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वसुमती ने बड़े कष्ट उठाये पर ऐसा स्नेह पाकर असू उमड़ आये सतीत्व की यूँ बनी बात वह सिर झुकाये चल दी पिता के साथ
घर पहुंची तब भी ऑनवों में तैर रहा था पानी उसे देनव प्रसन्न हुई मूला सेठानी
वसुमती शील की देवी नम्रता का प्रतिरूप मधुरता की प्रतिमा गुणों का अथाह कूप सेवा की सुरभि ऐसी जैसे मुगळ्ध बसी हो चन्दन में 'इसे कहेंगे चन्दना' दोनों ने सोचा मन में
चन्दना वहीं रहने लगी बड़े असमानों से धनावह को पिता और मूला को माँ कहने लगी
एक दिन मूला के मन में विचार जगा
स्वार्थ
मस्तिष्क में घुस कर सोचने लगा'यह तो ठीक है
प्रकाश-पर्व : महावीर /101
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