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जैसे मूर्च्छित में चेतना अती है जैसे गूगेपन की जुबान गीत गाती है जैसे नेत्रहीन को नेत्र मिलते हैं जैसे क्रूरता के भीतर असू निवलते हैं
जैसे इंकार में अने लगे सरलता जैसे पत्थर दिल लोभ ऊगाने लगे त्याग की तरलता जैसे क्रोध की दुनिया में क्षमा मुस्कनाये
प्रभु अये
प्रकाश-पर्व : महावीर /27
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