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________________ अर्थात कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थ परिग्रह नहीं हैं। वास्तविक परिग्रह तो किसी भी पदार्थ पर आसक्ति का होना है। आसक्ति के रहने पर त्याग का होना संभव नहीं। आसक्ति तो लोभ को ही जन्म दे सकती है। उसी लोभ को जो सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। परिग्रह का स्वभाव है कि संचय जितना अधिक होता जाता है, उसकी भूख उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। संचय से तृप्ति कभी नहीं होती। गुरुदेव योगिराज श्री रामजीलाल जी महाराज इसीलिए कहा करते थे कि खोना हो तो संचय करो। आशय यह कि धन संपदा की आसक्ति से धन-संपदा की भूख और भड़केगीः वह धनवान् बना-बना कर इतना दरिद्र कर देगी कि और अधिक धन-संपदा के लिए जीव मारा-मारा भटकता रहेगा। वह धन के लिए धन उत्पन्न करना शुरू कर देगा। धन को अपने हिसाब से वह खर्च करता रहेगा। जीव को धनवशता की असहायता से बचाने के लिए भगवान महावीर ने कहा “पुढवी साली जवाचेव, हिरण्णं पसुभिस्सह। पडिपुण्णं नालमेगस्स, हइ विज्जा तवं चरे॥" चावल और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्वी भी लोभी मनुष्य को तृप्त करने में असमर्थ है-यह जान कर संयम का ही आचरण करना चाहिए। संयम का आचरण वही कर सकता है जो ज्ञानी हो और "ज्ञानी संयम-पुरुष, उपकरणों के लेने और रखने में कहीं भी/ किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं करते। और तो क्या अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते।" वे जानते हैं कि यदि थोड़ा भी ममत्व शेष रहा तो सुविधाओं का गुलाम बनने में देर नहीं लगेगी। जगत व समाज में भयानक विषमता देखते देखते फैल जायेगी। बढ़ते हुए राग-द्वेष असंख्य कर्मों को पलक झपकते ही आत्मा पर लाद देंगे। कर्म-फल भोगने के लिए जन्म-मृत्यु का दुष्चक्र कभी समाप्त न होगा। इसीलिए अपरिग्रह का आचरण अनिवार्य है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भगवान महावीर के मतानुसार संयमाचार के अनिवार्य अंग हैं। धर्म विचार की अनिवार्यता है-अनेकान्त युक्त चिंतन पद्धति। इस पद्धति की विशेषता है-सत्य को उसके सभी संभव पक्षों सहित या सम्पूर्णता में देखना। भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखने पर एक ही वस्तु अनेक धर्मात्मक दिखलायी देती है। किसी लोभी व्यक्ति की दृष्टि से जो हीरे जीवन का सार हैं, किसी संत की दृष्टि से बोझिल पत्थर मात्र हैं। व्यक्ति न केवल पिता है, न केवल पुत्र। वह पिता भी है, भाई भी है। उसके विषय में कही गई किसी भी एक बात को पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता। पूर्ण सत्य सभी पक्षों से मिलकर बनता है। मूलतः भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त-दर्शन यही है। अनेकांत की चिन्तन पद्धति सत्य को अनेक दृष्टियों से देखने-समझने के कारण व्यक्ति को न तो ज्ञान के केवल एक आयाम तक सीमित करती है और न ही उसे संकीर्ण या हठी बनने देती है। समभावपूर्वक सत्य को देखने-समझने की शक्ति प्रदान करता है-अनेकांत-दर्शन। विचार और आचार, दोनों ही धरातलों पर नैतिक मूल्यों की वांछनीयता भगवान् महावीर ने रेखांकित की। वर्षों की अटूट साधना से ज्ञान का जो फल उन्होंने पाया था, उसका अलौकिक आस्वाद या आनंद वे तीस वर्ष तक घूम-घूमकर बांटते रहे। लोक-कल्याण के लिए प्रभु ने चार तीर्थों की स्थापना की (1) श्रमण संघ (2) श्रमणी संघ (3) श्रावक संघ (4) श्राविका संघ। तीर्थ के संस्थापक होने के कारण वे तीर्थंकर कहलाये। उन्होंने संसार में लुप्त तथा विकृत हो रही धर्म-मर्यादा की स्थापना की। भव सागर से वे स्वयं भी पार हुए और दूसरों को भी पार कराया। सृष्टि के समस्त प्राणियों के लिए जाति-वर्ग के भेदों को अमान्य ठहराते हुए धर्म की स्थापना की। सभी को मुक्ति-मार्ग पर अग्रसर होने के लिए आमन्त्रित किया। शासनपति श्रमण भगवान महावीर का 42वां तथा अंतिम वर्षावास पावापुरी में था। अपना अंतिम समय निकट जान For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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