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कर उन्होंने दो दिन तक निरंतर धर्म देशना दी। आगामी समय में साधकों को संबल देने वाला शिक्षा-संग्रह-सूत्र प्ररूपित किया, जिसे 'उत्तराध्ययन सूत्र' के नाम से जाना जाता है। यह उनकी अन्तिम देशना थी। अपने निर्वाण से पूर्व उन्होंने अपने प्रति राग में डूबे शिष्य व गणधर इन्द्रभूति गौतम को पावापुरी से दूर धर्म-बोध देने के लिए भेज कर उनके केवल-ज्ञान धारक बनने का मार्ग प्रशस्त किया। कार्तिक कृष्णा अमावस्या (नवम्बर, ईसा पूर्व 528) को रात्रि के अन्तिम प्रहर व स्वाति नक्षत्र के शुभ योग में उत्तराध्ययन सूत्र का छत्तीसवां अध्ययन अपनी विरासत के रूप में भव्य आत्माओं के लिए कहते-कहते प्रभु एकदम मौन हो गए। अपने शेष चार कर्मों को भी नष्ट करते हुए विश्व-वंद्य महावीर ज्ञात लोक से अज्ञात लोक में स्थित हो गए। अजर अमर बन प्रभु निर्वाण को प्राप्त हुए। गणधर गौतम लौटे तो उनका अन्तिम राग-बिन्दु भी नष्ट हो गया। वे केवल ज्ञान से संपन्न हुए। भगवान् महावीर के गर्भ-वास, जन्म, दीक्षा और केवल ज्ञान के समय उत्सव मनाने वाले देवताओं ने उनका निर्वाण होने पर भी महोत्सव मनाया। मिथ्याचार का अंधेरा धर्म के दीप प्रकाशित कर प्रभु ने मिटाया था। अतएव देवों तथा मनुष्यों ने महाप्रभु की महिमा में प्रकाशमान रत्न रखकर बताया कि तीर्थंकर भगवान् महावीर ने जो धर्मदीप जलाया था, वह सदा-सर्वदा जगत् का अंधकार दूर करता रहेगा। लोक-भाषा में जिसे 'दीपावली' कहा जाता है, उसका यह प्रारम्भ था। अनंत प्रकाश दीपों के पावन-उत्सव-दीपावली को तभी से प्रति वर्ष मनाया जाने लगा।
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