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भगवान् श्री महावीर/२०७
सर्वज्ञता का नौवां वर्ष
वैशाली का चातुर्मासिक प्रवास परिसंपन्न कर प्रभु मिथिला होते हुए काकन्दी पधारे। वहां का राजा जितशत्रु दर्शनार्थ आया । भद्रा सार्थवाहिनी का पुत्र धन्य वैभव को छोड़कर दीक्षा ली। सुनक्षत्र भी मुनि बने । कंपिलपुर में कुंडकौलिक ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। वहां से प्रभु पोलासपुर पधारे।।
पोलासपुर में प्रभु का प्रवचन सुनकर धनाढ्य कुंभकार सद्दालपुत्र व उनकी पत्नी अग्निमित्रा श्रमणोपासक बन गये। दोनों पूर्व में गोशालक के आजीवक मत के अनुयायी थे। जब गोशालक को इस बात का पता चला तो वह अपने संघ के साथ सद्दालपुत्र के पास आया और उसे पुनः आजीवक मत में आने के लिए समझाने लगा। सद्दालपुत्र पर गोशालक का कोई असर नहीं पड़ा । भगवान् ने इस वर्ष का चातुर्मास वाणिज्यग्राम में किया। सर्वज्ञता का दसवां वर्ष
वर्षावास प्रवास संपन्न कर भगवान् राजगृह पधारे । वहां महाशतक गाथापति ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। पार्श्व परंपरा के अनेक श्रमणों ने चातुर्याम धर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म में प्रवेश किया। इस वर्ष चातुर्मास राजगृह में किया। सर्वज्ञता का ग्यारहवां वर्ष
चातुर्मास के बाद भगवान् कृतंगला पधारे और वहां छत्रपलास चैत्य में विराजे। उस समय श्रावस्ती में विद्वान् परिव्राजक कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक रहता था। उसकी पिंगल निर्ग्रन्थ से भेंट हुई। पिंगल ने कई प्रश्न पूछे, पर स्कन्दक उनका उत्तर देने में सशंकित हो गया। इन प्रश्नों का समाधान पाने महावीर के पास पहुंचा। अपनी शंकाओं का समाधान पाकर भगवान् के पास दीक्षा ले ली। कृतंगला से श्रावस्ती होकर वाणिज्यग्राम में प्रभु ने चातुर्मास किया। सर्वज्ञता का बारहवां वर्ष
वर्षाकाल पूरा होने पर प्रभु ब्राह्मण कुंड के बहुशाल उद्यान में पधारे। यहां जमालि अपने पांच सौ मुनियों के साथ अलग विचरने के लिए भगवान् से अनुमति मांगी तो भगवान् मौन रहे, फिर वह स्वतंत्र होकर पांच सौ साधुओं के संग विहार करने लगे। वहां से कौशंबी पधारे । यहां सूर्य व चन्द्रमा अपने मूल रूप में भगवान् के दर्शनार्थ आये। यह भी एक "अछेरा"- आश्चर्य माना गया । कौशंबी से विहार कर महावीर चातुर्मास हेतु राजगृह पधारे । सर्वज्ञता का तेरहवां वर्ष
राजगृह चातुर्मास संपन्न कर भगवान् चंपा पधारे । मगध नरेश श्रेणिक की मृत्यु के बाद कोणिक ने चंपा को अपनी राजधानी बनाया। भगवान् के आगमन