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________________ भगवान् महावीर : संक्षिप्त जीवन-रेखायें - सुभद्र मुनि शासनपति श्रमण भगवान् महावीर अहिंसा, क्षमा, करुणा, धैर्य, सत्य, तप, त्याग, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य व संयम का पर्याय थे। लोकमंगल के वे प्रतीक थे । तपो, त्याग की प्रतिमा थे। उनका जीवन श्रेष्ठतम मनुष्यत्व का महाकाव्य है। उनके जीवन की संक्षिप्त झांकी हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं । भगवान् महावीर विश्व के सर्वप्रथम गणतंत्र वैशाली के 'क्षत्रिय कुण्डपुर' नामक उपनगर में 30 मार्च, ईसा पूर्व 599 अर्थात् चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को अंधकाराच्छादित गगन में अनेक सूर्यों की तेजस्विता लेकर जन्मे थे। माता त्रिशला का मातृत्व एवम् पिता सिद्धार्थ का पितृत्व सार्थक होकर अजर-अमर हो गया। मां त्रिशला के चौदह दिव्य स्वप्न जो गर्भ-काल में देखे गए थे और अनुभव किए गए थे, स्वप्न-दर्शन के वे विलक्षण क्षण फलीभूत हुए। मति, श्रुत और अवधि ज्ञान भगवान् को गर्भ से ही थे। वे समझ सकते थे कि उनकी कौन-सी गतिविधि माता के लिए सुखद है और कौन-सी दुःखद । यह समझते हुए भगवान् ने गर्भकाल में अपनी गतिविधियां नियंत्रित कर लीं। गर्भस्थ शिशु को स्पन्दन रहित जान कर माता आंखों से आंसू गिराने लगीं। मेरे द्वारा कभी किसी को कष्ट न हो, ऐसा सोचकर प्रभु ने गर्भ में ही प्रतिज्ञा की कि माता-पिता के रहते संयम पथ पर अपनी यात्रा विधिवत् आरम्भ करके इन्हें दुःखानुभूति का अवसर न दूंगा। इस सीमा तक ज्ञानात्मक-संवेदनासम्पन्न मनीषा का जन्मोत्सव देवताओं द्वारा सम्पादित होना स्वाभाविक ही था । एक मनीषा का आलोक जब अनेक दिशाओं में प्रसारित होता है तो लोक-जगत् उसे एकाधिक नामों से पहचानता है। गर्भकाल से ही राज्य के वैभव और ऐश्वर्य की अपार वृद्धि होने के कारण भगवान् को 'वर्धमान' के नाम से पुकारा गया। आकाश गमन की शक्ति से सम्पन्न दो मुनियों द्वारा प्रस्तुत शास्त्रों के गूढ़ प्रश्नों व उनके मन की शंकाओं का सहज समाधान बचपन में ही कर देने के कारण उन्हें 'सन्मति' कहा गया। आठ वर्ष के वर्धमान की परीक्षा लेने आया देव क्रीड़ारत बाल समूह के निकट वृक्ष पर भयानक सर्प बन कर लिपट गया तो उसे निर्द्वद्व भाव से पकड़ने व दूर छोड़ देने के माध्यम से बाल-समूह को भयमुक्त करने के कारण उनका नाम 'वीर' पड़ा। तिन्दूषक खेलते हुए अपरिचित बालक-रूपी दैत्य के कन्धों पर चढ़कर एक ही मुष्टि-प्रहार से उसे आहत कर देने के कारण उन्हें 'महावीर' कहा गया । मदमस्त और विनाशक हो चुके हाथी का मद गजमर्दन विद्या के उपयोग से उतार देने के कारण उनका नाम 'अतिवीर' रखा गया । भाई नन्दीवर्धन, बहन सुदर्शना, चाचा सुपार्श्व व माता-पिता की स्नेह छाया में व्यतीत होने वाला वर्धमान का बचपन ज्ञान, ध्यान, योग व करुणा की व्यंजक अनेक असाधारण घटनाओं से परिपूर्ण रहा। गुरुकुल के आचार्य उनका ज्ञान देखकर यह कहने को बाध्य हुए कि "यह तो गुरु का मान देने के लिए मेरे पास आया है। साक्षात् ज्ञान को मैं भला क्या सिखा सकता हूं।” वस्त्रहीनों को वस्त्र, निर्धनों को धन, भूखों को अन्न तथा वृद्धों / रोगियों को यथोचित परिचर्या प्रदान करना भगवान् का स्वभाव था । अनेक बार वे दीनों की समृद्धि बने । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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