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२१६/ तीर्थंकर चरित्र
भाव से सहन करने का प्रयत्न किया ।
कुछ समय में देववृन्द आकाश से उतरने लगे। चारों तरफ भगवान् के निर्वाण की चर्चा होने लगी। लोग घरों से निकल-निकल कर आने लगे, किन्तु अमावस्या की रात्रि में लोगों की अंधेरी गलियां पार करने में कठिनाई हो रही थी। कहते हैं- देवों ने मोड़-मोड़ पर रत्नों से प्रकाश किया। प्रभु के निर्वाण स्थल पर रत्नों की जगमगाहट लग गई। चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया । गौतम स्वामी को केवलज्ञान
वहां उपस्थित लिच्छवी, वज्जी तथा मल्ली गणराज्य के प्रमुखों ने निर्वाण दिवस प्रतिवर्ष मनाने की घोषणा की । रत्नों की जगमगाहट के स्थान पर दीप जलाकर प्रकाश करने की व्यवस्था की गई। भगवान् ने आज के दिन परम समृद्धि को प्राप्त किया था, अतः कार्तिक अमावस्या को प्रकाश का पर्व, समृद्धि का पर्व माना जाने
लगा ।
चर्चा करते हुए गौतम स्वामी को जब प्रभु के निर्वाण का पता लगा तो तत्काल वापिस आ गये। भगवान् के निस्पंद शरीर को देखकर वे मोहाकुल बनकर मूच्छित हो गये । सचेत होने पर पहले तो उन्होंने विलाप किया, किन्तु तत्काल भगवान् की वीतरागता पर विचार करने लगे । चिन्तन की गहराई में पहुंच कर स्वयं रागमुक्त
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बन गये । क्षपकश्रेणी लेकर उन्होंने केवलत्व प्राप्त किया । भगवान् का निर्वाण और गौतम स्वामी की सर्वज्ञता दोनों अमावस्या के दिन ही हुए थे, अतः कार्तिक की अमावस्या का दिन जैनों के लिए ऐतिहासिक पर्व बन गया ।
शरीर का संस्कार
देवों, इन्द्रों तथा हजारों-हजारों लोगों ने मिलकर भगवान् के शरीर का अग्नि-संस्कार किया । सुसज्जित सुखपालिका में प्रभु के शरीर को अवस्थित किया । निर्धारित राज-मार्ग से प्रभु के शरीर को ले जाया गया। पावा नरेश हस्तिपाल विशेष व्यवस्था में लगा हुआ था । अपने प्रांगण में भगवान् के निर्वाण से अत्यधिक प्रसन्न भी था तो विरह की व्यथा से गंभीर भी बना हुआ था। बाहर से आये हुए अतिथियों की समुचित व्यवस्था तथा भगवान् के अग्नि-संस्कार की सारी व्यवस्थाओं का केन्द्र राजा हस्तिपाल ही था । देवगण अपनी-अपनी व्यवस्था में लगे हुए थे । अग्नि-संस्कार के बाद लोग भगवान् के उपदेशों का स्मरण करते हुए अपने-अपने घरों को गये । भगवान् का निर्वाण हुआ तब चौथे आरे के तीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी थे। तीर्थ के बारे में प्रश्न
गौतम स्वामी ने एक बार भगवान् से पूछा था- 'भगवन् ! आपका यह तीर्थ कब तक रहेगा ?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'मेरा यह तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा। अनेक-अनेक साधु-साध्वियां तथा श्रावक-श्राविकाएं इसमें विशेष साधना