Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Sumermal Muni
Publisher: Sumermal Muni

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ १९०/तीर्थंकर चरित्र आश्रम के पांच सौ तापसों के कुलपति की पत्नी की कुक्षि से पुत्र रूप में जन्मा नाम रखा गया कौशिक । प्रवृत्ति उग्र होने से सब उसे चंडकौशिक कहने लगे। उसका आश्रम व उसके पार्श्ववर्ती वनप्रदेश के प्रति गहरा ममताभाव था। एक बार 'सेयविया' के राजकुमारों ने वन प्रदेश में कुछ उजाड़ कर दिया। सूचना मिलने पर उन राजकुमारों के पीछे वह हाथ में परशु लिए दौड़ा। राजकुमार भाग निकले। चंडकौशिक दौड़ता हुआ गड्डे में गिर पड़ा। परशु की धार अत्यन्त तीक्ष्ण थी। उस पर गिरने से चंडकौशिक का शिरच्छेद हो गया। वहां से इसी आश्रम क्षेत्र में आशीविष सर्प बन गया। ____ अब चंडकौशिक प्रतिबुद्व हो चुका था। उसने यह संकल्प ले लिया- “अब मैं किसी को भी नहीं सताऊंगा और न आज से जीवनपर्यन्त भोजन, पानी ग्रहण करूंगा"। इस संकल्प के साथ सर्प ने अपने मुंह को बिल में डाल दिया, शेष शरीर को बिल से बाहर । उसके बदले स्वरूप को देखकर आबाल वृद्ध दूध, घी आदि से पूजा अर्चना करने लगे। इससे सर्प के शरीर पर चींटियां लगने लगीं । चींटियों ने उसके शरीर को छलनी बना दिया। इस प्रकार वेदना को समभाव से सहकर सर्प आठवें स्वर्ग में देव रूप में उत्पन्न हुआ। ऐसे थे पतित पावन महावीर । भगवान् का नौकारोहण ___चंडकौशिक का उद्धार कर भगवान् उत्तर वाचाला पधारे। वहां नागरे के सदन में पन्द्रह दिन की तपस्या का खीर से पारणा किया। वहां से श्वे । नगरी पधारे । नगरी के राजा ने भगवान् का भावभीना सत्कार किया। श्वेताबिका से सुरभिपुर जाते हुए मार्ग में गंगा नदी आई। गंगा को पार करने के लिए नौका पर आरूढ़ हो गये। गंगा मध्य पहुंचने पर सुदंष्ट्र देव ने भयंकर तूफान खड़ा कर नौका को उलटने की कोशिश की, पर भक्त नागकुमार देव कम्बल और शम्बल ने उस देव के प्रयत्न को सफल नहीं होने दिया। धर्म चक्रवर्ती नौका से उतर कर भगवान् गंगा के किनारे थूनाक सन्निवेश पधारे और वहां ध्यानमुद्रा में अवस्थित हो गये। गांव के पुष्य नामक निमित्तज्ञ ने भगवान् के चरण चिन्ह देखकर सोचने लगा-इन चिन्हों वाला अवश्य ही कोई चक्रवर्ती या सम्राट होना चाहिए। लगता है कि किसी संकट के कारण अकेला घूम रहा है। यह देखने के लिए चरण-चिन्हों का अनुसरण करता हुआ भगवान् के पास आया। वहां एक भिक्षुक को देखकर उसके मन में ज्योतिष शास्त्र से श्रद्धा हिल गई। वह अपने शास्त्रों को गंगा में फेंकने के लिए उद्यत हुआ तभी इन्द्र ने साक्षात् होकर कहा-'पंडित! शास्त्र ठीक कह रहा है। इससे श्रद्धा को मत हिलाओ। यह साधारण पुरुष नहीं धर्म चक्रवर्ती है। यह देवेन्द्रों व नरेन्द्रों के भी वंदनीय हैं ।' 'ऐसा सुनकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242