Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Sumermal Muni
Publisher: Sumermal Muni

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Page 221
________________ २०२/तीर्थंकर चरित्र निष्फल नहीं होता। उनके प्रथम प्रवचन में ही संघ की स्थापना हो जाती है । भगवान् महावीर की प्रथम देशना निष्फल रहने से इसे दस आश्चर्यों में एक आश्चर्य माना गया। कई आचार्य मानते हैं कि प्रथम प्रवचन में व्यक्ति उपस्थित हुए फिर भी कोई व्रती नहीं बन सका। गणधरों की दीक्षा जंभिय गांव से विहार कर भगवान् महावीर मध्यम पावा पधारे । वहां धनाढ्य विप्र सोमिल ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें अनेक उच्च कोटि के विद्वान् समागत थे। इनमें ग्यारह महापंडित अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ वहां समुपस्थित थे। ___ मध्यम पावा में देवों ने समवसरण की रचना की। शहर के नर-नारी झुंड के झुंड पहुंचने लगे। गगन मार्ग से देव-देवियों के समूह आने लगे। इन्हें देखकर पंडित बड़े प्रसन्न हुए और बोले-देखो, ये देवता हमारे यज्ञ में आहुति लेने आ रहे हैं। कुछ ही क्षणों में यज्ञ मंडप के ऊपर से देवों के आगे चले जाने पर वे सशंकित हुए। जब उन्होंने इसका पता लगाया तो जानकारी मिली कि वे सर्वज्ञ महावीर के समवसरण में जा रहे हैं। पंडितों ने इसे अपनी तौहीन समझी। सबसे बड़े पंडित इंद्रभूति गौतम ने सोचा- “लगता है महावीर पाखंडी है, एन्द्रजालिक है। यह लोगों को भरमा रहा है। चर्चा में मेरे सामने नहीं टिक पायेगा। मैं इसे पराजित करके ही दम लूंगा।' ऐसा निर्णय कर इंद्रभूति जी गौतम अपने पांच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के समवसरण में आये। समवसरण में प्रभु को देखते ही गौतम विस्मित हो गये। निकट आते ही भगवान् ने “गौतम" कहकर संबोधित किया तो वे चकित रह गये फिर सोचा- “मेरे पांडित्य की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई है। मुझे कौन नहीं जानता। गौतम के वर्षों से एक संशय जमा हुआ था, जिसे उन्होंने किसी के सामने नहीं कहा। उस संदेह को प्रकट करते हुए भगवान् ने कहा- "गौतम ! तुम्हारे मन में आत्मा के अस्तित्व के बारे में शंका है" | इंद्रभूतिजी चौंके और समझ गये कि ये वास्तव में सर्वज्ञ है। प्रभु ने विस्तार से आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया। इन्द्रभूति की शंका मिट गई और अपने पांच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की, शिष्यत्व ग्रहण किया। इन्द्रभूति की दीक्षा के साथ ही तीर्थ स्थापित हो गया। उनके बाद क्रमशः दसों अवशिष्ट पंडित भी आ गये और अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान पाकर उन्होंने भगवान् के पास शिष्यत्व स्वीकार किया। दिगंबर परंपरा में यह घटना दूसरे रूप में मिलती है। उसके अनुसार सर्वज्ञता प्राप्ति के पश्चात् भगवान् जंगल में देवनिर्मित समवसरण में विराजमान हो गये,

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