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________________ ग्वाल-बाल देनवते रह गयेयोगी के रोम-रोम में अभय रहता है वरना भयानक साँप को भी । कभी कोई अपना मित्र कहता है ! महावीर के साथ बढ़ा उनका चिन्तन... 'करुणा का अधिकारी जीव-मात्र है जिसे क्रोध ने पहले ही डॅस रकमवा है वह सर्प भय और क्रोध का नहीं सहानुभूति और मैत्री का पात्र है उसके पास जाना है । क्रोध के विष से उसे बचाना है' देलवो ! अपने युग में महावीर करुणा के कैसे-कैसे कालजयी बीज बो गये वे सर्प की बाम्बी के पास पहुंचे और कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गये चण्डकौशिक को अरसे बाद मानव-व्ह का गठधाभास मिला आहार की सम्भावना से उसका क्रोध विला प्रकाश-पर्व : महावीर /84 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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