SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिष्य ने दिलवायाहिंसा का भय बोला-"गुरुदेव ! ध्यान दीजिये पाप हो गया है आलोचना कर लीजिये मैंने शिष्य को मारने के लिये अपना दण्ड उठाया दौड़ा नेत्रों का विवेक खो गया वो खम्भा नहीं दिलना उस से टकराया हो गया देहावसान वाह रे ! क्रोध और मान 00.000 सन्त, देव, ब्राह्मण..." ....ब्राहमण, सन्त, देव... क्रोध...क्रोध...क्रोध... हिंसा...हिंसा...हिंसा... देनवा क्रोध और हिंसा का प्रपंच देव और मनुष्य से बना डाला तिर्यंच... चण्डकौशिक ने नखोज लिया दुर्दशा का मूल कारण तत्काल करने लगा उसका निवारण असंव्य प्राणों के हन्ता फन को संभाल लिया उसे POODS सीधे बॉबी में डाल दिया किया संकल्पवेदना अब अधिक हो या अल्प अब किसी को नहीं सतायेगा नहीं डरायेगा अपनी करनी पर पछतायेगा प्रकाश-पर्व : महावीर /89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy