Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 29
________________ लिया गया हो! यह सब किसलिये? सत्ता और अधिकार-लिप्सा की पूर्ति के लिये। भिक्षु जीवन अंगीकार करने के बाद महावीर पर सबसे पहला संकट तब आया था जब कार ग्राम की सीमा पर वे ध्यानलीन हुए। एक किसान अपने बैलों को उनके पास यह कहकर छोड़ गया कि उन्हें देखते रहना। मैं अभी आया।' मुहूर्त भर बीतते ही वह लौटा तो देखा कि बैल वहां नहीं हैं। रात-भर बैलों को खोजा। सुबह देखा तो बैल महावीर के पास ही चर रहे हैं। सोचा कि इसी ने बैलों को छिपा दिया होगा। उसका क्रोध भड़क उठा। उसने रस्सियों से तत्काल एक कोड़ा बनाया और लगा महावीर को तड़ातड़ पीटने। महावीर अडोल रहे। इन्द्र डोल गया। वह आया और किसान का हाथ पकड़ लिया। साधक महावीर पर आया प्रथम उपसर्ग टल गया। इन्द्र ने साधना-काल में सदैव उनके साथ रहने की प्रार्थना की परन्तु स्वावलम्बी महावीर ने साफ-साफ मना कर दिया। वे चाहते तो स्वर्ग के राजा को अनुचर बना सकते थे। उसके माध्यम से सत्ता-सुख व अधिकार लिप्सा को सन्तुष्ट कर सकते थे परन्तु लिप्सा तो दूर, वे अपनी छोटी-बड़ी इच्छाओं तक को जीत चुके थे। जब इच्छा ही न हो तो कैसी पूर्ति! कैसा भटकाव! कैसा समझौता! कैसी चिन्ता! कैसी दासता! भगवान् महावीर का जीवन इच्छाओं की दासता से मुक्त था। कभी उनकी इच्छा नहीं हुई कि लोग उनके ज्ञान, उनके त्याग और उनकी साधना से प्रभावित हों। उनके गुण गायें। बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी यशोलिप्सा से हार गये पर महावीर से यश की इच्छा हार गई। गोशालक उनका स्वयंभू शिष्य बना। उनसे तेजोलेश्या की शक्ति प्राप्त की और इधर-उधर उस शक्ति का प्रदर्शन कर उसने खूब वाह-वाही लूटी। यश पाया। शिष्य बनाये। सेवा करवाई। इसके विपरीत महावीर ने जब दीक्षा ली तो यह संकल्प भी लिया कि “मैं जब तक पूर्णत्व को प्राप्त नहीं कर लूंगा, तक तक किसी को उपदेश नहीं दूंगा।" बारह वर्ष से भी अधिक साधना-अवधि में वे मौन रहे। थोड़े से ज्ञान से छलकते रहने वाले घड़े जैसे स्वभाव वाले गोशालक तो आज भी बहत मिल जायेंगे परन्तु महावीर एक भी मिलेगा। महावीर नहीं तो महावीर-पथ का सच्चा पथिक तो हुआ ही जा सकता है। सच्चे पथिक भी कम हैं, जो बड़बोलेपन पर नहीं, मौन एवम् निष्काम साधना पर भरोसा करें। जिन्हें बलात्कार के घृणित समाचार पढ़कर महावीर का ब्रह्मचर्य याद आये। जो अपने जीवन को स्वाधीनता के उच्चतम मानवीय मूल्यों की व्याख्या बना सकें। जो व्यक्ति की सच्ची स्वाधीनता के आधार स्रोत हो सकें। व्यक्ति की स्वाधीनता के सुमन विषमता की बंजर जमीन पर नहीं खिला करते। समता की उर्वर भूमि में ही इतनी सामर्थ्य होती है कि वह उन्हें खिला सके। संविधान में उल्लिखित होने भर से राष्ट्र में समता नहीं आती। राष्ट्र में समता तब आती है जब वास्तव में सभी को समान अधिकार हों। सभी के पास आगे बढ़ने के समान अवसर हों। किसी आधार पर कोई भेद-भाव न हो। भगवान् महावीर का धर्म-संघ आदर्श समाज का समर्थ प्रतीक है। हरिकेश मुनि उस समय के समाज में शूद्र कहलाते थे, जिनका प्रभु के धर्म-संघ में सम्मानजनक स्थान था। इन्द्रभूति गौतम और हरिकेश मुनि प्रभु के संघ में आकर ब्राह्मण और शूद्र नहीं रह गये थे। दोनों ही उनके अनुयायी बन गये थे। उनका अनुसरण कर मुक्ति को प्राप्त हुए थे। जिस स्त्री को उनके समय के समाज में खरीदा और बेचा जा चुका था, वह चंदन बाला उनके साध्वी संघ की प्रमुख थी। प्रभु के संघ में साध्वियों व श्राविकाओं की संख्या साधुओं व श्रावकों से कहीं अधिक थी। यह तथ्य इस सत्य का भी सूचक है कि समाज ने जो उपेक्षा और प्रताड़ना स्त्रियों को दी थी, उसका प्रभु के संघ में सर्वथा अभाव था। स्त्रियों ने पुरुषों के ही समान, और अनेक अवसरों पर तो पुरुषों से भी आगे बढ़कर, आत्म कल्याणार्थ कठोर साधनायें कीं। प्रभु का धर्म संघ वास्तव में रत्नाकर था, जिसमें अनेक रंगों की नदियां आकर तो मिलीं परन्तु मिलने के बाद सभी का एक ही रंग हो गया। संयम का रंग। समता का रंग। स्वाधीनता का रंग। वाद-विवाद और कलह इस रंग में शामिल नहीं थे। इस रंग का आलोक था-संवाद। विजय अथवा पराजय उस संवाद के न उद्देश्य थे, न परिणाम । ज्ञान ही उसका उद्देश्य था। ज्ञान ही उसका परिणाम था। जैन धर्म का सम्यक ज्ञान उन संवादों के कारण ही सृष्टि को उपलब्ध हुआ, जो भगवान् महावीर के युग में संभव हुए। कभी यह संवाद सर्वज्ञ प्रभु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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