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________________ भूमिका प्रकाश-पर्व : महावीर 'प्रकाश-पर्वः महावीर' मुक्त छंद के रूप में रची गई काव्य-कृति है। भगवान् महावीर अथवा पूर्ण मनुष्यत्व के अक्षय जीवन को आधार बनाकर हिन्दी के इतिहास में सम्भवतः प्रथम बार उस दिव्य जीवन की अर्थछायाएँ मुक्त-छन्द का रूप धरकर प्रकाशित हो रही हैं। भगवान् महावीर का जीवन मुक्ति का जीवन्त छन्द था। इसीलिये समय-समय पर अनेक कवियों ने अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुरूप उसे तरह-तरह से गाया। अनेक लेखकों ने अपने-अपने ढंग से उसे व्याख्यायित-विश्लेषित किया। मुक्ति के उस जीवन्त छन्द के सर्वव्यापी प्रभाव से शुष्कता ने कवित्व बनकर धन्यता अनुभव की। व्यक्तित्व ही ऐसा था वह।। __वही व्यक्तित्व 'प्रकाश-पर्वः महावीर' में पुनः भास्वर हुआ। विशेषता यह कि शब्द-शब्द में जीया गया उसे। अर्थ-अर्थ में अनुभव किया गया। भाव-भाव में गाया गया। यही कारण है कि रचने की कोशिश इस पूरी काव्य-कृति में कहीं दिखलाई नहीं देती। कृत्रिम सौंदर्य ढूंढ़े नहीं मिलता। जहां देखो अनुभूति के सांचे में सहजता से ढल कर उभरती काव्य पंक्तियां। मुक्त छंद की आवश्यकता ही कवियों ने सहजता के कारण अनुभव की थी। चाहा था कि अर्थ के अतिरिक्त, मात्र छन्द निर्वाह हेतु लाये जाने वाले शब्दों के बोझ से मुक्त हो कविता। शब्द की लय अर्थ की लय के लिये हो। ऐसा न हो कि अर्थ की लय शब्द की लय के लिये उपकरण-मात्र बनकर रह जाये। अर्थ का सम्पूर्ण गौरव कहीं साध्य से साधन न बन जाए, इसी चिन्ता से हिन्दी कविता के इतिहास में मुक्त छन्द जन्मा था। भारत के स्वाधीनता संघर्ष के दौर में जन्म लेकर मुक्त छन्द स्वातंत्र्योत्तर युग में हिन्दी कविता की मुख्य धारा बन गया। छन्द की रूढ़ियों से मुक्त होकर उसने लय से अपना सम्बन्ध बनाये रखा। जहाँ-जहाँ लय उससे छूटी वहां-वहां न तो वह छन्द रहा, और न ही कविता। भले ही कविता की शक्ल में उसे छापा और सम्मानित किया जाता रहा हो। महत्वपूर्ण यह है कि छन्द ने जब अर्थ समृद्धि और उसकी लय के लिए अपने सभी नियम दाँव पर लगा दिये, तब वह 'मुक्त छन्द' कहलाया। उसमें न तुकें मिलाने का अपरिहार्य आग्रह शेष रहा और न ही निश्चित वर्ण-क्रम एवम् वर्ण गणना का पांडित्यपूर्ण अभ्यास । यदि सुन्दर या सार्थक शब्द में से किसी एक को चुनने का प्रश्न उसके सम्मुख आया तो उसने सार्थक शब्द को ही चुना। इसीलिये उसकी अर्थवत्ता अर्थ की सहजता और सहजता के अर्थ को काव्य-रूप देने में रही। यह अर्थवत्ता प्रस्तुत कृति में घटित हुई है। छन्द-शास्त्र में उल्लिखित रूढ़िगत नियमों का निर्वाह यहाँ नहीं है। यहाँ है—अर्थ की और उससे भी आगे बढ़कर भाव की एक विराट् लय, जो सम्पूर्ण कृति में आद्योपान्त गूंजती है। यह बात और है कि भाव की इस लय ने शब्दों की लय से कोई वैर नहीं रखा है। अतः शब्द लय की सृष्टि भी स्वयमेव हो गई है परन्तु केन्द्र में रही है भाव की लय। इस मुक्त छन्द में मुक्ति के जीवन्त छन्द ‘भगवान् महावीर' प्रभावोत्पादक ढंग से उभर आये हैं। जैन धर्म प्रभावक गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज द्वारा सृजित विविधानेक गद्य रचनाओं से जो पाठक/श्रोता परिचित हैं, वे इस तथ्य को भी भली-भाँति जानते हैं कि गद्य रचनाओं के बीच-बीच में स्थान-स्थान पर गुरुदेव का कवित्व प्रकट होता रहा है। मुक्त छन्द में इससे पूर्व भी गुरुदेव की सृजन क्षमता रूप ग्रहण करती रही है। पत्र-पत्रिकाओं में आपश्री की कुछ कवितायें प्रकाशित भी हुई हैं परन्तु पुस्तक रूप में एक सुदीर्घ काव्य-कृति का प्रकाशन पहली बार हुआ है। निश्चित ही पाठकों के लिए गुरुदेव के काव्य सृजन का यह रूप दर्शनीय होगा। 'प्रकाश-पर्वः महावीर' की उत्कृष्टता काव्य-रचना के विभिन्न पक्षों में चरितार्थ हुई है। यथार्थ के मार्मिक अंकन की दृष्टि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003981
Book TitleTirthankar Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication New Delhi
Publication Year1998
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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