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भगवान् श्री महावीर / १८९
बाल क्रीड़ा
वर्धमान कुमार ने आठवें वर्ष में प्रवेश किया। एक बार वे अपने समवयस्क साथियों के साथ 'आमलकी' खेल खेलने लगे। उस समय सौधर्मेन्द्र ने अपनी सभा में बालक वर्धमान के बुद्धि कौशल व साहस की प्रशंसा की और कहा- 'उनके साहस का मुकाबला मनुष्य और तिर्यंच क्या देव शक्ति भी नहीं कर सकती । एक देव को इन्द्र की इस बात में अतिशयोक्ति दिखाई दी। वह बालक वर्धमान को पराजित करने के लिए नीचे आया जहां वे खेल रहे थे। वर्धमान उस समय साथी बालकों के संग वृक्ष पर चढ़े हुए थे। वह देव भयंकर सर्प का रूप बना कर उसी वृक्ष की एक शाखा पर लिपट गया और फुफकार करने लगा। सारे बच्चे सर्प को देखकर चिल्ला उठे - 'बचाओ ! बचाओ !! जहरीला सर्प पेड़ पर है।' वर्धमान थोड़े आगे बढ़े और उस सर्प को पकड़ कर दूर फैंक दिया।
पुनः खेल प्रारंभ हुआ। बालक अब 'तिंदूसक' खेल खेलने लगे। इसमें यह नियम था कि अमुक वृक्ष को लक्ष्य करके बच्चे दौड़ते हैं। जो लड़का सबसे पहले उस वृक्ष का स्पर्श कर लेता है वह विजयी और शेष पराजित हो जाते है । बालक रूपधारी देव खेल में कुमार वर्धमान से हार गया । नियमानुसार कुमार उसकी पीठ पर बैठे। वह ज्यों-ज्यों दौड़ता है उसका शरीर लंबा होता गया । दैत्याकार व प्रलंब देह को देखकर सब बच्चे चिल्ला कर भागने लगे। इस चिल्लाहट को सुनकर आस-पास में लोग काफी संख्या में इकट्ठे हो गये। इस दैवी माया को समझते कुमार को देर नहीं लगी । कुमार ने उसकी पीठ पर मुष्ठि प्रहार किया । वर्धमान के तीव्र प्रहार को देव सह नहीं सका। वह तुरंत नीचे बैठ गया । उसे निश्चित विश्वास हो गया कि कुमार को हराना उसकी शक्ति के बाहर है। तुरंत वह अपने वास्तविक रूप में आकर बोला- 'कुमार ! इन्द्र ने जैसी आपकी प्रशंसा की, वैसे ही आप है । मैं तुम्हारा परीक्षक बनकर आया था और प्रशंसक बनकर जा रहा हूं। आप सचमुच में महावीर हो ।'
पाठशाला में
बाल-क्रीड़ा के बाद प्रभु जब आठ वर्ष के हुए तो महाराज सिद्धार्थ बालक वर्धमान को पाठशाला में ले गये। शक्रेन्द्र को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि राजा त्रिज्ञानज्ञ प्रभु को पढ़ाने के लिए पाठशाला ले जा रहे हैं। कलाचार्य इनको क्या पढ़ायेगा ? किन्तु लोगों को पता नहीं हैं। शक्रेन्द्र स्वयं आये, पाठशाला के उपाध्याय एक पट्ट पर आसन लगाकर बैठे थे । वर्धमान कुमार को नीचे बिठाया गया था। अध्ययन प्रारम्भ होने ही वाला था कि इन्द्र एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर उपाध्याय के पास पहुंचे और व्याकरण सम्बन्धी जिज्ञासाएं प्रस्तुत की । उपाध्यायजी प्रश्न सुनकर चकरा गये। हतप्रभ हो आकाश की ओर देखने लगे ।