Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ फिर किसी के सपनों में न पलूँ मैं सदा-सदा त्रिशला और सिद्धार्थ की ही सन्तान कहाऊँ इसके लिये करनी है साधना मुझे परन्तु ज्येष्ठ भ्राता ने कहा है'आँसू सूखने दो घर में रहो अभी दो बरस और उन्होंने दिया है वचनदो बरस बाद वे नहीं रोकेंगे Jain Education International Ferr KUU ठीक है। ज्येष्ठ भ्राता के नाम दो बरस और यों भी ज्येष्ठ भ्राता तो पिता तुल्य होता है ।' परिवर्तन को तड़पता समाज यह कैसा समाज है एक ओर भोजन के भण्डार हैं दूसरी ओर भूख और अनन्त प्रतीक्षा एक ओर सूने महल हैं दूसरी ओर छाँव को तरसते सर एक ओर पहने जाने की बाट देखते कपड़े हैं दूसरी ओर ठिठुरते सिकुड़ते बदन एक ओर हाथी-घोड़े हैं दूसरी ओर नंगे पाँव एक ओर स्वामित्व है दूसरी ओर दासता कैसा समाज है यह यह कैसा समाज है जो मनुष्यता के बिना ही मनुष्य-समाज कहलाता है जहाँ इन्सानों को वस्तुओं के समान खरीदा बेचा जाता है। दासों से निर्ममतापूर्वक प्रकाश-पर्व: महावीर / 56 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150