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यौगलिकों की समस्याओं को इन तीन दंड विधियों से कुलकर समय-समय पर सुलझाते रहे । यौगलिकों के सामने खाद्य - समस्या थी । कल्पवृक्षों की कमी और उस कारण फलों की अल्पता का जो दौर चल रहा था उसका कोई सार्थक उपाय नहीं सोचा गया। इसी कारण ये दंड विधियां सातवें कुलकर नाभि के समय निस्तेज हो गई जिससे नियंत्रण ढीला हो गया । छीना-झपटी में यकायक बढ़ोतरी हो गई। नाभि कुलकर के पास आए दिन यौगलिकों की ये समस्याएं आने लगीं । इनका निराकरण न कर पाने के कारण नाभि खिन्न मना हो गए। उस समय ऋषभ का अवतरण हुआ ।
तीर्थंकर की महत्ता
जैन धर्म में सर्वथा कर्ममुक्त आत्म-शक्ति संपन्न विभूति सिद्ध । वह शरीर, जन्म-मरण, भौतिक सुख-दुःख से मुक्त है। जैन साधना पद्धति का चरम लक्ष्य सिद्धत्व प्राप्ति ही है । अर्हत् जैन धर्म के मुख्य धुरी होते हैं। वे चार कर्म का क्षय कर सर्वज्ञ की भूमिका पा लेते हैं । अर्हत् जन-कल्याण के महनीय उपक्रम के मुख्य संवाहक होते हैं। उनके द्वारा बोले गए हर बोल छद्मस्थ मुनियों व धर्म शासन के लिए पथ- दर्शक बन जाते हैं। इसी वजह से नमस्कार महामंत्र में अर्हतों को सिद्धों की अपेक्षा (संपूर्ण आत्म-उज्ज्वलता होने पर भी) पहले नमस्कार किया गया है । अर्हत्, जिन, तीर्थंकर आदि पर्यायवाची शब्द हैं ।
सर्वज्ञ व तीर्थंकर में आत्म-उपलब्धि की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। दोनों केवल- ज्ञान व केवल दर्शन को संप्राप्त हैं। फिर भी दोनों में कुछ मौलिक अंतर हैं
तीर्थंकर
• पहले पद में होते हैं ।
० नाम कर्म का उदय
० नरक व देवगति से आये हुए ही बनते हैं ।
• वेदनीय कर्म शुभ-अशुभ दोनों अवशिष्ट तीन अघाति कर्म एकांत शुभ होते हैं । ० १,२,३,५,११ वां गुणस्थान स्पर्श नहीं होता ।
तीर्थंकर चरित्र / ७
• केवली समुद्घात नहीं होता ।
०
संस्थान समचतुरस्त्र
• १५ कर्म भूमि में होते हैं उसमें भी आर्य क्षेत्र में ही होते हैं ।
सर्वज्ञ
पांचों पद में होते हैं । क्षायिक भाव से प्राप्त
चारों गतियों से आकर बन सकते हैं।
आयुष्य एकान्त शुभ, शेष
शुभ-अशुभ दोनों होते हैं । केवल ११ वां गुणस्थान स्पर्श नहीं करते ।
हो सकता है
छह में से कोई भी
साहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप में कहीं भी