Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Sumermal Muni
Publisher: Sumermal Muni

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Page 203
________________ १८४/तीर्थंकर चरित्र कर दी। महावीर ने स्नान किया, चंदन आदि का लेप कर सुंदर परिधान व अलंकार धारण किये। देव-निर्मित विशाल एवं भव्य ‘चंद्रप्रभा सुख पालिका में महावीर बैठे। देवों व मनुष्यों ने संयुक्त रूप से उसे उठाया। इसमें अनगिनत देवी-देवता, हजारों स्त्री, पुरुषों, राजा नंदीवर्धन के पूरे लाव लश्कर के साथ सुख पालिका ज्ञात खंड वन में अशोक वृक्ष के नीचे रखी। सुखपालिका से उतर कर महावीर ने अपने समस्त वस्त्रालंकार उतार दिये। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी, दिन का तीसरा प्रहर, पूर्वाभिमुख महावीर ने पंचमुष्ठि लोच किया। शक्रेन्द्र ने केशों को थाल में लिया और उन्हें क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर दिया। ___ महावीर ने ‘णमो सिद्धांण' कहते हुए देव-मनुष्यों की विशाल परिषद् के बीच यह प्रतिज्ञा की सव्वं मे अकरणिज्जं पावं कम्मं अब से मेरे लिए सब पाप कर्म अकरणीय है। यह कहते हुए उन्होंने सामायिक चारित्र स्वीकार किया। दीक्षित होते ही उन्होंने अभिग्रह ग्रहण किया- केवल ज्ञान होने तक मैं व्युत्सृष्ट देह रहूंगा अर्थात् देव, मनुष्य तथा तिर्यंच (पशु जगत्) जीवों की ओर से जो भी उपसर्ग समुत्पन्न होगा उसको समभाव पूर्वक सहन करूंगा' पारिवारिक व अन्य सभी से विदा लेकर भगवान ने वहां से विहार कर दिया। सौधर्मेन्द्र ने उस समय भगवान् के कन्धे पर देव दूष्य वस्त्र रख दिया । ज्ञात खंड से विहार करके मुहूर्त भर दिन शेष रहते कुमरि ग्राम पहुंचे और वहां ध्यानावस्थित हो गये। प्रथम उपसर्ग भगवान् कुमरिग्राम के बाहर ध्यानारूढ़ हो गये। कुछ ग्वाले आये और अपने बैलों को संभला कर गांव में चले गये। कुछ समय के बाद वे ग्वाले पुनः आये और बोले- 'बाबा, मेरे बैल यहीं चर रहे थे किधर गये ?' प्रभु मौन थे। सारी रात खोजने पर भी ग्वालों को बैल नहीं मिले । संयोगवश वे बैल चरकर रात्रि को प्रभु के पास आकर बैठ गये थे। ग्वाले रात भर भटकते हुए प्रातः काल पुनः उधर से निकले तो उन्होंने बैलों को वहीं पर देखा। वे रात भर के झुंझलाये हुए तो थे ही, क्रुद्ध हो उठे । बकने लगे- बाबा क्या है! धूर्त है, बैल यहीं थे इसने बताये नहीं ! यों कहकर वे प्रभु पर कोड़े बरसाने लगे। तभी इन्द्र ने अवधि-दर्शन से देखा तथा वहां आकर मूर्ख ग्वालों को समझाया। ___ शक्रेन्द्र ने भगवान् से प्रार्थना की- 'प्रभो ! आपके कर्म बहुत हैं, अतः उपसर्ग काफी होंगे। मुझे आज्ञा दें, मैं सेवा में रहूं |' भगवान् ने मुस्कराकर कहा- 'देवेन्द्र! । अरिहन्त कभी दूसरों के बल पर साधना नहीं करते । अपने सामर्थ्य से ही वे कर्मों का क्षय करते हैं, अतः मुझे किसी की सहायता नहीं चाहिए।' दूसरे दिन वहां से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश में आये और वहां बहुल

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