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१९८/तीर्थंकर चरित्र
सावत्थी, कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह और मिथिला आदि क्षेत्रों में परिभ्रमण करते हुए वैशाली पधारे। वहां चातुर्मासिक तप के साथ चातुर्मास किया। जीर्ण सेठ की उत्कट भावना ___वैशाली में जिनदत्त नामक श्रेष्ठी रहता था। आर्थिक स्थिति कमजोर होने से वह जीर्ण सेठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वह भगवान् के हमेशा दर्शन करने जाता और अपने घर पारणा के लिए भावपूर्ण प्रार्थना करता। पूरे चातुर्मास वह इसी तरह भावना भाता रहा। __चातुर्मास परिसमाप्ति पर भगवान् आहार के लिए निकले और भिक्षाटन करते हुए पूरण सेठ के घर पहुंचे। भगवान् को देखकर पूरण सेठ ने दासी को आदेश दिया और उसने कुलत्थ बहराये। देवों ने पंच द्रव्य प्रकट किये। जब देवों ने दिव्य वृष्टि के साथ “अहोदानं" की देव-दुंदुभि की तो जीर्ण सेठ के भावना की श्रृंखला टूटी। वह घर पर बैठा भगवान् के पधारने की बाट जोह रहा था। इस उत्कट भावना में जीर्ण सेठ ने बारहवें देवलोक का आयुष्य बांधा । भगवान् को जब उत्कृष्ट दानी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने जीर्ण सेठ को सबसे बड़ा दानी बताया। साधना का बारहवां वर्ष : चमरेन्द्र की शरण
वैशाली का पावस प्रवास संपन्न कर भगवान् सुंसुमार पधारे । वहां अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हो गये। उस समय भगवान् बेले-बेले की तपस्या कर रहे थे। उस समय असुरों की राजधानी चमरचंचा में “पूरण" बाल तपस्वी का जीव इन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसने अवधि ज्ञान से अपने ऊपर शक्रेन्द्र को दिव्य भोग भोगते देखा । इस पर उसे बहुत गुस्सा आया तब सामानिक इन्द्रों ने बताया'शक्रेन्द्र सदा इसी स्थान का उपयोग करते आये हैं।' इतने पर भी चमरेन्द्र को संतोष नहीं हुआ।
शक्रेन्द्र की ऋद्धि-सिद्धि विनष्ट करने हेतु भगवान् के पास आया और कहा'मैं आपकी शरण लेकर शक्र की शोभा को समाप्त करने जा रहा हूं।' उसने वैक्रिय रूप बनाया, शक्रेन्द्र की राज्यसभा में आया और ललकारते हुए देवलोक की शोभा को खत्म करने की बात कहने लगा। इस पर शक्रेन्द्र अतीव कुपित हो गये और उसे मारने के लिए वज्र फेंका। बिजली के स्फुलिंगों को उछालता हुआ वह वज्र ज्योंही आगे बढ़ा, असुरराज भयभीत होकर नीचे सिर व ऊपर पैर कर भागा और भगवान् के चरणों के बीच गिर पड़ा।
शक्रेन्द्र को इतने में चिंतन आया- चमरेन्द्र की इतनी ताकत नहीं कि वह स्वयं ऊपर आ जाये | विचार करते हुए अवधिज्ञान से उन्हें पता चला- यह तो भगवान् महावीर की शरण लेकर आया है। कहीं इससे भगवान् को कष्ट न हो जाये। इस चिंतन के साथ इन्द्र तीव्र गति से दौड़ा और भगवान् से चार अंगुल दूर रहते वज्र