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३४/तीर्थकर चरित्र
श्रेयांसकुमार ने निवेदन किया, "भंते! इक्षु-रस के १०८ घड़े प्रासुक हैं, आप ग्रहण करें।" ऋषभ ने वहां स्थिर होकर दोनों हथेलियों को सटाकर मुख से लगा लिया। राजकुमार श्रेयांस ने उल्लसित भावना से इक्षु-रस का दान दिया। इस प्रकार इक्षु-रस से भगवान् का पारणा हुआ। देवों ने पंच द्रव्य प्रकट किये । 'अहोदानं' की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। दान की महिमा व विधि से लोग परिचित हुए। प्रथम भिक्षुक ऋषभ और प्रथम दाता श्रेयांसकुमार कहलाये । ऋषभ के एक संवत्सर की तपस्या के बाद दान-धर्म की स्थापना हुई। इसके बाद ही लोग धीरे-धीरे दान-धर्म के आदी बने । इक्षु-रस के दान से वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन 'अक्षय' हो गया। इसे इक्षु-तीज 'आखा तीज' या 'अक्षय-तृतीया' के नाम से जाना जाने लगा। ऋषभ के वर्षीतप के पारणे का इतिहास इसके साथ जुड़ जाने से यह वर्ष का स्तंभ-दिन माना जाने लगा। आगे चलकर और घटनाएं भी इसके साथ जुड़ती गई । आज भी अक्षय-तृतीया का दिन अनेक घटनाओं, परम्पराओं का संगम-स्थल बना हआ है। विद्याधरों की उत्पत्ति
ऋषभ के सौ पुत्रों के अतिरिक्त दो कुंवर और ऐसे थे, जिनको उन्होंने पुत्र की तरह ही वात्सल्य दिया। वे महलों में ही रहते थे पता नहीं उनके माता-पिता जीवित थे या उनके जन्मते ही मर गये थे। वे ऋषभ के यहां ही बड़े हुए थे। उनके नाम थे नमि और विनमि। दोनों भाई भगवान् के द्वारा सुझाये गये प्रत्येक अभियान को जनता तक पहुंचाने में बड़े सिद्धहस्त थे। संयोगवश दोनों ही किसी कार्य को लेकर सुदूर प्रदेशों में गये हुए थे। पीछे से ऋषभ ने अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी।
जब वे दोनों वापिस आये तो पता चला कि बाबा सब कुछ छोड़कर जा चुके हैं । भरत आदि से उन्होंने पूछा-'हमारे लिए बाबा ने क्या कहा है? कौन-सा प्रदेश दिया है?' भरत ने कहा-' बाबा ने तो कुछ नहीं दिया, लो मैं दे देता हूं, ताकि तुम्हारी व्यवस्था ठीक से चल सके ।' दोनों ने तमककर कहा-'तुम देने वाले कौन हो? लेंगे तो बाबा से ही लेंगे, तुम्हारे से नहीं।' भरत ने कहा- बाबा ने तो बोलना ही बन्द कर दिया है, देंगे क्या', दोनों ने कहा-'देखो, हम जाते हैं, कभी न कभी तो मौन खोलेंगे ही, कुछ न कुछ तो लेकर ही लौटेंगे।'
दोनों भाई बाबा के पास आये और मीठे उपालम्भों के साथ कुछ न कुछ देने की मांग की। प्रभु मौन थे। वे भी साथ में रहने लगे और सुबह, शाम मध्याह्न में जोर-जोर से बोलकर अपनी मांग को दुहराने लगे। ___कई दिनों के बाद सुरपति इन्द्र भगवान् के दर्शनार्थ आये । इन दोनों भाइयों की हठपूर्वक मांग उन्होंने सुनी । सोचने लगे-'प्रभु निवृत्त हो चुके हैं, ये दोनों कुछ