वाधीनता की राह पर वह चल पड़ा। महावीर देहासक्त होते तो यह संभव नहीं हो सकता था। वे देह मात्र नहीं थे। वे सहनशीलता थे। समता थे। क्षमा थे। मनुष्यता का सार तत्व थे। केवल 'स्व' के अधीन होने के कारण स्वाधीन थे। इसीलिये आतताइयों को भी क्षमा की प्रतिमूर्ति बना सके। स्पष्ट है कि 'खून का बदला खून' के स्थान पर उनका जीवन-मूल्य था-'यातना का बदला करुणा'। आज के युग में, जब बहुत-से तथाकथित मनुष्य 'ईंट का जवाब पत्थर' मानते हैं, तब भगवान महावीर के 'विष का जवाब दूध' को याद करना अपरिहार्य हो जाता है। चण्डकौशिक नामक दुर्दान्त सर्प के कारण जिस राह से लोगों ने गजरना छोड दिया था, महावीर लोगों द्वारा सचेत किये जाने पर भी उसी राह पर आगे बढ़े थे। सर्प की बांबी के पास जाकर ध्यानस्थ हो गये थे। मानो कह रहे हों, “लो! मैं प्रस्तुत हूं। अपने जन्म जन्मातर का क्रोध मुझ पर उतार दो। पर तुम क्रोध से मुक्त हो जाओ। सभी को अभय दो।” सर्प ने महावीर को चुनौती समझ कर उन पर अपनी विषैली फूंकार छोड़ी, दृष्टि विष से उन्हें दग्ध करने का प्रयास किया, उनके पांव में सर्वघाती डंक मारा परन्तु पांव से खून के स्थान पर दुग्ध निकल आया। इस प्रकार महावीर के जीवन में चरितार्थ हुआ-'विष का जवाब दूध।' विष, दूध को विषैला नहीं बना सका। दूध ने विष को अहिंसक व सदाचारी बना दिया। सिद्ध हुआ कि दूध में विष से कहीं ज्यादा शक्ति होती है। यह शक्ति क्षमा और अभय का अनश्वर जीवन प्रदान करती है। बस! इस शक्ति को आजमाने का संकल्प चाहिये। हौंसला चाहिये। तभी मनुष्य स्वाधीन भाव से 'ईंट का जवाब पत्थर' जैसे सिद्धान्त का अहिंसक व सार्थक प्रतिरोध कर सकता है। प्रभु ने ऐसा किया और पापी के मन में पाप से विरक्ति जगा दी। मनुष्यों की तो बात ही क्या...उनसे सम्बोधि पाकर चण्डकौशिक जैसे तिर्यंच भी जागे। ऐसे जागे कि फिर कभी नहीं सोये। पाप से मुंह मोड़ा तो ऐसा मोड़ा कि मुड़कर भी उसकी ओर नहीं देखा। पाप की हिम्मत नहीं हुई कि वह महावीर के जगाये जीवों के जीवन में पल-भर को झांक भी पाये। महावीर आये तो कषायों की गुलामी चली गई। पाप चला गया। असंख्य मनुष्यों ने भयमुक्त होकर खुली हवा में सांस ली। स्वाधीनता को अपनी सांसों में अनुभव किया। जो स्वयं स्वाधीन न हो वह किसी को स्वाधीन बना भी नहीं सकता। महावीर की स्वाधीनता को मन-वचन काया से अपनाने वाले मनुष्य अपेक्षाकृत कम हैं। यही कारण है कि वे स्वाधीनता का वितरण व प्रसार भी नहीं कर पाते। लोभ ने उन्हें पराधीन बना दिया है तो वे लोभ का प्रसार करते हैं। उस लोभ का जो मनुष्य के "सभी सद्गुणों का विनाश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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