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जीवन का सहज अंग सदैव बना रहा। भूख प्यास, सर्दी, आंधी, बारिश आदि प्राकृतिक परीषह उनकी अविचल साधना के सम्मुख निस्तेज हो गए।
साधनारत महावीर को कोड़े से पीटने वाले ग्वाले ने क्षमा और अभय का दान पाया। हाथी, शेर, सांप और बिच्छू आदि का रूप धर कर उन्हें सताने वाले यक्ष ने मैत्री, प्रेम व करुणा का अमृत - मंत्र पाया। चंडकौशिक जैसे क्रोधी सर्प ने उनके पांव में विषैले दांत गड़ाकर रक्त के स्थान पर दूध निकलता देखा और आत्म-कल्याण का अचूक बोध पाया। संगम देव ने उन्हें दबा देने वाली धूल की बारिश दी। विषैली चींटियों का आक्रमण उन पर करवाया । भयानक मच्छरों से उनकी देह को पाट दिया। दीमकों की बांबी बना दिया उनका पूरा शरीर सर्पदन्त और उसके बाद विकराल गज-दंत का प्रहार किया उन पर उन्हें जंगली हाथी के पांवों तले रौंदवा डाला पर, महावीर सच में महावीर थे। पर्वत हिले तो वे हिलें। स्वयं को उनका शिष्य घोषित कर अपराध किए और नाटक रचकर उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया । ध्यानस्थ महावीर के पांवों पर लकड़ियां जलाई और उस आग में खीर पकाई भांति-भांति की प्रचंड यातनाओं का अटूट क्रम संगम देव ने उन्हें दिया किन्तु बदले में पाया प्रभु की आंखों में झिलमिलाता महाकरुणा का वह सागर, जो संगम के आगामी दुःखों को देखकर उमड़ आया था। एक ग्वाले ने उनके कानों में लकड़ी की कीलें ठोंक दीं और पायी सुमेरु- सी विराट् तथा मौन क्षमा ।
बारह वर्ष से भी अधिक समय तक भव-बंधन में जकड़ने वाले कर्मों को वे शून्य करते रहे। अंततः जृंभक ग्राम के सीमान्त प्रदेश में ऋजुबालुका नदी के तट पर श्यामक किसान के खेत में शाल वृक्ष के नीचे महावीर गोदोहन आसन लगाकर ध्यानलीन हो गए। पांचों ज्ञानेन्द्रियों और पांचों कर्मेन्द्रियों को अपने तपःपूत हाथों में ऐसे आबद्ध कर लिया जैसे गाय दोहते समय ग्वाले के हाथों में धन आबद्ध होते हैं। उनकी अंतरात्मा विशुद्ध होने लगी। जन्म-जन्मांतर के पाप कर्म नष्ट होने लगे। ज्ञान का अविरल अमृत बरसने लगा । वैशाख शुक्ल दशमी के दिन श्रमण महावीर भगवान् महावीर बन गए। वे सर्वज्ञ हो गए। केवल ज्ञान पा गए असंख्य सूर्यो का प्रकाश जैसे उनमें समा गया हो।
अब जानने के लिए कुछ भी शेष न रहा । बताने के लिए असीम ज्ञान था । दीक्षा ग्रहण करते समय उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि "जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं पाऊंगा तब तक उपदेश नहीं दूंगा।" अब प्राप्त हो चुके अनन्त ज्ञान को अन्य जीवों के कल्याण हेतु बांटने का समय आ चुका था। भगवान् महावीर ने देशना दी उस अर्धमागधी भाषा में, जो उस समय की जन भाषा थी। जीव-जीव ने जाना कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से युक्त जीवन आत्म-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है।
भगवान् महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा किया। अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए बताया कि अर्थ क्या है? भगवान्
महावीर ने फरमाया
'जीओ और जीने दो' का जीवनदायी मंत्र उन्होंने सृष्टि को प्रदान "प्राणी मात्र के प्रति संयम रखना ही अहिंसा है।" संयम रखने का
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“तेसिं अच्छण जोएण निच्चं होयव्चयं सिद्ध मणसा काय वक्केण एवं हवई संजए ॥ "
- दशवैकालिक
अर्थात् मन-वचन-काया से किसी भी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो तो जीव संयमी होता है। इस प्रकार का जीवन जीते रहना ही अहिंसा है। वास्तव में स्वभाव ही प्राकृतिक स्वभाव है। यही कारण है कि अहिंसा जीवन में बिना
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