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में वैशाली से दूर भिक्षाटन को गया लौटा तो जाना—आपका वर्षीदान मुझ अभागे के हाथ से नवो गया आपकी कृपा का मेघ साल-भर कल्प-वृक्ष बन कर बरसा और बह गया में तरसा सखूब तरसा इस बार भी तरसता ही रह गया पता लगते ही जागा आपके पीछे-पीछे भागा हे प्रभु ! अब तो मेरी पीड़ा हर लीजिये मुझे भी कुछ तो दीजिये"
महावीर ने देवावृद्ध की नजर गड़ी है देवदूष्य पर उसे देखकर अभावों के झाड़-झरवाड़ में निवल उठे है । भावों के अनेक सुमन यह वस्त्र इन सुमनों में उलझ गया है इसे लेकर आगे बढा तो सुमनों को चोट लगेगी हिंसा व्यर्थ जगेगी
दरिद्रता आतुर थी बोली"आपके पास अभी शेष है यह कपड़ा इसी में से दे दीजिये आधा टुकड़ा यही होगा मेला प्रसाद आपकी उदारता की याद”
प्रकाश पर्व : महावीर /67
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