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२१८/तीर्थंकर चरित्र
धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई
भगवान् से पूछा गया- 'आप द्वारा प्रतिपादित धर्म को कौन ग्रहण कर सकता है?' उत्तर में प्रभु ने कहा- 'मेरे द्वारा निरूपित शाश्वत धर्म को हर व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। कोई बन्धन नहीं है। जाति, वर्ग या चिन्ह धर्म को अमान्य हैं। शाश्वत धर्म को स्वयं में टिकाने के लिए हृदय की शुद्धता जरूरी है। अशुद्ध हृदय में धर्म नहीं टिकता। धर्म के स्थायित्व के लिए पवित्रता अनिवार्य है। पशु-बलि का विरोध
यज्ञ के नाम पर होने वाले बड़े-बड़े हिंसाकांडों के विरूद्ध भी महावीर ने आवाज उठाई। निरीह मूक पशुओं को बलि देकर धर्म कमाने की प्रचलित मान्यता को मिथ्यात्व कहा। उन्होंने स्पष्ट कहा- हिंसा पाप है । उससे धर्म करने की बात खून से सने वस्त्र को खून से ही साफ करने का उपक्रम है। हिंसा से बचकर ही धर्म कमाया जा सकता हैं। स्त्री का समान अधिकार ___ भगवान् महावीर ने मातृ-जाति को आत्म-विकास के सारे सूत्र प्रदान किये। उनकी दृष्टि में स्त्री, पुरुष केवल शरीर के चिन्हों से है। आत्मा केवल आत्मा है। स्त्री या पुरुष के मात्र लिंग से कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्म विकास का जहां तक सवाल है, स्त्री पुरुषों के समकक्ष है। मातृ-शक्ति को धर्म से वंचित करना बहुत बड़ा अपराध है, धार्मिक अंतराय है। जन-भाषा में प्रतिबोध
भगवान् महावीर ने अपना प्रवचन सदैव जन-भाषा में दिया। मगध और उसके आस-पास के लोग अर्ध मागधी भाषा का प्रयोग करते थे। भगवान् ने भी अपना प्रवचन अर्ध-मागधी में ही दिया। जनसाधारण की भाषा बोलकर वे जनता के बन गये। जैनों के मूल आगम आज भी अर्ध मागधी भाषा में उपलब्ध है। दास प्रथा का विरोध
भगवान् महावीर ने व्यक्ति की स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया था। उन्होंने दास-प्रथा को धर्म-विरूद्ध घोषित किया। किसी व्यक्ति को दास के रूप में खरीदना, अपना गुलाम बनाकर रखना हिंसा है। हर व्यक्ति की स्वतंत्रता स्वस्थ समाज का लक्षण है। किसी को दबाकर रखना उसके साथ अन्याय है। उन्होंने स्पष्ट कहामेरे संघ में सब समान होंगे। कोई दास नहीं हैं, एक दूसरे का कार्य, एक दूसरे की परिचर्या निर्जरा भाव से की जायेगी, दबाव से नहीं । दास-प्रथा सामूहिक जीवन का कलंक हैं। अपरिग्रह
अपरिग्रह का उपदेश महावीर की महान् देन है। उन्होंने अर्थ के संग्रह को