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भगवान् श्री अरिष्टनेमि/१४५
मेरे घर पर तीन बार मुनि युगल पधारे। किन्तु द्वारिका में वैसे दान देने की भावना तो विद्यमान है न? साधुओं को शुद्ध आहार का योग तो मिलता है न ?' सुनकर प्रभु मुस्कराये। सहज मुद्रा में कहा-'नहीं देवकी ! ऐसी बात नहीं हैं। तीन बार आने वाले वह एक युगल नहीं अलग-अलग थे' । सुनकर देवकी चौंक पड़ी । पुनः पूछा-'प्रभो ! वे एक जैसे ही तो थे!'
प्रभु बोले- हां, ये सहोदर भाई हैं। रूप-रंग व संस्थान में सर्वथा समान हैं। देवकी-भगवन् ! इन कामदेव जैसे दिव्य रूप के धारक पुत्रों को किस माता ने जन्म दिया?' प्रभु–'देवकी ! इनकी माता तो तुम्ही हो।' __विस्मित देवकी को भगवान् ने आगे बताया-'भद्दिलपुर की सुलसा गाथापत्नी की देव-भक्ति से प्रसन्न होकर हरिणगमेषी देव ने तुम्हारे इन पुत्रों को जन्मते ही वहां रख दिया और उसके मृत पुत्रों को तुम्हारे यहां । इन मृत पुत्रों को कंस ने फिकवा दिया था। देवकी! ये तुम्हारे ही अंगजात है। इनका पालन-पोषण हुआ हैं नाग गाथापति की पत्नी सुलसा की गोद में ।' प्रभु ने छहों मुनियों को उपस्थित होने का निर्देश दिया।
छहों मुनि उपस्थित हुए। एक जैसे छहों पुत्रों पर देवकी के हृदय में अपूर्व वात्सल्य उमड़ पड़ा। स्तनों से दूध की धारा बह चली । अनिमेष नेत्रों से वह उन मुनियों को देखने लगी । बात सुनकर वासुदेव श्रीकृष्ण, बलरामजी आदि पारिवारिक लोग भी आ गये। कृष्ण अपने अग्रजों को देखकर भाव-विहल हो उठे । अन्त में वंदन कर सब वापस चले गए। किन्तु देवकी उदास रहने लगी और सोचने लगी'सात पुत्रों को जन्म देकर भी मैंने एक को भी दूध नहीं पिलाया, गोद में नहीं खिलाया, अपना वात्सल्य नहीं दिया, फिर क्या है मां बनने में?' इसी चिन्तन में वह रात-दिन अनमनी सी रहने लगी।
कृष्ण महाराज ने जब अपनी माता से उदासीनता का कारण पूछा तो देवकी की आंखों से अश्रुधारा बह चली। गद्गद् स्वर में अपनी मनोव्यथा सुनाती हुई बोली-'कृष्ण ! सात-सात दिग्गज पुत्रों को जन्म देकर एक को भी मैंने दूध नहीं पिलाया, गोद में नहीं खिलाया । एक पुत्र को भी, यदि बाल-क्रीड़ा करते देख लेती तो मन में खटक नहीं रहती। कृष्ण महाराज तत्काल उठ कर पौषध शाला में आये, अटठम (तेला) तप करके कुल देव को याद किया। देव के प्रकट होने पर कृष्ण ने पूछा-'मेरे छोटा भाई होगा या नहीं ?' देव ने अपने दिव्य ज्ञान से देख कर कहा-'तुम्हारे एक भाई और होगा, किन्तु वह बचपन में ही दीक्षित हो जायेगा।' कृष्ण वासुदेव ने देवकी के पास आकर यह सूचना दी- 'स्वर्ग से एक और जीव आपकी कुक्षि से उत्पन्न होगा। इस प्रकार हम सात नहीं, आठ भाई हो जायेंगे।' सुनकर देवकी अत्यधिक प्रसन्न हुई।