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नैतिकता उठ गई सदाग्रह छूट गये है लोग न अपने से जुड़ते हैं न दूसने से वे तो संकीर्णताओं में उलझ कर टूट गये हैं
इस अंधकार में क्यों...आनिवर क्यों प्रवेश नहीं करती सुबह कैसा कैसा समाज है यह
यह समाज सत्य जानने के लिये कुछ नहीं सीनव रहा है यह तो बस नह-नठ कन चीनव उठा हैसम्भालो...और सम्भलो अगर कुछ कर सकते हो तो मुझे बदलो मुझे बदलो
मुझे बदलो।
प्रकाश-पर्व : महावीर /58
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