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प्रभु ने विलम्ब नहीं किया तत्काल आधा देवदूष्य फाड़ा और दरिद्रता को दे दिया
दरिद्रता ने नगर में पहुँचकर उसका मोल समझा
मन
शेष आधे टुकड़े में जा उलझा पीछे-पीछे वृद्ध भी गया जंगल में करते हुए शोध देवा-ध्यानलीन महावीर को
नहीं था देह का बोध
नहीं रही गुंजाईश गिड़गिड़ाने की हिम्मत नहीं हुई
देवदूष्य चुपचाप चुराने की
देख-देख बढ़ती गई चाह
वह महावीर के पीछे-पीछे फिना
पूरे तेरह माह
तब एक दिन
उसका भाग्य फिर गया
देवदूष्य उसके प्रति करुणा से भा
और अपने-आप गिर गया
उसने लपका और चल दिया वह
मन ही मन उसका मूल्य आँकते
महावीर को
क्या पड़ी थी
कि उस ओर ज़रा भी झाँकते !
प्रकाश-पर्व : महावीर / 68
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