Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Sumermal Muni
Publisher: Sumermal Muni

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Page 198
________________ भगवान् श्री महावीर/१७९ देखे । देवानन्दा को स्वप्न जाते हुए नजर आये और महारानी त्रिशला को स्वप्न आते हुए प्रतीत हुए। यह दिन आसोज कृष्णा १३ का था। महारानी त्रिशला ने अपने स्वप्नों के बारे में महाराज को बताया। सुबह स्वप्न पाठकों को बुलाया गया और उन्हें स्वप्नों का अर्थ पूछा तो उन्होंने कहा- 'महाराज! महारानी के गर्भ में होने वाले अंतिम तीर्थंकर का जीव आया है। राजा ने स्वप्न पाठकों को विपुल दान-दक्षिणा दी। त्रिशला की कुक्षि में भगवान् के अवस्थित होने के बाद सिद्धार्थ राजा का जनपद व भण्डार धन-धान्य से सम्पन्न हो गया। देव-सहयोग से राजभण्डार में अप्रत्याशित रूप से अर्थ की वृद्धि हुई। राजा सिद्धार्थ का मान-सम्मान आसपास के जनपदों में सहसा बढ़ता चला गया। गर्भ में प्रतिज्ञा भगवान् को गर्भ में आये सात महीने पूरे हो गये, तब एक बार वे यह सोचकर निश्चल हो गये कि मेरे हलन-चलन से माताजी को वेदना होती होगी। गर्भ का स्पन्दन बन्द होते ही माता त्रिशला चौंक उठी। गर्भ के अनिष्ट-भय से हतप्रभ हो गई। कुछ ही क्षणों में रोने-बिलखने लगी। सभी चिन्तित हो उठे। कुछ समय पश्चात् प्रभु ने अवधि दर्शन से पुनः देखा तो उन्हें सारा ही दृश्य हृदयविदारक नजर आया। तत्काल उन्होंने स्पन्दन प्रारम्भ कर दिया तब कहीं जाकर सबको शांति मिली। भगवान् ने अपने पर माता-पिता का इतना स्नेह देखकर यह प्रतिज्ञा कर ली कि माता-पिता के स्वर्गवास के बाद ही दीक्षा लूंगा, इससे पूर्व नहीं। महावीर का जन्म ___ गर्भ काल पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि में महावीर का उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में जन्म हुआ ! छप्पन दिग्कुमारियां आई और उन्होंने सारा प्रसूति कर्म किया। जन्मोत्सव मनाने के लिए सर्वप्रथम सौधर्म देवलोक के इन्द्र आये। उन्होंने नवजात शिशु को कर में लिया। उनके ही प्रतिरूप को माता के पास रखा। पांच रुप धारण कर इन्द्र बालक को मेरू पर्वत के पुंडरीक वन में गये। वहां एक शिला पट्ट पर अपनी गोद में शिशु को लेकर इन्द्र पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। उस समय अन्य तिरेसठ इन्द्र व देवगण भी उपस्थित हुए। आभियोगिक देव जल लेकर आए | सब इन्द्र-इंद्रानियों व देवों ने जन्माभिषेक किया। इन्द्र की आशंका इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर का शरीर प्रमाण काफी छोटा होता है। अभिषेक से ठीक पहले सौधर्मेन्द्र के मन में शंका हुई कि यह नन्हा सा शरीर अभिषेक की इतनी जल धारा को कैसे सह पायेगा। महावीर अवधि ज्ञानी थे। वे इन्द्र की शंका को समझ गये। तीर्थंकर अंनत

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