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भगवान् श्री महावीर/१६९
"पाप-भीरु श्रमण जीवाकुल समझकर सचित्त जल आदि का आरंभ नहीं करते, किन्तु मैं परिमित जल का स्नान-पानादि में उपयोग करूंगा।" __ इस प्रकार के वेष को धारण कर मरीचि भगवान् के साथ विचरण करने लगा। मरीचि अपने पास आने वाले लोगों को भगवान् का मार्ग बताता और भगवान् के पास शिष्य बनने के लिए भेज देता। ____ एक बार चक्रवर्ती भरत ने भगवान से प्रश्न पूछा-'भंते ! आपकी सभा में ऐसा कोई जीव है जो इस अवसर्पिणी काल में आपके समान तीर्थंकर बनेगा।'
भगवान् ने कहा 'भरत ! इस सभा में तो कोई जीव नहीं है। समवसरण के बाहर तुम्हारा पुत्र मरीचि है वह इसी भरत क्षेत्र में अंतिम तीर्थंकर बनेगा। साथ ही इसी भरत क्षेत्र में त्रिपृष्ठ नाम से पहला वासुदेव बनेगा, महाविदेह क्षेत्र की मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती बनेगा।'
भरत जी जाते समय मरीचि के पास रुके और यह संवाद सुनाया । भरत जी की बात सुनकर मरीचि अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बोलने लगा
___ आद्योहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रवर्तिनाम्।
पितामहो जिनेन्द्राणाम्, ममाहो उत्तमं कुलम्।। मेरा कुल कितना ऊंचा है। मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं, मेरे दादा पहले तीर्थंकर है। मैं भी तीर्थंकर व पहला वासुदेव बनूंगा और चक्रवर्ती भी बनूंगा। अहो! मेरा कुल कितना उत्तम हैं ! कितनी ऋद्धि ! कितनी समृद्धि ! इस प्रकार त्रिदंड को उछालता हुआ नाचने लगा। इस कुल मद के कारण मरीचि के नीच गोत्र का बंध हो गया।
एक दिन मरीचि बीमार हो गया। किसी ने भी उसकी सेवा नहीं की। उस कष्ट में मरीचि ने निर्णय लिया कि वह अपना शिष्य बनायेगा। मरीचि स्वस्थ हुआ, उसने पूर्ववत् जन उद्बोधन का क्रम चालू किया। अपना कोई भी शिष्य नहीं बनाया उसने सोचा-मुनि बनना मेरे शिष्यत्व से उत्तम है। एक बार राजकुमार कपिल आया। उसे भी भगवान् के पास दीक्षा लेने के लिए भेजा, पर उसका वहां मन नहीं जमा । पुनः मरीचि के पास आकर कहा- मैं तो आपका ही शिष्य बनूंगा।
आखिर मरीचि ने उसे अपना शिष्य बना लिया। मरीचि सदैव भगवान् के मत को सर्वश्रेष्ठ बताता था। वह अपनी चर्या को दुर्बल मानता था किन्तु उसने अपने शिष्य कपिल के व्यामोह में यह कहना शुरू कर दिया- 'भगवान् के मार्ग में भी धर्म है और मेरे मार्ग में भी धर्म है।' इस प्रकार मरीचि ने त्रिदंडी संन्यासी के रूप में जीवन बिताया ! चौथा भव-स्वर्ग
बह्म (पांचवां) देवलोक में दस सागरोपम की स्थिति वाले देव बने।