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फिर किसी के
सपनों में न पलूँ मैं
सदा-सदा
त्रिशला और सिद्धार्थ की ही सन्तान कहाऊँ
इसके लिये
करनी है साधना मुझे
परन्तु ज्येष्ठ भ्राता ने कहा है'आँसू सूखने दो
घर में रहो अभी दो बरस और
उन्होंने दिया है वचनदो बरस बाद वे नहीं रोकेंगे
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ठीक है।
ज्येष्ठ भ्राता के नाम
दो बरस और
यों भी
ज्येष्ठ भ्राता तो पिता तुल्य होता है ।'
परिवर्तन को तड़पता समाज
यह कैसा समाज है
एक ओर भोजन के भण्डार हैं
दूसरी ओर भूख और अनन्त प्रतीक्षा एक ओर सूने महल हैं
दूसरी ओर छाँव को तरसते सर
एक ओर पहने जाने की बाट देखते कपड़े हैं
दूसरी ओर ठिठुरते सिकुड़ते बदन
एक ओर हाथी-घोड़े हैं
दूसरी ओर नंगे पाँव
एक ओर स्वामित्व है
दूसरी ओर दासता
कैसा समाज है यह
यह कैसा समाज है
जो मनुष्यता के बिना ही
मनुष्य-समाज कहलाता है
जहाँ इन्सानों को
वस्तुओं के समान खरीदा बेचा जाता है। दासों से निर्ममतापूर्वक
प्रकाश-पर्व: महावीर / 56
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