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भगवान् श्री महावीर
आत्मा की कोई आदि नहीं है। जैन दर्शन में कोई आत्मा प्रारंभ से ही परमात्मा नहीं होती। वह कर्म बंध से भारी बनती है तो उसका नरक गमन हो जाता है। और वहां उसे कष्ट उठाना पड़ता है। जब अशुभ कर्म से हल्की होती है और पुण्य का बल होता है तो वह स्वर्गीय सुखों को प्राप्त करती हैं। संपूर्णतः कर्म मुक्त अवस्था ही मोक्ष की अवस्था है । अन्य भव्य आत्माओं की तरह महावीर की आत्मा थी । उस आत्मा ने अपने कर्तृत्व से जो कुछ किया उसी के अनुरूप उसने सुख-दुःख को प्राप्त किया । भगवान् महावीर के सताइस भवों का वर्णन मिलता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इनकी आत्मा ने मात्र इतने ही भव किए हैं। जिस भव में उन्होंने प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त किया वहां से इन भवों की संख्या ली गई हैं । पहला भव- नयसार (मनुष्य)
जंबू द्वीप के पश्चिम महाविदेह में महावप्र नामक विजय के जयन्ती नाम की नगरी थी। वहां का राजा शत्रुमर्दन था। उसके राज्य में पृथ्वी प्रतिष्ठान गांव के अधिकारी का नाम था नयसार ।
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एक समय राजाज्ञा प्राप्त कर लकड़ी लाने के लिए जंगल में गया। साथ में कई व्यक्ति थे । मध्यान्ह का समय हुआ । एक बड़े वृक्ष की छांव में नयसार अपने व्यक्तियों के साथ भोजन करने बैठा। उसी समय उसे दूर एक साधु-संघाटक दिखा । साधु एक सार्थ के संग चल रहे थे। सार्थ के आगे निकल जाने पर वे मार्ग भूल गये और उस चिलचिलाती दुपहरी में उस प्रदेश में आ गये जहां नयसार की गाड़ियों का पड़ाव था ।
मुनियों को देखते ही नयसार के हृदय में भक्ति के भाव जागे। वह उठा, सामने गया, भाव पूर्ण वंदना की। बातचीत से पता चल गया कि ये मुनि रास्ता भूल कर आये हैं। ये न केवल भूखे हैं अपितु प्यास के कारण इनका गला भी सूख रहा है। इनके बोलने में भी तकलीफ हो रही हैं। उसने बड़ी श्रद्धा के साथ मुनियों को निर्दोष आहार- पानी बहराया। मुनियों ने वृक्ष की छाया में आहार- पानी लिया ।