________________
१६८/तीर्थंकर चरित्र
नयसार उठा और साथ चलकर मार्ग बताया। मुख्य मार्ग पर आकर नयसार ने नमस्कार किया। मुनियों ने उसे उपदेश दिया । उपदेश का नयसार पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी नयसार के भव में पहली बार उन्हें सम्यक्त्व का उपार्जन हुआ। दूसरा भव- स्वर्ग ___ सौधर्म (पहले) देवलोक में एक पल्योपम स्थिति वाले देव बने । तीसरा भव- मनुष्य (मरीचि)
देवगति की आयु भोगकर नयसार का जीव चक्रवर्ती भरत का पुत्र मरीचि राजकुमार बना । भगवान् ऋषभदेव का एक बार अयोध्या नगरी में पदार्पण हुआ, समवसरण जुड़ा, भगवान् की देशना हुई। देशना से प्रभावित होकर राजकुमार मरीचि विरक्त बना और भगवान् के पास दीक्षित हो गया। चारित्र की आराधना करते हुए उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया।
मरीचि सुकुमार थे। एक बार ग्रीष्मकाल में भीषण ताप का परीषह उत्पन्न हुआ, भयंकर प्यास लगी और उनका मन इस संयम मार्ग से विचलित हो गया। मरीचि सोचने लगे- इतना कष्ट पूर्ण संयम का पालन मेरे से नहीं हो सकता क्योंकि मेरे में सहिष्णुता की कमी है। आखिर मरीचि ने निर्णय लिया कि एक बार जब घर छोड़ दिया तो पुनः गृह प्रवेश नहीं करूंगा। किन्तु साधु वेश में रहकर नियमों का पालन नहीं करूं तो आत्म-प्रवंचना होगी। इस आधार पर उसने अपने मन से एक नये वेष की परिकल्पना की और उसे धारण किया। उसने अपने वेष की कल्पना इस प्रकार की____ "जिनेन्द्र मार्ग के श्रमण मन, वचन और काया के अशुभ व्यापार रूप दंड से मुक्त जितेन्द्रिय होते है। पर मैं मन, वाणी और काया से अगुप्त-अजितेन्द्रिय हूं। इसलिये मुझे प्रतीक रूप से एक त्रिदंड रखना चाहिये।"
"श्रमण सर्वथा प्राणातिपात विरमण के धारक सर्वथा हिंसा के त्यागी होने से मुंडित होते हैं, पर मैं पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हूं। मैं स्थूल हिंसा से निवृत्ति करूंगा और शिखा सहित क्षुर मुंडन कराऊंगा।" ___ "श्रमण धन-कंचन रहित एवं शील की सौरभ वाले होते हैं किन्तु मैं परिग्रहधारी और शील-मुनि चर्या की सुगन्ध से रहित हूं अतः मैं चन्दन आदि का लेप करूंगा।" ___ "श्रमण निर्मोही होने से छत्र नहीं रखते पर मैं मोह-ममता से युक्त हूं, अतः छत्र धारण करूंगा और उपानद् (चप्पल) खड़ाऊ भी पहनूंगा।" ___ "श्रमण निरम्बर और शुक्लाम्बर होते है, जो स्थविर कल्पी हैं वे निर्मल मनोवृत्ति के प्रतीक श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, पर मैं कषाय से कलुषित हूं अतः मैं काषाय वस्त्र गेरूए, वस्त्र धारण करूंगा।"