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भगवान् महावीर : धर्म-चक्र प्रवर्तन
-सुभद्र मुनि
भगवान महावीर अपने युग में उसी तरह आये जैसे भ्रम में ज्ञान, हिंसा में अहिंसा, कर्मकाण्डवाद में वास्तविक मनुष्यत्व, कट्टरता में अनेकान्ती उदारता, वैषम्य में समता, दुराचार में सदाचार, लालच में अपरिग्रह, स्वार्थ में अचौर्य और तानाशाही में गणतंत्र आता है। अपने देश और काल में सार्थक मानवीय हस्तक्षेप का पर्याय थे महावीर, जिनका स्पर्श पा लेने के बाद विश्व-दृष्टि में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन आया और विश्व-जीवन में भी। परिवर्तन के इस स्वरूप को पहचानना ही वस्तुतः भगवान महावीर के योगदान को पहचानना है। जीवन का शायद ही कोई पक्ष ऐसा हो, जो उक्त परिवर्तन से अछूता रहा हो। इसका कारण यह है कि जीवन की नियामक शक्तियों (जीवन-दृष्टि और जीवन-पद्धति) में परिवर्तन घटित हुआ था। दृष्टि बदल जाने पर संसार का बदल जाना उसी तरह स्वाभाविक था, जैसे बारिश के बाद पेड़-पौधों में नवरूप का आना स्वाभाविक होता है।
महावीरकालीन धार्मिक परिवेश का सिंहावलोकन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि वह समय प्रमुख रूप से या तो अज्ञान द्वारा संचालित था और या फिर स्वार्थों द्वारा। एक ओर अंधविश्वास का अजगर लगभग समूचे धर्मक्षेत्र पर पसरा था तो दूसरी ओर साम्प्रदायिक संकीर्णताएं उस समय के रास्तों पर कदम-कदम पर बिछी हुई थीं। यज्ञ प्रधान कर्म-काण्ड एवं पाखण्ड तयुगीन उपासना के रूप थे। धर्म समाज के सम्पन्न व शक्तिशाली वर्ग का विशेषाधिकार बनकर वंचितों पर कोड़ों की तरह बरसता था। ऐसे में महावीर उपासना के सर्वसुलभ रूप लेकर प्रकट हुए। जन-जन को उद्बोधन देते हुए उन्होंने कहा, “अहिंसक यज्ञ के लिए आत्मा का अग्नि-कुण्ड बनाओ। उसमें मन, वचन और कर्म की शुभ प्रवृत्ति रूप घृत उड़ेलो। अनन्तर तप रूपी अग्नि के द्वारा दुष्कर्मों को ईंधन के रूप में जलाकर शांति रूप प्रशस्त होम करो।" आत्मा सबके पास थी। मन-वचन-कर्म की शुभ प्रवृत्तियां सबके पास थीं। वे घी आदि की तरह निर्धनों को दुर्लभ नहीं थीं। तप करने के लिए किसी प्रदर्शन प्रिय कर्म-काण्ड की आवश्यकता नहीं थी। अपने आपको जानने तथा पाने का यह यज्ञ संकल्प-मात्र से संभव था और वह भी प्रत्येक के लिए। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय के रूप में उपासना के जिन मार्गों की ओर महावीर ने संकेत किया, वे राजपथ नहीं जन पथ थे। आमंत्रित करते थे उन शूद्रों को, जिनके कान ज्ञान सुनने के अपराध में पिघले सीसे से भर दिये जाते थे; बुलाते थे उन स्त्रियों को, जिन्हें वस्तुओं की तरह इस्तेमाल किया जाता था। भगवान् महावीर की पहली क्रान्तिकारी देन थी-उपासना को सबका सहज अधिकार बना देना। उनकी दूसरी देन थी-नरबलि व पशु-बलि को अन्याय व अधर्म घोषित करते हुए प्राणिमात्र को अभय प्रदान करने की दिशा में यात्रा करना। इस यात्रा के दौरान प्राप्त ज्ञानात्मक अनुभव सभी को बांटते हुए भगवान् का कहना था कि जीवों के प्रति हिंसा अपने ही प्रति हिंसा है और जीवों के प्रति करुणा भी अपने ही पति करुणा है। ज्ञानी असल में वह है, जिसने हिंसा छोड़ दी। जीना सब चाहते हैं। भगवान् बोले, “जब तुम किसी मृत व्यक्ति को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मारने का तुम्हें क्या अधिकार है?" हिंसा की विभीषिका से ग्रस्त समय में उन्होंने अहिंसा को परमधर्म बतलाया और जीव-मात्र के जीवन पर अधिकार की वकालत की। संवेदनशीलता में अपने आचरण से अर्थ भरते हुए पेड़-पौधों तक में जीवन बताया। उनके
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