Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 12
________________ | अनन्त प्रकाश के स्रोत : भगवान महावीर | -सुभद्र मुनि भगवान् महावीर मनुष्यता की सुबह थे। अमानवीयता का अंधकार उनके स्पर्श-मात्र से सिहर उठा। जैसे-जैसे प्रभ की जीवन-यात्रा का सूर्य आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे यह अन्धकार नष्ट होता गया। मानवता के पुष्प खिलते गए। प्राणियों में चेतना संचरित होती गई। अहिंसा के स्रोत, सत्य के प्रकाश, अस्तेय की आत्मा, अपरिग्रह के प्रमाण और ब्रह्मचर्य के तेज-पुंज भगवान् महावीर। अपने-आप में वे उत्तरोत्तर उन्नत होती मनुष्यता का संपूर्ण इतिहास थे और इसी कारण से अपने युग के इतिहास निर्माता भी थे। संस्कृति के इस दिनकर ने ईसा से 599 वर्ष पूर्व बिहार प्रदेश में वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुण्डग्राम में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के पवित्र दिन जन्म ग्रहण किया। ज्ञातृवंश व कश्यप गोत्र के राजा सिद्धार्थ पिता बनकर धन्य हुए और वशिष्ठ गोत्र से सम्बद्ध त्रिशला माता बनकर गौरवान्वित हुई। प्रभु के गर्भवास-काल में जो चौदह दिव्य स्वप्न उन्होंने देखे थे, वे सबके सब एक साथ फलित हुए। उनका मातृत्व सब कुछ पा गया। प्रभु के गर्भवास काल से ही राज्य में वैभव और ऐश्वर्य की अपार वृद्धि हुई। अतएव जन्म ग्रहण करने के ग्यारहवें दिन समारोहपूर्वक उनका नामकरण हुआ-वर्द्धमान। माता-पिता, चाचा सुपार्श्व कुमार, बड़े भाई नंदीवर्धन तथा बड़ी बहन सुदर्शना के वात्सल्य-केन्द्र बने। जब वर्द्धमान आठ वर्ष के हुए तो शिक्षा-प्राप्ति हेतु उन्हें कलाचार्य के पास गुरुकुल में भेजा गया। कलाचार्य बोले-इसमें तो मुझे भी पढ़ाने की सामर्थ्य है।" वर्धमान वस्तुतः स्वयंबुद्ध थे। गर्भ-काल से ही उन्हें मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान प्राप्त थे। ज्ञान के कारण उन्हें 'सन्मति, साहस के कारण 'वीर', पराक्रम के कारण 'महावीर, अत्यधिक धैर्य व शौर्य के कारण अतिवीर' एवम् सभी जीवों की पीड़ा को अपनी पीड़ा के रूप में अनुभव करने के कारण 'करुणावतार' कहा गया। उनका बचपन व कैशोर्य इन सभी नामों को जन्म देने वाली विलक्षण घटनाओं से सम्पन्न रहा। युवा होने पर परिवारजनों ने वर्धमान के न चाहते हुए भी अपनी खुशी के उद्देश्य से वर्धमान का विवाह यशोदा नाम की राजकमारी से कर दिया। दूसरों की भावनाओं के प्रति सम्मान-भाव उनमें कितना अधिक था, यह बताने के लिए उनके जीवन का एक यही सत्य पर्याप्त है कि गर्भ में रहते हुए ही माता-पिता का संतान-मोह जानकर उन्होंने निर्णय कर लिया था--"इनके रहते में दीक्षा-ग्रहण नहीं करूंगा।" माता-पिता अतीत हुए तो बड़े भाई के वात्सल्य का आदर करते हुए दीक्षा को दो वर्ष तक और स्थगित कर दिया परन्तु भाई से यह वचन भी ले लिया कि दो वर्ष बाद वे नहीं रोकेंगे। दीक्षा लेने से पूर्व प्रभु दरिया महादुःख दूर करने के लिए जनसाधारण को एक वर्ष तक प्रति दिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राएं बांटते रहे। ___ मार्गशा दशमी (29 दिसम्बर, ईसा पूर्व 569) के दिन भगवान् ने समस्त भौतिक उपादानों का त्याग करते हुए केशलुंचन मण-दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्यय ज्ञान (दूसरे के मन के सूक्ष्म विचारों का ज्ञान) हो गया। वे मनुन धारक बन गए। संयम के कंटकाकीर्ण पथ पर नंगे पांव उनकी महायात्रा आरम्भ हुई। इस यात्रा में विविध अनेक रोमांचित कर देने वाले भयानक उपसर्ग तथा परीषह उन्होंने समभावपूर्वक सहे। क्षमा का महान धर्म उनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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