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रोम-रोम के आँख बन जाने पर उन्हें देखने से जी नहीं भरा, नीचे उतर आया आनन्द का आकाश ऊपर उठ गई
संवेदनाओं की लहलहाती वसुंधरा,
अपने मुझ में
और मैं सपनों में खो गई
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क्या बताऊँ महाराज !
जागी तो लगा
वही सपने देखने को एक बार फिर क्यों नहीं सो गई
पूछते हैं
उन में क्या था ऐसा ? कैसे कहूँ
किस से तुलना करूँ
इस दुनिया में
कुछ भी तो नहीं है वैसा
प्रकाश-पर्व: महावीर / 15
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उतने श्वेत... उतने उजले
कहाँ हैं हाथी और वृषभ
उस केसरी सिंह जैसा
रूप किसी भी शेर को नहीं सुलभ कहाँ है वह लक्ष्मी
जो मंगल गान गाते नहीं थकती
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