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इतना सहती थी कि उसकी नस-नस में रक्त की नहीं करुणा की धारायें बहती थी
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एक ओर रक्त-पिपासु विष था दूसरी ओर आत्मीयता-सा उजला दूध एक ओर प्रहार था दूसरी ओर प्यार
सर्पको अन्तत: अपने हौंसले पड़े थामने कैसा लगता है जब चरम हिंसा और परम अहिंसा होते हैं आमने-सामने
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भौंचक्का था चण्डकौशिक का क्रोध महावीर बोले"सर्पराज ! बोध पाओ बोध
अतीत में जाओ जा सकते हो जहाँ तक खोजो खोजो खोजो किस कारण से तुम पहुँच गये यहाँ तक तुम्हारी दुर्दशा का दायित्व जिस पर है क्या उस मूल कारण पर तुम्हानी नज़र है सोचो और हटा दो वही मल अवरोध
प्रकाश-पर्व : महावीर /87
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