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सर्पराज ! बोध पाओ
बोध
चण्डकौशिक ने समझाकुछ नहीं है हार-जीत में अपनी दुर्दशा का मूल कारण खोजने वह उतर गया अतीत में
जैसे-जैसे जमने लगा ध्यान
वैसे-वैसे कौंधने लगा
जातिस्मरण ज्ञान.... ...नहीं ! सर्प नहीं था मैं में सर्प नहीं था
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में था एक ब्राह्मण वाचाल हमेशा क्रोध से मुँह लाल अपने उपवन की करता रखवाली एक दिन पशुओं ने चर डाली हरियाली
उपवन में एक भी फल नहीं छोड़ा मैंने कुल्हाड़ा उठाया
और एक-एक का खून पीने दौड़ा
नेत्रों का विवेक खो गया
वो गहना गड्ढा नहीं दिखा मुझे और मैं उसी में ढेर हो गया
उस से पहले था देव अग्निकुमार वहाँ भी क्रोध का ही व्यापार
उस से पहले
गोभद्र मुनि नाम का संत
क्रोध का
वहां भी नहीं अंत
पाँव तले कुचला मेंढक नहीं जिया
उसे देख कर अनदेखा किया प्रतिक्रमण के समय.
प्रकाश पर्व : महावीर / 88
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