Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 19
________________ एक बार पेड़ से पक्षी को फड़फड़ाते हुए नीचे गिरते व दम तोड़ते देखकर चण्ड नाम के भील शिकारी बालक से उन्होंने कहा, “जीने का अधिकार सब को है।" तत्काल बालक ने अपनी गुलेल तोड़कर फेंक दी। वह टूटी गुलेल भगवान् की करुणा का प्रतीक थी। वसन्तपुर के राजा समरवीर व रानी पद्मावती की पुत्री यशोदा से विवाह भगवान् द्वारा परिवार की इच्छा-पूर्ति-मात्र था। पुत्री प्रियदर्शना के पिता बनकर भी वे गृहस्थ-जीवन में योगी के समान कमलवत् निर्लिप्त रहे। अट्ठाईस वर्ष की उम्र में माता पिता अतीत हुए। वैराग्य-जनित सत्य की पुष्टि हुई। गृह-त्याग का संकल्प स्थगित किया तो भ्राता के अश्रुओं के कारण। वचन लिया कि दो वर्ष के बाद वे रोकेंगे नहीं। दो वर्ष की अवधि में पत्नी यशोदा भी संसार से नाता तोड़ गई। दीक्षा से पूर्व भगवान् एक वर्ष तक विशेष रूप से दान करते और निर्धनों के धन बनते रहे। प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान करते रहे। मार्गशीष कृष्ण दशमी (29 दिसम्बर, ईसा पूर्व 569), रविवार के तीसरे प्रहर महावीर जैसे भीतर से थे वैसे ही बाहर से हुए। देवताओं और परिवार-जनों ने उनका दीक्षाभिषेक किया। पंचमुष्टि लुंचन व वस्त्र-आभूषणों का त्याग, करते हुए भगवान् ने तीन करण (करना, करवाना, अनुमोदन करना) तीन योग (मन-वचन-काय) से पाप कर्म त्यागने का सर्वहितकारी संकल्प लिया। उसी समय मनःपर्यय ज्ञान (दूसरे के सूक्ष्म विचार जानने की क्षमता) प्राप्त कर चतुर्ज्ञान धारक हुए। यह प्रतिज्ञा कर वैशाली से चल दिये कि “मैं जब तक पूर्णत्व प्राप्त नहीं कर लूंगा तब तक किसी को उपदेश नहीं दूंगा” देवताओं ने देवदृष्य (बहुमूल्य वस्त्र) अर्पित कर अपनी श्रद्धा निवेदित की। असार संसार की भांति देवदूष्य कब चला गया, महावीर ने नहीं जाना। तप व उपसर्गों की अग्नि से भगवान के कुंदन बनने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। एक ग्वाला उन से अपने बैलों का ध्यान रखने के लिए कहकर चला गया। लौटा तो बैल न थे। पूछा तो मौन मिला। क्रुद्ध होकर रस्से से कोड़ा बनाया और निर्ममतापूर्वक पीटता गया उन्हें। इन्द्र ने उसे वास्तविकता बताई और ग्वाला भगवान् के चरणों में सिर रखकर रोने लगा। ध्यानोपरान्त महावीर ने उसे अभय किया और अपने साथ रहने का इन्द्रकृत अनुरोध अस्वीकार कर दिया। कार ग्राम के सीमान्त प्रदेश की यह घटना उपसर्गों और भगवान् की दृढ़ता के बीच वर्षों जारी रहने वाले संवाद का आरम्भ थी। भगवान् देह-बोध तज चुके थे। उनके विमल भावों की सुगन्ध देह के सहस्र-सहस्र रोम-कूपों से प्रवाहित होकर भंवरों को आमंत्रित करती। वे उन्हें स्थान-स्थान पर काटते किन्तु विदेह हो चुके थे-महावीर। मोराकसन्निवेश ग्राम के निकट बने आश्रम के कुलपति दुइज्जंत का वर्षावास निमन्त्रण स्वीकार कर वे आश्रम की एक कुटी में ध्यानावस्थित हो गए। सूखे के कारण गायें कुटियों का घास-फूस खाने लगीं। अन्य तपस्वियों के समान महावीर ने अपने सिर की छत बचाने के लिए भूखी गायों को मार कर नहीं भगाया तो दुइज्जंत ने उपालम्भ दिया। साधना से अधिक साधनों को महत्व देने वाला यह स्थान उन्होंने तत्काल छोड़ दिया और पांच प्रतिज्ञाएं की : 1 निन्दा-स्तुति वालों के संग-साथ से सदा दूर रहना। 2. साधना हेतु सुविधाजनक सुरक्षित स्थान का चुनाव न करना और अपने को पूर्णतः प्रकृति को सौंप कर कायोत्सर्ग की साधना करना। 3. भिक्षा मांगने व मार्ग पूछने के अतिरिक्त सर्वथा मौन रहना। 4. करपात्र में ही भोजन करना। 5. गृहस्थ के आदर-सत्कार से निष्पक्ष रहना। साधना में लीन महावीर अस्थिग्राम पहुंचे। गांव को अपनी प्रतिशोधाग्नि से लगभग भस्म कर के शूलपाणि यक्ष के शून्य यक्ष-मन्दिर में ध्यान लगाया। यक्ष ने उनका यह साहस देख कर हाथ, सर्प, दैत्य आदि रूपों में उन्हें सताया किन्न वे अभय एवम् अडिग रहे । यक्ष को सम्बोधि प्रदान की, आग नहीं बुझती। क्षमा के नीर से ही बैर की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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