Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 11
________________ से, भगवान् महावीर के समय का समाज स्त्रियों के प्रति कितना क्रूर था, इसका चित्रण प्रस्तुत पंक्तियों में द्रष्टव्य है—स्त्रियों को भी बनाया जाता है दासियाँ/अपनी इच्छा से वे न हँस सकती हैं—न ले सकती हैं उबासियाँ /उन्हें समझा जाता है/मनोरंजन का सामान/फिर वे/कुओं में कूद कर क्यों न दें अपनी जान उनके लिये/दिवास्वप्न है सम्मान की जगह /कैसा समाज है यह।" इस कृति की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि उपमायें यहाँ अलंकार मात्र के रूप में प्रयुक्त नहीं हुई। अभिव्यक्ति के अलंकरण का ही कार्य वे नहीं करतीं। कविता की अनिवार्यता बन गई हैं वे। प्रभु के जन्म का सृष्टि पर प्रभाव अंकित करते हुए गुरुदेव ने कहा-"जैसे मूर्छित में/चेतना आती है जैसे गंगेपन की जबान गीत गाती है जैसे नेत्रहीन को नेत्र मिलते हैं/जैसे क्रूरता के भीतर आंसू खिलते हैं जैसे अहंकार में आने लगे सरलता/जैसे पत्थर दिल लोभ/उगाने लगे/त्याग की तरलता/जैसे क्रोध की दुनिया में क्षमा मुस्कराये /प्रभु आये।" इन पंक्तियों से यदि उपमायें निकाल दी जायें तो काव्य-सौंदर्य ही नहीं, काव्य अर्थ भी समाप्त हो जायेगा। इस से ज्ञात होता है कि अंतर्वस्तु की अनिवार्य मांग पर ही यहां उपमायें आई हैं, कवि के अलंकार मोह या प्रतिमा प्रदर्शन मोह के कारण नहीं। बालक वर्द्धमान की परीक्षा लेने आया देव जब दैत्य का रूप धरता है तो काव्य चित्रात्मक हो उठता है—"लम्बे नुकीले तीखे/दांत और नाखून दीखे/झाड़ झंखाड़ से बाल/आँखें अंगारों सी लाल।" पेड़ तले खड़े वर्धमान के सामने जब एक पंछी घायल होकर गिर पड़ता है "तो वर्द्धमान का/रोम-रोम कराह उठा/पोर-पोर हो गया/अपने रक्त से रंजित/आंखों में उमड़ आई अहिंसा की नदी।" वर्धमान के भीतर होने वाला भावान्दोलन इन पंक्तियों में देखा जा सकता है। संवादों का भी कुशल उपयोग प्रस्तुत काव्य कृति में किया गया है। शूलपाणि यक्ष अपने पूर्व भव की कथा सुनाता है। बताता है कि वह अपने स्वामी का चहेता बैल था। इतना चहेता कि उसने उसे कभी जोता नहीं था। एक बार स्वामी पाँच सौ गाड़ियां लेकर व्यापार हेतु चला तो वर्धमान ग्राम के निकट नदी के कीचड़ में गाड़ियाँ फँस गई। किसी तरह न निकलीं। तब उसी ने उन्हें निकाला। अत्यंत श्रम से उसके कंधे टूट गये। वह जमीन पर गिर पड़ा। स्वामी ने ग्रामवासियों को धन देकर कहा--"यह जो धरती पर लेटा है/बैल नहीं है यह/मेरा बेटा है इसकी करते रहना सार-संभाल/हर तरह से/रखते रहना ख़याल/ये धन इतना है कि इसका महीनों तक नहीं होगा क्षय/मैं अपने वत्स को साथ ले जाऊंगा लौटते समय/इसके बिना मेरा जीवन/बना रहेगा संत्रास/लो ! मेरा बेटा/मेरी अमानत है तुम्हारे पास।" संवाद मार्मिक हैं। कुशल भाषा प्रयोग का एक और प्रमाण। भगवान महावीर की परीक्षा लेने जब संगम देव चला तो उसे "सुविधा-पोषित अहंकार" कहा गया। सजग शब्द प्रयोग का यह जीवन्त उदाहरण है। कथा प्रवाह को अग्रसर करते बिम्ब इन पंक्तियों में हैं-महावीर एक बार फिर चन्दना की ओर मुड़े/चन्दना के धधकते नेत्र/पुनः शीतलता से जा जुड़े/जो असम्भव लगता था/वही घट गया/अभिग्रह पूर्ण हुआ कुहासा छंट गया/महावीर ने अरसे बाद/करपात्र बढ़ाया/मनुष्य तो मनुष्य/पशु-पक्षियों और देवी-देवताओं के नयनों में भी/हर्ष भर आया।" कथा-प्रवाह के बीच-बीच में सूक्ति बन जाने वाली पंक्तियों का प्रयोग भी हुआ है। जैसे—“सचमुच !/ज्ञान के क्षेत्र में/कभी कोई कुछ नहीं खोता है| यही एक ऐसा मैदान है जिसमें/हारने का भी गर्व होता है।" बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात समेटने की शक्ति यहाँ देखिये—“प्रभु ने/वेदनाओं को हर्ष और पतन को उत्कर्ष बनाया/धर्म-सृष्टि के पैमाने से सिखाया/पाप-पुण्य को मापना/तीर्थंकर महावीर ने की/धर्म संघ तीर्थ की स्थापना जिसके आलोक से धन्य है आज/सम्पूर्ण समाज।" काव्य-शक्ति के और भी अनेक उदाहरण प्रस्तुत कृति में भरपूर हैं। सभी को उद्धृत कर विवेचना की जाये तो एक पूरी पुस्तक तैयार हो जाये। वास्तविकता यह है कि 'प्रकाश-पर्वः महावीर' एक सशक्त काव्यकृति है। भगवान महावीर के सुप्रसिद्ध जीवन-प्रसंगों की पुनर्रचना इस ढंग से करना कि वे प्रसंग नये भी हो जायें तथा अपेक्षाकृत अधिक मार्मिक भी, एक बड़ी चुनौती है। प्रस्तुत काव्य-कृति इस चुनौती का समुचित एवम् सर्जनात्मक प्रत्युत्तर है। जन सामान्य से लेकर साहित्यिक पाठक वर्ग तक, सभी को प्रभावित करने की क्षमता से सम्पन्न है-'प्रकाश-पर्वः महावीर' । आशा है इसका स्वागत भी उतना ही सक्षम होगा, जितनी सक्षम यह स्वयं है। . -डा० विनय विश्वास - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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