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कर देता है।" लोभ के ही वशीभूत मनुष्य धन संपदा के लिये चालाकियां करते हैं। प्लॉटों, मकानों, कोठियों व बंगलों पर अनधिकार कब्जा करते हैं। जायदाद के कागजों की जालसाजी करते हैं। इसके विपरीत महावीर का जीवन देखिये। राजा सिद्धार्थ के मित्र ऋषि दुइज्जंत ने मोराक सन्निवेश स्थित अपने आश्रम में भिक्षुक महावीर से अपना प्रथम वर्षावास व्यतीत करने की प्रार्थना की। महावीर उसे स्वीकार कर चातुर्मासारम्भ में वहां आये। एक कुटी में उन्हें ठहराया गया। उस वर्ष भयानक सूखे के कारण पशुओं को चारा दुर्लभ हो गया। गायें आश्रम की कुटियों की सूखी घास-पुराल आदि खाने लगीं। सभी ऋषि लाठियां लेकर अपनी-अपनी कुटियों की रक्षा करने लगे परन्तु महावीर ने ऐसा नहीं किया। अन्य ऋषियों से शिकायतें पाकर दुइज्जंत ने महावीर को उपालम्भ दिया। कहा, “तुम कैसे क्षत्रिय-पुत्र हो? अपनी कुटी की रक्षा तक नहीं कर सकते?" यह सुनते ही महावीर ने पांच प्रतिज्ञायें की और चल पड़े। वे प्रतिज्ञायें थीं-अप्रीतिकर स्थान पर न ठहरना, सतत ध्यानलीन रहना, मौन रहना, केवल कर पात्र में भिक्षा लेना और गृहस्थ के आदर सत्कार से निरपेक्ष रहना। उस समय चातुर्मास के केवल पन्द्रह दिन बीते थे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि शेष चातुर्मास कहां व्यतीत होगा? यह नहीं सोचा कि सिर पर छत भी नसीब होगी कि नहीं। यही चिन्ता होती तो वे अपने महल ही क्यों छोड़ते? जिसने महल छोड़ दिये, उसके लिये एक कुटिया को छोड़ना क्या कठिन था! वे समझ चुके थे कि कोई भी छत उनके सिर पर सदैव छांव करने में समर्थ नहीं है। इसीलिये सुरक्षा से उन्होंने अपना सम्बन्ध तोड़ लिया। सुरक्षा से सम्बन्ध टूटा तो असुरक्षा से अपने-आप टूट गया। जिसका कुछ नहीं होता, वास्तव में उसी का सब कुछ होता है। जो किसी का नहीं होता, जो अपना भी नहीं होता, वही सबका हो सकता है। सांसारिक छतें महावीर के सिर पर नहीं रही तो पूरा आकाश उनके लिये छत बन गया। एक घर छूटा तो सम्पूर्ण प्रकृति उनका घर बन गई। वे घरों और छतों से स्वाधीन हो गये। लोभ-मोह से स्वाधीन हो गये। सांसारिकता से स्वाधीन हो गये।
अहंकार से भी स्वाधीन थे वे। एक-दूसरे की टांग खींचने और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के अवसर ढूंढ़ने वाले सम्बन्धों के वर्तमान युग में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि महावीर की दृष्टि केवल अपना कल्याण करने तक सीमित कभी नहीं रही। जिन्होंने उन पर घोर अत्याचार किये, उनका भी उन्होंने उद्धार ही चाहा। संगम देव ने जब साधनालीन
वीर की दृढ़ता परखी तो तेज हवा चलाई, काली धूल से भरी आंधी चलाकर उन्हें धूल के ढेर में दबा दिया, विषैली चींटियों और मच्छरों के आक्रमण उनकी देह पर कराये, दीमकें चिपटाईं, बिच्छू-सर्प-हाथी के प्रहार कराये, भयभैरव बनकर उन्हें डराया, देवांगनाओं के प्रयोग से उन्हें विचलित करना चाहा, उनके विषय में मिथ्या आरोप प्रचारित कर उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाया, उनके पांवों से सटाकर लकड़ियां सुलगाई और उस पर खीर बनाई परन्तु महावीर अडोल रहे। पराजित होकर जब संगम जाने लगा तो क्षमा के सुमेरु महावीर की आंखें यह सोचकर डबडबा आईं कि जो कर्म संगम ने बांधे हैं, जब इनका उदय होगा तो इस पर क्या गुजरेगी! ध्यातव्य है कि भयंकरतम यातनायें सहते हुए महावीर की दृष्टि अपनी पीड़ा पर नहीं, संगम के बंधते हुए कर्मों पर थी। अपनी देह का दुःख तो उनके लिये दुःख ही नहीं था। दुःख था तो केवल यह कि अत्याचारी का उद्धार कैसे होगा! परम मनुष्यता के इस उदाहरण से सृष्टि में ऐसा कौन है, जो कुछ सीख नहीं सकता? कौन है जो सीख कर मानवीय स्वाधीनता का चरम शिखर छू नहीं सकता? कौन है जो मिट्टी से पैदा होकर भी आसमान नहीं हो सकता? कोई भी हो सकता है परन्तु इसके लिये अपने व्यक्तित्व को ऐसे स्थान में रूपान्तरित करने वाला सम्यक ज्ञान दर्शन-चरित्र चाहिये, जिसके भीतर अप्रिय पक्षी भी उड़ान भर सकें।
आज सम्यक् ज्ञान दर्शन चरित्र का आलम यह है कि रातों-रात दल बदल जाते हैं। आस्थायें बदल जाती हैं। सत्य बदल जाता है। चारित्र बदल जाता है और इस बदलाव को ज्ञान संचालित नहीं करता। इसे संचालित करती है सत्ता लिप्सा। चुनावों के दौरान वोट के लालच में राजनेता क्या-क्या नहीं कर गुजरते! शायद ही कोई ऐसा चुनाव हो, जिसमें असत्य का प्रयोग न हुआ हो, आस्थाओं का व्यापार न हुआ हो, छल-प्रपंच न हुआ हो और तरह-तरह की हिंसा का सहारा न
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